हाल ही में फ्रांस के वायरोलॉजिस्ट और साल 2008 में एचआईवी-विषाणु की खोज के लिए चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेता ल्यूक मॉन्टेनियर ने दावा किया है कि सार्स-सीओवी 2 वायरस मानव निर्मित है। उन्होंने बताया कि ये वायरस चीन के लैब में एचआईवी वायरस के खिलाफ एक वैक्सीन के निर्माण के प्रयास के परिणामस्वरूप असावधानीवश लीक हुआ है। ल्यूक ने यह दावा कर पूरी दुनिया के विज्ञान और राजनीतिक खेमों में हलचल मचा दी है। ल्यूक ने एक फ्रेंच चैनल के साथ इंटरव्यू में कहा है कि ‘कोरोना वायरस के जीनोम में एचआईवी सहित मलेरिया के जर्म के तत्व पाए गए हैं, जिससे शक होता है कि यह वायरस प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं हो सकता। वुहान की बायोसेफ्टी लैब चूंकि साल 2000 के आसपास से ही कोरोना वायरसों को लेकर विशेषज्ञता के साथ रिसर्च कर रही है इसलिए यह नोवल कोरोना वायरस एक तरह के औद्योगिक हादसे का नतीजा हो सकता है।’ आगे ल्यूक कहते हैं कि ‘अगर हम इस वायरस के जीनोम (आनुवंशिक संरचना) को देखें तो यह आरएनए की एक लंबी चेन है…जैसी डीएनए में होती है। इस चेन में चीनी मॉलीक्यूलर बायोलॉजिस्ट्स ने एचआईवी की कुछ छोटी-छोटी कड़ियां जोड़ दी हैं। और इन्हें छोटा रखने का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इससे एंटीजेन साइट्स (वायरस की बाहरी सतह जिससे इसका मुकाबला करने वाली हमारे शरीर की एंटीबॉडीज टकराती हैं) में बदलाव किया जा सकता है जिससे वैक्सीन बनाने में मदद मिलती है। यह काम बहुत सटीक है। किसी घड़ीसाज के काम जैसा महीन!’
गौरतलब है कि ल्यूक जीव विज्ञानी जेम्स वाटसन की तरह एक विवादित शख्सियत माने जाते हैं। इससे पहले उनके दो शोध पत्रों पर काफी विवाद हुआ था। एक में उन्होंने डीएनए से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगे निकलने और दूसरे में एड्स और पार्किसन रोग को ठीक करने में पपीते के फायदे पर बात की थी। उनके इन रिसर्च पेपर की वैज्ञानिक समुदाय में काफी आलोचना हुई थी। इसी तरह वे होम्योपैथी के बड़े हिमायती माने जाते हैं जबकि वास्तविकता में होम्योपैथी छद्मवैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली है। ल्यूक मानते हैं कि बचपन में लगाए जाने वाले टीकों से ऑटिज़म होता है जबकि इस धारणा के विरुद्ध काफी वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद हैं।
दुनिया-भर के अनेक वैज्ञानिकों ने ल्यूक के दावे का खण्डन किया है और कहा है कि ऐसे अवैज्ञानिक दावों से उनकी वैज्ञानिक साख तेजी से नीचे गिर रही है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि आज ल्यूक जैसे वैज्ञानिक तर्क, युक्ति, विवेक, अनुसंधान, प्रयोग और परीक्षण जैसे विज्ञान के आधारों को नष्ट करने का काम कर रहे हैं। इसे विवेक पर विवेकहीनता का हमला भी कह सकते हैं। डबल्यूएचओ कह चुका है इस बात के सबूत नहीं है कि यह वायरस किसी लैब में तैयार किया गया है। इससे पहले प्रतिष्ठित साइंस जर्नल ‘नेचर मेडिसिन’ में प्रकाशित एक शोधपत्र से यह पता चलता है कि यह वायरस कोई जैविक हथियार न होकर प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ये वायरस लैब निर्मित होता तो सिर्फ-और-सिर्फ इंसानों के जानकारी में आज तक पाए जाने वाले कोरोना वायरस के जीनोम सीक्वेंस से ही इसका निर्माण किया जा सकता, मगर वैज्ञानिकों द्वारा जब कोविड-19 के जीनोम को अब तक के ज्ञात जीनोम सीक्वेंस से मैच किया गया तब वह एक पूर्णतया प्राकृतिक और अलग वायरस के तौर पर सामने आया है। नोवल कोरोना वायरस का जीनोम चमगादड़ और पैंगोलिन में पाए जाने वाले बीटाकोरोना वायरस के समान है।
