कोरोना के खिलाफ वैज्ञानिकों की जंग


यह हमारा सौभाग्य है कि अब तक ज्ञात ब्रह्मांड में केवल हमारी धरती पर ही जीवन है। सिर्फ जीवन ही नहीं है, बल्कि मानव जाति ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में इतनी प्रगति की है कि आज हम एक सुविधाजनक और सुरक्षित जीवन जीने में भी सक्षम हैं। मगर हमारी वर्तमान दुनिया राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरण की दृष्टियों से उथल-पुथल के दौर में है। ऐसी परिस्थिति में मानव जाति अपना वजूद कब तक तक कायम रख सकती है? इस समय मानव जाति के सामने यह एक मुश्किल सवाल है, क्योंकि इसके जवाब आशंकित करने और डराने वाले हैं। हम इंसानों के लिए सबसे डरावना भविष्य वह है जिसमें मानव सभ्यता के ही खत्म हो जाने की कल्पना की जाती है। ये कल्पनाएं निराधार नहीं हैं। हम जलवायु परिवर्तन, परमाणु युद्ध, वैश्विक महामारी, जैव विविधता का विनाश, ओज़ोन परत में सुराख, जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी के साथ-साथ आसमानी खतरों जैसे किसी उल्का या धूमकेतु के टकरा जाने के जानलेवा खतरों का भी सामना कर रहें हैं।

इस समय देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया कोरोना वायरस नामक एक ऐसे दुष्चक्र में फंसी है जिससे निकलने के लिए असाधारण कदमों और उपायों की जरूरत है। अगर हालात काबू में न किए गए तो इससे धरती से जीवन के खत्म होने का ही संकट पैदा हो जाएगा। महामारी कोविड-19 फैलाने वाले कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दुनिया में 37 लाख 30 हजार तक पहुंच गई है और 2 लाख 58 हजार से अधिक लोग (6 मई तक) जान गंवा चुके हैं। हर रोज संक्रमित लोगों और मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है और यह महामारी नए इलाकों में पाँव पसारती जा रही है।

चीन के समुद्री खाद्य पदार्थों के बाज़ार वुहान से निकला यह वायरस आतंक का पर्याय बन गया है। चूंकि कोविड-19 एक नया वायरस है, इसलिए इसके बारे में वैज्ञानिकों के अनुमान दिन-ब-दिन बदलते जा रहे हैं। इसी नवीनता की वजह से वैज्ञानिक अभी असमंजस में हैं कि कोविड-19 से निपटने के सबसे कारगर तरीके क्या होंगे। इस नवीनता की बदौलत ही इसके खिलाफ हमारे पास फिलहाल कोई टीका नहीं है, जो कि रोकथाम का एक प्रमुख उपाय है। यह इतनी ही तेजी से फैलता जाएगा अगर हमने रोकथाम न की। इस रोकथाम के लिए हम सभी कुछ चीजें कर सकते हैं। हम अपने हाथ धो सकते हैं। चेहरे को छूने से बच सकते हैं। अगर हमें बुखार या खांसी है तो हम दूसरे लोगों से अपने आप को अलग रख सकते हैं और अगर हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जिसे कोविड-19 है, तो हम अपनी जांच करवा सकते हैं।

अब तक हमारे पास कोविड-19 का कोई विशेष उपचार उपलब्ध नहीं है। इसलिए अभी लक्षणों का ही इलाज किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि रोगी को सांस लेने में सहायता मिले, बुखार पर नियंत्रण रखा जाए और पर्याप्त तरल शरीर में पहुंचाया जाएं। फिर भी वैज्ञानिकों ने कुछ उपाय सुझाए हैं और कुछ प्रगति भी की है। बहरहाल, इस संदर्भ में वर्तमान में दो रास्ते अपनाए जा रहे हैं।

पुरानी दवाइयों की आजमाइश

पहला रास्ता है कि पुराने एंटी वायरल दवाओं को कोविड-19 के उपचार में इस्तेमाल करने की कोशिश करना। वैसे भी अभी हाल तक हमारे पास वास्तव में कारगर एंटी वायरल दवाइयां बहुत कम थीं। खास तौर से ऐसे वायरसों के खिलाफ औषधियों की बेहद कमी थी, जो जेनेटिक सामग्री के रूप में डीएनए की बजाय आरएनए का उपयोग करते हैं, जिन्हें रिट्रोवायरस कहते हैं। कोरोना वायरस इसी किस्म का वायरस हैं। और कोविड-19 तो एक नया वायरस या किसी पुराने वायरस की नई किस्म है। लेकिन हाल के वर्षों में वैज्ञानिक शोधों की बदौलत हमारे एंटी वायरल जखीरे में काफी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसा कतई नहीं है कि रोज–दो–रोज में दवा बाजार में आ जाएगी। जो भी दवा इस रोग पर कारगर लगता है उसकी तरह–तरह से, विविध परिस्थितियों में जांच करनी होगी, ताकि उसके दुष्प्रभाव जाने जा सकें, उसे प्रभावशाली बनाया जा सके। तो फिलहाल यह तरीका ठीक ही लगता है कि नई दवा का इंतजार करते हुए पुरानी दवाओं को आज़माया जाए।