ल्यूक की पूरी थ्योरी एक ही आधार पर टिकी है कि सार्स-सीओवी 2 नामक वायरस के पूरे जीनोम में एचआईवी-1 के कुछ न्यूक्लिओटाइड सीक्वेंस पाए गए हैं। बाकी का बयान इसी आधार पर ल्यूक की परिकल्पना है। अब इस आधार को कैसे समझा जाए? यूरोपियन साइन्टिस्ट में प्रकाशित एक लेख में ल्यूक की इस थ्योरी का पूरा विश्लेषण करते हुए कोरोना वायरस यानी सार्स-सीओवी 2 और एचआईवी-1 के जेनेटिक कोड्स बताकर समझाया गया है कि दोनों में कोई सीधी समानता नहीं है। कहा गया है कि सार्स-सीओवी 2 में एचआईवी का कोई भी अंश नहीं पाया है। तमाम वैज्ञानिक डिटेल्स के ज़रिये समझाने के बाद इस विश्लेषण में लिखा गया है कि नोवल कोरोना वायरस कहां से पैदा हुआ, इसके बारे में संभावित और तार्किक थ्योरीज़ पहले ही आ चुके हैं। लगातार साज़िश के तहत कई भ्रामक थ्योरीज़ सामने आ रही हैं लेकिन अगर आप सच्चाई जानना चाहते हैं तो नेचर पत्रिका के उस लेख को पढ़ें जिसमें नए कोरोना वायरस के जीनोम को लेकर विस्तार से चर्चा है और दूसरे कोरोना वायरसों के साथ इसके अंतर को स्पष्ट रूप से समझाया गया है।
अमेरिका के टॉप मेडिकल विशेषज्ञों में शामिल डॉ. एंथनी फॉकी कह चुके हैं कि ‘यह वायरस जानवरों की प्रजातियों से मनुष्यों में पहुंचा’। दूसरी ओर, विश्व स्वास्थ्य संगठन के रीजनल इमरजेंसी डायरेक्टर रिचर्ड ब्रेनन ने कहा था कि ‘यह वायरस प्रथम दृष्ट्या ज़ूनोटिक है यानी जानवरों की प्रजातियों से फैला है’। पेरिस के वायरोलॉजिस्ट इटियेन सिमोन लॉरियर ने ल्यूक के दावे को खारिज करते हुए कहा है कि ‘नोबेल विजेता ल्यूक का दावा तार्किक नहीं है क्योंकि अगर बहुत सूक्ष्म तत्व समान हैं भी तो ये तत्व पिछले कोरोना वायरसों में भी मिले हैं। यानी अगर किताब से हम कोई शब्द लें, जो किसी दूसरे शब्द से मिलता-जुलता हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि किसी ने उस शब्द की नकल करके दूसरा शब्द बनाया। यह अनर्गल प्रलाप है।’ लब्बोलुबाब यह है कि ल्यूक के दावों का कोई खास वैज्ञानिक रूप से विश्वसनीय आधार नही है।
समस्या किसी विचार को मानने या न मानने में नहीं है। यह कोई जरूरी नहीं कि वैज्ञानिक की हर बात वैज्ञानिक ही हो। बल्कि सच तो यह है कि वैज्ञानिक हमेशा विज्ञान-सम्मत बात नहीं करता। कोई मनुष्य सम्पूर्ण रूप से अपना समूचा जीवन वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मुताबिक जीता ही नहीं है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है। कोई भी वैज्ञानिक विज्ञान या वैज्ञानिक विधि से बढ़कर नहीं है।
जैसे भारतीय संदर्भ में रत्न-जड़ित अंगूठियाँ और गंडे-ताबीज पहनना, मुहूर्त्त निकालकर अपने महत्वपूर्ण कार्यों को करना यहाँ तक अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह तथाकथित ब्रह्ममुहूर्त में सम्पन्न करवाना, बाबाओं के डेरे पर उनके प्रवचन सुनने जाना, पत्र-पत्रिकाओं में अपना राशिफल देखना आदि अधिकांश वैज्ञानिकों के रोजमर्रा के क्रियाकलापों का एक हिस्सा है। तभी तो अगर किसी वैज्ञानिक का बच्चा बीमार पड़ जाता है, तो वह सबसे पहले आयुर्विज्ञान