पत्रिका दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वॉशिंगटन में कोविड-19 से संक्रमित एक व्यक्ति के इलाज के लिए एंटी वायरल दवा  रेमडेसिविर का इस्तेमाल किया गया। यह दवा मूलत: इबोला वायरस के उपचार के लिए विकसित की गई थी और इसे कोविड-19 के संदर्भ में अभी तक मंज़ूरी नहीं मिली है। हालांकि विशेष मंज़ूरी लेकर जब मरीज को यह दवा दी वह स्वस्थ हो गया। वैज्ञानिकों ने रेमडेसिविर को प्रयोगशाला में जंतु मॉडल्स में अन्य कोरोना वायरस के खिलाफ भी परखा है। लेकिन यह नहीं दर्शाया जा सका है कि यह दवा सुरक्षित है और न ही यह कहा जा सकता है कि यह कारगर है।

अप्रैल महीने में कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कई एंटी वायरल दवाओं का परीक्षण कोविड-19 पर किया है। यह पता चला है कि रेमडेसिविर कम से कम प्रयोगशाला की तश्तरी में तो इस वायरस को प्रजनन करने से रोक देती है। इसी तरह यह भी पता चला है कि आम मलेरिया-रोधी औषधि क्लोरोक्विन प्रयोगशाला में कोविड-19 को मानव कोशिकाओं में आगे बढ़ने से रोकती है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एंटी माइक्रोबियल एजेंट्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक शोधकर्ताओं ने इस महीने के आरंभ में मरीजों को मलेरिया-रोधी हाइड्रोक्सी- क्लोरोक्विन और एंटीबायोटिक एजिथ्रोमाइसिन की खुराक दी थी। भारत में जयपुर के चिकित्सकों ने तीन मरीजों को एड्स की दवाओं से ठीक किया था। ऐसा माना जा रहा है कि ये तीनों दवाइयां आगे परीक्षण के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं। इस बीच चीनी चिकित्सकों ने यह दावा किया है कि कोविड-19 के इलाज में जापान की नई एंटी फ्लू दवा बेहद कारगर साबित हुई है।

कोरोना वायरस की वैक्सीन

दूसरा रास्ता है कि इसके लिए (टीके) वैक्सीन की खोज को निरंतर जारी रखी जाए। दरअसल, जब कोई वायरस शरीर में प्रवेश करता है तो उसे कोशिकाओं के अंदर पहुंचना पड़ता है। कोशिकाओं में प्रवेश पाने के लिए वह कोशिका की सतह पर किसी प्रोटीन से जुड़ता है। यह प्रोटीन रिसेप्टर-प्रोटीन कहलाता है। वायरस के रिसेप्टर मानव कोशिका झिल्ली (ह्यूमन सेल मेंबरीन) को तोड़ देते हैं और कोशिकाओं में घुस जाते हैं। वायरस को कोशिकाओं में घुसने और उन्हें संक्रमित करने के लिए इस प्रक्रिया की जरूरत होती है। शोधकर्ता कोरोना वायरस के इसी रिसेप्टर को लक्षित करके वैक्सीन विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका मानना है कि अगर वायरस के स्पाइक प्रोटीन रिसेप्टर को लॉक कर दिया जाए तो उसे मानव कोशिकाओं में घुसपैठ करने से रोका जा सकता है। वैज्ञानिक वायरस के संक्रमण के किसी भी चरण में बाधा पहुंचाकर वायरस का प्रसार रोक सकते हैं।

करीब 102 वैक्सीन अभी विकास की अवस्था में हैं और एक वैक्सीन के जानवरों पर परीक्षण से पहले ही मनुष्यों पर ट्रायल शुरू हो गया है। जैव सूचना और कृत्रिम जीव-विज्ञान के समन्वय से पूरी तस्वीर बदल गई है। कोविड-19 कोरोना वायरस के जीनोम के प्रकाशित होने के सिर्फ 42 दिनों में बायोटेक कंपनी मॉडर्न थेरेप्यूटिक्स ने क्लिनिकल परीक्षण के लिए अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज को वैक्सीन भेज दिए, जो मई महीने के आखिरी दिनों में शुरू होना प्रस्तावित है। इस वैक्सीन को बनाने में कंपनी को महज एक हफ्ते का समय लगा। ऐसे में, यह भरोसा जगता है कि बाजार में इस नए वायरस का टीका जल्दी से जल्दी उपलब्ध होगा, क्योंकि क्लिनिकल परीक्षण भी अब कहीं अधिक तीव्र और सुरक्षित बन चुका है। हालांकि एक अनुमान के मुताबिक ऐसी किसी वैक्सीन के विकास-परीक्षण में कम से कम एक साल का समय लगेगा।

इस साल की शुरुआत से ही दवा कंपनियां और शोध संस्थान कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में लगे हुए हैं। जर्मन एसोशिएसन ऑफ रिसर्च बेस्ड फार्मास्युटिकल कंपनीज के मुताबिक दुनियाभर में कम से कम ऐसे 115 प्रॉजेक्ट चल रहे हैं जिनमें वैक्सीन बनाने की कोशिश जारी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इनकी संख्या कम से कम 102 है। फिलहाल तीन तरह की वैक्सीन बनाने पर काम चल रहा है। इनमें लाइव वैक्सीन, इनएक्टिवेटेड वैक्सीन और डीएनए अथवा आरएनए वैक्सीन (जीन बेस्ड वैक्सीन) बनाने की कोशिश चल रही हैं।

लाइव वैक्सीन की शुरुआत एक वायरस से होती है लेकिन ये वायरस हानिकारक नहीं होते हैं। इनसे बीमारियां नहीं होती हैं लेकिन शरीर की कोशिकाओं के साथ अपनी संख्या को बढ़ाते हैं। इससे शरीर का रोग प्रतिरोधक तंत्र सक्रिय हो जाता है। इनएक्टिवेटेड वैक्सीन में कई सारे वायरल प्रोटीन और इनएक्टिवेटेड वायरस होते हैं। बीमार करने वाले वायरसों को पैथोजन या रोगजनक कहा जाता है। इनएक्टिवेटेड वैक्सीन में मृत रोगजनक होते हैं। ये मृत रोगजनक शरीर में जाकर अपनी संख्या नहीं बढ़ा सकते लेकिन शरीर इनको बाहरी आक्रमण ही मानता है और इसके विरुद्ध शरीर में एंटीबॉडी विकसित होने लगते हैं। इनएक्टिवेटेड वायरस से बीमारी का कोई खतरा नहीं होता। ऐसे में शरीर में विकसित हुए एंटीबॉडी में असल वायरस आने पर भी बीमारी नहीं फैलती। हालांकि इनएक्टिवेटेड वैक्सीन की तुलना में जीन बेस्ड वैक्सीन का सबसे बड़ा फायदा ये है कि इनका उत्पादन तेजी से किया जा सकता है।  एक बात तो तय है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन तैयार होने के बाद इसकी करोड़ों डोज की एक साथ जरूरत होगी। इस मांग को पूरा करने के लिए करोड़ों की संख्या में ही इस वैक्सीन का उत्पादन किया जाएगा। जीन बेस्ड वैक्सीन में कोरोना वायरस के डीएनए या एम-आरएनए की पूरी जेनेटिक सरंचना मौजूद होगी। इन पैथोजन में से जेनेटिक जानकारी की महत्वपूर्ण संरचनाएं नैनोपार्टिकल्स में पैक कर कोशिकाओं तक पहुंचाई जाती हैं। ये शरीर के लिए नुकसानदायक नहीं होती है। जब ये जेनेटिक जानकारी कोशिकाओं को मिलती है तो वह शरीर के रोग प्रतिरोधक तंत्र को सक्रिय कर देती हैं। जिससे बीमारी को खत्म किया जाता है।

हर किसी के मन में यही सवाल है कि आखिर वैक्सीन बनकर तैयार कब होगी? ये सिर्फ वैक्सीन बन जाने पर ही निर्भर नहीं करता है। सबसे पहले किसी भी वैक्सीन के प्रयोगशाला में टेस्ट होते हैं। फिर इनको जानवरों पर टेस्ट किया जाता है। इसके बाद अलग-अलग चरणों में इनका परीक्षण इंसानों पर किया जाता है। फिर अध्ययन करते हैं कि क्या ये सुरक्षित हैं, इनसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है और क्या ये प्रायोगिक रूप से काम कर रही हैं। जब ये सारी बाधाएं दूर हो जाती हैं तो इन्हें बनाने की परेशानियां सामने आती हैं।  पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन उपलब्ध करवाना एक बड़ी चुनौती है। फिलहाल दुनिया की किसी एक कंपनी के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह सबको वैक्सीन उपलब्ध करवा दे।

दरअसल, वायरसों के साथ दो प्रमुख समस्याएं होती हैं। पहली है कि वायरस में बहुत विविधता पाई जाती है। दूसरी दिक्कत है कि वायरस आपकी अपनी कोशिका की मशीनरी का उपयोग करते हैं। इस वजह से वायरस के कामकाज में बाधा डालते हुए खतरा यह भी रहता है कि कहीं आपकी कोशिकीय मशीनरी प्रभावित न हो। बहरहाल, इन मामलों से निपटने के लिए वैज्ञानिक दिन-रात अनुसंधानरत हैं।

क्या है प्लाज्मा थैरेपी? 
कोरोना वायरस के संक्रमण के बीच प्लाज्मा थैरेपी या कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थैरेपी चर्चा के केंद्र में है। खबरों के मुताबिक सार्स-सीओवी, एच1एन1 और मर्स सीओवी जैसे खतरनाक वायरसों के इलाज में भी इस थैरेपी का इस्तेमाल किया गया था। मी‍डिया में आई खबरों के अनुसार दिल्ली के एक निजी अस्पताल में इस थैरेपी का इस्तेमाल जिस 49 वर्षीय गंभीर रूप से संक्रमित व्यक्ति पर किया गया वह कम समय में ही ठीक हो गया। इसके बाद से प्लाज्मा थैरेपी को उम्मीद की एक किरण के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल, इंसान के खून में 2 चीजें होती हैं, पहली लाल रक्त कोशिकाएं, दूसरी श्वेत रक्त कोशिकाएं, तीसरी प्लेट्लेट्स और चौथी प्लाज्मा। प्लाज्मा खून का तरल यानी लिक्व‍िड वाला हिस्सा होता है। शरीर में किसी वायरस के आ जाने पर प्लाज्मा ही एंटीबॉडी बनाने में मदद करता है। चूंकि कोरोना भी शरीर में बाहर से आने वाला एक वायरस है, ऐसे में हमारा शरीर इससे लड़ने के लिए खुद-ब-खुद एंटीबॉडी बनाता है, जिसमें सबसे बड़ी भूमिका होती है रक्त में मौजूद प्लाज्मा। आपका शरीर कितना ज्यादा एंटीबॉडी बनाने में कारगर है यही बात कोरोना को हराने के लिए जरूरी है। शरीर अगर जरूरत के अनुसार एंटी बॉडी बना लेता है तो ठीक हो सकता है। अब दूसरी बात, जब आप एंटीबॉडी बना कर किसी वायरस को मात दे देते हैं, तो इसके बाद भी लंबे समय तक एंटीबॉडी प्लाज्मा के साथ आपके खून में मौजूद रहती हैं। आप चाहें तो इन्हें डोनेट कर सकते हैं।  इस थैरेपी  के तहत में ठीक हुए व्यक्ति के ब्लड से एंटीबॉडीज निकालकर कोरोनावायरस से पीड़ित व्यक्ति के शरीर में डाली जाती हैं, जिससे कोरोनावायरस से पीड़ित व्यक्ति को ठीक किया जा सकता है!मैक्स अस्पताल के डॉक्टर संदीप बुद्धिराजा के मुताबिक, “इस नई थैरेपी के इस्तेमाल से कोविड-19 के इलाज में एक नई तकनीक जरूर जुड़ गई है। लेकिन हमें ये भी समझना होगा कि ये कोई जादू की छड़ी नहीं है। हमने अपने मरीज पर कोविड-19 के इलाज में प्लाज्मा थैरेपी के साथ-साथ बाकी दूसरे तरीकों को इलाज में शामिल रखा। जिससे ये पता चलता है कि ये प्रक्रिया ‘केटेलिस्ट’ यानी उत्प्रेरक का काम करती है। केवल प्लाज्मा थैरेपी से ही सब ठीक हो रहे हैं, ऐसा नहीं है।”कोरोना वायरस के इलाज के लिए भारत के दिल्ली और पंजाब जैसे राज्य में इसको ट्रायल के तौर पर मंजूरी मिली है। फिर भी कोरोना के इलाज में प्लाज्मा ट्रीटमेंट कितना कारगर है यह कह पाना अभी मुश्किल है। लेकिन चीन में इससे इस्तेमाल से मरीजों की सेहत में सुधार देखा गया था। कई दूसरे देशों से भी इस ट्रिटमेंट से फायदा मिलने की खबरें मिली हैं। बहरहाल, भारत में आईसीएमआर और डीजीसीआई के ट्रायल के बाद ही कुछ कहा जा सकता है।

कोरोना वायरस आया कहाँ से?

महामारी का रूप धारण कर चुके कोरोना वायरस के संक्रमण ने देश-दुनिया में बेहद भयावह परिस्थितियां पैदा कर दी है। अभी भी दुनिया भर के जीव विज्ञानियों के बीच इस बात पर जद्दोजहद चल रही है कि कोरोना वायरस ‘कोविड-19’ आखिर आया कहाँ से? हालांकि ज़्यादातर जीव विज्ञानी इस बात से सहमत हैं कि चमगादड़ कोरोना वायरस को फैलाने वाला एक प्राकृतिक स्रोत है, मगर हमारे पास फिलहाल यह मानने का कोई भी आधार नहीं है कि यह वायरस सीधे चमगादड़ से इंसानों में पहुंचा है। जीव विज्ञानियों का मानना है कि कोरोनो वायरस के चमगादड़ से इंसानों में फैलने के बीच कोई अन्य जानवर इंटरमिडिएट (बिचौलिया) या होस्ट हो सकता है। सवाल यह उठता है कि यह बिचौलिया जीव आखिर कौन है?

हाल ही में प्रतिष्ठित साइंस जर्नल ‘नेचर’ में प्रकाशित हुए एक शोधपत्र में यह दावा किया गया है कि इंसानों में यह वायरस ‘पैंगोलिन’ से आया है। इस अनुमान की एक वज़ह यह है कि कोविड-19 उस वायरस फैमिली का सदस्य है जिसके अंदर कई सार्स (सीवीयर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी व मेर्स (मिडल ईस्ट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी आते हैं जिनमें से कई चमगादड़ में पाए जाते हैं और वह किसी बिचौलिए जीव के जरिए पहले भी इंसानों को संक्रमित कर चुके हैं।

जैसे कि 2003 में जो सार्स का आउटब्रेक हुआ वह इंसानों में सिवेट बिल्ली से चीन में फैला, हालांकि यह वायरस चमगादड़ में पहले से मौजूद रहा है। 2012 का मर्स फ्लू ऊंटों से इंसानों में फैला और इसका केंद्र सऊदी अरब था। 2009 का बहुचर्चित स्वाइन फ्लू मैक्सिको में शुरू हुआ और वह सुअरों के जरिए इंसानों तक पहुंचा।

इस शोध के जरिये वैज्ञानिकों ने कहा है कि पैंगोलिन में ऐसे वायरस मिले हैं जो कोरोना वायरस से काफी हद तक मेल खाते हैं। पैंगोलिन एक लगभग विलुप्तप्राय जीव हैं। इसके के बारे में कहा जाता है दुनिया भर मे इसकी बहुत ज्यादा तस्करी होती है। पारंपरिक चीनी दवाइयों के निर्माण में पैंगोलिन का इस्तेमाल होता है। चीन में कई लोग इसके मांस को भी बड़े चाव से खाते हैं। चीन, वियतनाम और एशिया के कुछ देशों में इसके मांस को स्टेटस सिंबल से भी जोड़कर देखा जाता है। नए रिसर्च में पाया गया है कि पैंगोलिन में पाए गए कोरोना वायरस की जीन संरचना मौजूदा कोरोना वायरस की जीन संरचना से 88.5 फीसदी से लेकर 92.4 फीसदी तक मेल खाता है।

चमगादड़ के अलावा कोरोना वायरस के परिवार से संक्रमित होने वाला पैंगोलिन इकलौता स्तनपायी जीव है। लेकिन ये शोध अभी भी शुरुआती चरण में है इसलिए इस मामले में जीव विज्ञानी किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने को लेकर सावधानी बरत रहे हैं। शोधकर्ताओं ने सलाह दी है कि पैंगोलिन पर और ज्यादा नज़र रखे जाने की ज़रूरत है ताकि कोरोना वायरस के उभरने में उनकी भूमिका और भविष्य में इसांनों में उनके संक्रमण के ख़तरे के बारे में पता लगाने के बारे में एक समझ बनाई जा सके। कई जीव विज्ञानियों का यहाँ तक कहना है कि भविष्य में इस तरह के संक्रमण टालने हैं तो जंगली जीवों के बाज़ारों में जानवरों की बिक्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा देनी चाहिए।

मिथकों और कॉन्सपिरेसी-सिद्धांतों की बाढ़

सोशल मीडिया पर कोविड-19 से जुड़ी कई तरह के मिथकों और कॉन्सपिरेसी-सिद्धांतों की बाढ़ आई हुई है। जैसे यह दावा कि कोरोना वायरस चीनी वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशाला में निर्मित एक जैविक हथियार है। जबकि प्रतिष्ठित साइन्स जर्नल ‘नेचर मेडिसिन’ में प्रकाशित शोधपत्र से यह पता चलता है कि यह वायरस कोई जैविक हथियार न होकर प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ये वायरस लैब निर्मित होता तो सिर्फ-और-सिर्फ इंसानों के जानकारी में आज तक पाए जाने वाले कोरोना वायरस के जीनोम सीक्वेंस से ही इसका निर्माण किया जा सकता, मगर वैज्ञानिकों द्वारा जब कोविड-19 के जीनोम को अब तक के ज्ञात जीनोम सीक्वेंस से मैच किया गया तब वह एक पूर्णतया प्राकृतिक और अलग वायरस के तौर पर सामने आया है। नोवल कोरोना वायरस का जीनोम चमगादड़ और पैंगोलिन में पाए जाने वाले बीटाकोरोना वायरस के समान है।

दरअसल पश्चिमी मीडिया ने भी इस बात को खूब प्रचारित-प्रसारित किया कि कोरोना वायरस चीन की प्रयोगशाला में एक जैविक हथियार के रूप में विकसित किया गया था। हद तो तब हो गई जब अमेरिकी समाज विज्ञानी स्टीवन मोशर का ‘न्यूयॉर्क पोस्ट’ में लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने यह संभावना जताया कि कोविड-19 वायरस को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलोजी की किसी प्रयोगशाला में बनाया गया है, जहां से वह असावधानीवश लीक हुआ है। वायरस की ज्ञात किस्मों की जीन सिक्वेंसिंग के बारे में उपलब्ध डेटा की तुलना के बाद अधिकांश जीव विज्ञानी यह दृढ़तापूर्वक कह रहे हैं कि इस वायरस की उत्पत्ति प्राकृतिक प्रक्रियाओं से हुई है।

होम्योपैथी और आयुर्वेद में कोविड-19 के इलाज के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन चिकिसा विज्ञानियों की माने तो यह दावे सही नहीं है। क्योंकि यह वायरस नया है। जब तक किसी दवा का क्लिनिकल ट्रायल नहीं हो जाता तब तक हम नहीं कह सकते कि यह दवा काम करेगी या नहीं। अभी कुछ कहना जल्दबाजी ही होगी। ऐसी ही अनेक दावे जैसे गौमूत्र पीने या लहसुन खाने से कोरोना का संक्रमण नहीं होता, मांसाहारी भोजन करने वाला व्यक्ति ही इससे संक्रमित होता है वगैरह-वगैरह भी मिथक हैं।

हाल ही में फ्रांस के वायरस वैज्ञानिक और एड्स-वायरस (एच.आई.वी.) की खोज के लिए 2008 में चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार विजेता ल्यूक मॉन्टेनियर ने दावा किया है कि सार्स-सीओवी-2 वायरस मानव निर्मित है। उनके अनुसार यह वायरस चीन की प्रयोगशाला में एड्स वायरस के खिलाफ वैक्सीन बनाने के प्रयास के दौरान असावधानीवश लीक हुआ है।

ल्यूक ने यह दावा कर पूरी दुनिया के विज्ञान और राजनीतिक खेमों में हलचल मचा दी है। ल्यूक ने एक फ्रेंच चैनल के साथ इंटरव्यू में कहा है कि “कोरोना वायरस के जीनोम में एचआईवी सहित मलेरिया के कीटाणु के तत्व पाए गए हैं, जिससे शक होता है कि यह वायरस प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं हो सकता। चूंकि वुहान की बायोसेफ्टी लैब साल 2000 के आसपास से ही कोरोना वायरसों को लेकर विशेषज्ञता के साथ रिसर्च कर रही है इसलिए यह नया कोरोना वायरस एक तरह के औद्योगिक हादसे का नतीजा हो सकता है।”

ल्यूक आगे कहते हैं कि “अगर हम इस वायरस के जीनोम (आनुवंशिक संरचना) को देखें तो यह आरएनए की एक लंबी शृंखला है। इस शृंखला में चीन के आणविक जीव वैज्ञानिकों ने एचआईवी की कुछ छोटी-छोटी कड़ियां जोड़ दी हैं। और इन्हें छोटा रखने का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इससे एंटीजेन साइट्स (वायरस की बाहरी सतह जिससे इसका मुकाबला करने वाली हमारे शरीर की एंटीबॉडीज़ जुड़ती हैं) में बदलाव किया जा सकता है जिससे वैक्सीन बनाने में मदद मिलती है। यह काम बहुत सटीक है। किसी घड़ीसाज़ के काम जैसा बारीक!”

गौरतलब है कि ल्यूक जीव विज्ञानी जेम्स वाटसन की तरह एक विवादित शख्सियत रहे हैं। इससे पहले उनके दो शोध पत्रों पर काफी विवाद हुआ था। एक में उन्होंने डीएनए से विद्युत-चुंबकीय तरंगें निकलने और दूसरे में एड्स और पार्किंसन रोग को ठीक करने में पपीते के फायदे पर बात की थी। उनके इन शोध पत्रों की वैज्ञानिक समुदाय में काफी आलोचना हुई थी। इसी तरह वे होम्योपैथी के बड़े हिमायती माने जाते हैं जबकि वास्तविकता में होम्योपैथी छद्मवैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली है। ल्यूक यह भी मानते हैं कि बचपन में लगाए जाने वाले टीकों से ऑटिज़्म होता है जबकि इस धारणा के विरुद्ध काफी पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद हैं।

दुनिया भर के कई वैज्ञानिकों ने ल्यूक के दावे का खण्डन किया है और कहा है कि ऐसे अवैज्ञानिक दावों से उनकी वैज्ञानिक साख तेज़ी से नीचे गिर रही है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि आज ल्यूक जैसे वैज्ञानिक विज्ञान के मूल आधारों – तर्क, युक्ति, विवेक, अनुसंधान, प्रयोग और परीक्षण – को नष्ट करने का काम कर रहे हैं। इसे विवेक पर विवेकहीनता का हमला भी कह सकते हैं।

एक स्वस्थ और सुरक्षित दुनिया के लिए आहार में परिवर्तन जरूरी 
नोवेल कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी हमारे लिए एक ऐसे अवसर के रूप में भी सामने आया है जिसमें हम अपनी भोजन प्रणाली का भी विश्लेषण करें ताकि एक स्वस्थ और टिकाऊ भविष्य के लिए अपने खानपान के तौर-तरीकों में जरूरी बदलाव कर सकें। कोरोना वायरस एक जूनेटिक वायरस है, जिसका अर्थ है इसका संचरण स्वाभाविक रूप से जानवरों से इंसानों में होता है। यह सर्वविदित है कि इस वायरस के प्रसार का केंद्र (एपीसेंटर) चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी वुहान स्थित सीफूड होलसेल मार्केट ही है, जहां मछ्ली, मुर्गियाँ, ममोर्टस्, चमगादड़, विषैले साँप, खरगोशों तथा अन्य जंगली जानवरों के अंगों को बेचा जाता है।इससे पहले साल 2002 में सार्स (सीवीयर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी वायरस के प्रसार का कारण सीवेट बिल्लियाँ थी, जिनके मांस के भक्षण के कारण यह वायरस मानव में संचारित हुआ। गौरतलब है कि सार्स के प्रसार का भी केंद्र चीन के वुहान स्थित सीफूड मार्केट ही था। चीन के पशु बाज़ार ऐसे ही जगहों के उदाहरण हैं जहाँ जानवरों से मनुष्यों में वायरस के संचरण की अधिक संभावना होती है। चीन के बाज़ारों में कई जानवरों का माँस बिकने की वजह से ये बाज़ार मानव में वायरस की प्रायिकता को बढ़ा देते हैं।कोविड-19 उस वायरस फैमिली का सदस्य है जिसके अंदर कई सार्स-सीओवी व मेर्स (मिडल ईस्ट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी आते हैं जिनमें से कई चमगादड़ में पाए जाते हैं और वह किसी बिचौलिए जीव के जरिए पहले भी इंसानों को संक्रमित कर चुके हैं। 2012 का मर्स फ्लू ऊंटों से इंसानों में फैला और इसका केंद्र सऊदी अरब था।  2009 का बहुचर्चित स्वाइन फ्लू मैक्सिको में शुरू हुआ और वह सुअरों के मांस भक्षण की वजह से हम इंसानों तक पहुंचा। एचआईवी और इबोला वायरस के बारे में भी ऐसे ही सिद्धांत प्रचलित हैं। इन विभिन्न प्रकोपों से हमें क्या सबक मिलता है? यही कि हमें अपने मौजूदा खाद्य प्रणाली की समीक्षा करनी चाहिए। वैसे भी वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (फूड एंड एग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन ऑफ द यूनाइटेड नेशंस-एफएओ) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी लगभग 10 अरब होगी। इतनी बड़ी आबादी का पेट भरना तभी संभव हो सकेगा जब हम अपनी भोजन प्रणाली और भोजन पैदा करने के तौर-तरीकों में बड़े सुधार कर पाएंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, विश्व में नई उभरती संक्रामक बीमारियों में 60 फीसदी बीमारियों का कारण जूनोसिस संक्रमण ही होता है।ऐतिहासिक रूप से ऐसी कई घटनाएँ प्रकाश में आई हैं जिनसे यह साबित होता है कि जूनोसिस संक्रमण की बदौलत वैश्विक महामारी की स्थिति कई बार बनी है। इनमें 541-542 ईसा पूर्व में चिन्हित जस्टीनियन प्लेग, 1347 में द ब्लैक डेथ, सोलहवीं सदी में यलो फीवर, 1918 में वैश्विक इन्फ्लूएंज़ा महामारी या स्पेनिश फ्लू वगैरह पशुजन्य रोगों ने मानवता पर कहर बरपा चुकी हैं। आधुनिक महामारियाँ जैसे- एचआईवी/एड्स, सार्स और एच1एन1 इन्फ्लूएंज़ा में एक बात समान है कि इन सभी मामलों में वायरस का संचरण जानवरों से इंसानों में हुआ। ऐसे स्थान जहाँ मनुष्यों और जानवरों में अनियमित रक्त और अन्य शारीरिक संपर्क जैसा संबंध स्थापित होता है, वहाँ पर वायरस का ज्यादा प्रसार होता है। गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में 30 से ज्यादा नए विषाणुओं में से 75 फीसदी संक्रमण जानवरों से इंसानों में हुआ है।मयामी यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर एवं ‘फिलॉस्फर एंड द वुल्फ’ और ‘एनिमल्स लाइक अस’ जैसी पुस्तकों के लेखक मार्क रौलैंड्स चेतना और पशु अधिकारों संबंधी अपने शोध के माध्यम से दुनिया को चेताया है कि मांसाहार कोरोना महामारी से भी अधिक बुरे नतीजे ला सकता है। वे कहते हैं कि मुझे लगता है, लोगों को यह समझाने की आवश्यकता है कि मांसाहार से उन्होंने अपना कितना नुकसान कर लिया है। यह न केवल हृदय संबंधी बीमारियां, कैंसर, डायबिटीज और मोटापा बढ़ा रहा है बल्कि पर्यावरण संबंधी कई समस्याएं भी पैदा कर रहा है, जिन्हें हम महसूस कर रहे हैं। मांसाहार के कारण बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं और पृथ्वी के लिए एक बड़ा संकट खड़ा हो रहा है।नि:संदेह दुनिया भर में भूख और कुपोषण से मानवता की लड़ाई में जंतु प्रोटीन की अहम भूमिका है। मगर सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि वैज्ञानिकों की आशंकाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। अनियंत्रित मांसाहार की प्रवृत्ति जलवायु परिवर्तन यानी धरती का तापमान बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभा रही है। उदाहरण के लिए अमेरिका में चार लोगों का मांसाहारी परिवार दो कारों से भी ज़्यादा ग्रीन हाऊस गैस छोड़ता है। सभी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है, जिसका तकरीबन आधा मांस उत्पादन से होता है। भूमि और जल के दोहन से भी इसका गहरा संबंध है। लेकिन अजीब बात है जब ग्लोबल वॉर्मिंग की बात होती है तो सिर्फ कारों की बात की जाती है, मांस खाने वालों की नहीं!

अगले दिन का सूरज जरूर देखेगी दुनिया

कुल मिलाकर वर्तमान स्थिति यह है कि कोविड-19 तेज़ी से फैल रहा है, कोई पक्का इलाज उपलब्ध नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि आने वाले दिनों में यह बीमारी क्या रुख अख्तियार करेगी। अत: इसे फैलने से रोकने के उपाय करना ही बेहतर होगा। ऐसे में सामाजिक दूरी बनाये रखकर इसकी रोकथाम में योगदान दें। हमें मानवता को बतौर एक जाति मानना ही होगा, पूरी दुनिया को मिलकर इसका हल खोजना होगा, एक-दूसरे से निरंतर संवाद करना होगा, तभी इसका बेहतर ढंग से सामना किया जा सकता है। जैसे-जैसे विज्ञान अपने पुष्ट मत रखता जाएगा, वैसे-वैसे कोविड-19 से लड़ने में हम बेहतर सिद्ध होते जाएँगे। सेपियंस और होमी डेयस के लेखक युवाल नोआ हरारी के अनुसार हाँ, यह तूफ़ान भी एक दिन थमेगा, मानवता बची रहेगी, हम में से अधिकांश अगले दिन के सूरज को देखने के लिए बचे रहेंगे पर यह दुनिया बदली हुई होगी!

2 विचार “कोरोना के खिलाफ वैज्ञानिकों की जंग&rdquo पर;

  1. मैं पिछले एक वर्ष से आपका ब्लॉग फॉलो कर रहा हूँ। हर बार की तरह आपका यह पोस्ट भी बेहतरीन है
    मैंने अभी अभी अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया है जहाँ मैं अपनी लिखी कहानियां पढता हूँ। आपसे आग्रह है की आप एक बार जरूर देखें
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