द्वारा खोजे गये दवाओं द्वारा उसका किसी चिकित्सक से इलाज करवायेगा। मगर साथ में बच्चा जल्दी रोगमुक्त हो जाए इसलिए किसी बाबा के मजार पर घुटने टेकना, भगवान से मन्नत मांगना नहीं भूलता। इससे एक कदम और आगे जाकर बच्चे पर भूत-प्रेत की बाधा की आशंका तथा अमंगल के भय से किसी मौलवी या बाबा से गंडे-ताबीज बनवाकर बच्चे के गले में पहनाने के लिए निस्संकोच तैयार रहता है। यहाँ तक कोई वैज्ञानिक नया घर ले रहा होता है तो घर में किसी पंडित से वास्तुशांति करवाना नहीं भूलता और यदि घर में वास्तुदोष निकलता है तो कमरे में घुसने के द्वारों को भी बदलने से नहीं चूकता। यहाँ तक बड़े-बड़े सरकारी पदों पर आसीन वैज्ञानिक भी अवैज्ञानिकता को प्रोत्साहित करने से नहीं कतराते।
हमारे देश के अंतरिक्ष वैज्ञानिक किसी भी मिशन का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण करने से पहले इसकी सफलता के लिए आंध्रप्रदेश के तिरुपति बालाजी मंदिर में पूजा-अर्चना करना नहीं भूलते बल्कि यदि बड़ा मिशन होता है तो उसके प्रक्षेपण से पहले उपग्रह के पुतले को बालाजी ले जाकर आशीर्वाद प्राप्त करवाते हैं। मंगलयान की शानदार सफलता हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों की काबिलियत का ही कमाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण से पहले इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने इसकी सफलता के लिए तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की थी। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते है कि चूँकि 13 नंबर अशुभ होता है, इसलिए इसरो ने रॉकेट पीएसएलवी-सी 12 भेजने के बाद अशुभ 13 नंबर को छोड़ते हुए सीधे पीएसएलवी-सी 14 अन्तरिक्ष में भेजा। कहने का अभिप्राय यह है कि ज़्यादातर वैज्ञानिक अपने कार्यालयी जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त होते हैं मगर जब वे अपने निजी जीवन में आते हैं तो सारा विज्ञान भूल जाते हैं, इसलिए विज्ञान से बढ़कर कोई भी वैज्ञानिक नहीं होता।
महाजनो येन गतः स पन्थाः — क्या यह सूक्ति अवैज्ञानिक बात कहते वैज्ञानिकों पर भी लागू होगी ? – डॉक्टर स्कंद शुक्ला
डॉक्टर स्कंद शुक्ला
महामारी के दौर में लूक मॉन्तग्निये होने के क्या मायने हैं , जब वे यह कहते हैं कि सार्स-सीओवी 2 विषाणु को वूहान-प्रयोगशाला में एचआईवी के विरोध में टीका-निर्माण के दौरान बनाया गया ? उनके अनुसार इस विषाणु के जीनोम ( आनुवंशिक संरचना ) में एचआईवी का भी कुछ अंश उपस्थित है। यद्यपि उनके इस कथ्य का दुनिया-भर के अनेक वैज्ञानिकों ने खण्डन किया है और कहा है कि ऐसी अवैज्ञानिक उद्घोषणाओं से उनकी वैज्ञानिक साख तेज़ी से नीचे गिर रही है।
फ़्रांस के लूक मॉन्तेग्निये बड़े वैज्ञानिकों में आते हैं ( थे ? )। उन्होंने दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर एचआईवी-विषाणु की खोज की थी। यह एचआईवी-विषाणु मानव-शरीर में प्रवेश करके एड्स नामक रोग उत्पन्न करता है। इस बड़े काम के प्रति उन्हें विज्ञान के उच्चतम पुरस्कार से सन् 2008 में सम्मानित किया गया था।
इस खोज के बावजूद मॉन्तेग्निये विज्ञान-जगत् में एक विवादास्पद व्यक्ति रहे हैं। अपने उन विचारों को जनता के सामने रखने के कारण , जिन्हें विज्ञान-सम्मत नहीं माना जा सकता। मसलन रोगकारक जीवाणुओं व विषाणुओं के डीएनए का तनु ( डायल्यूट ) विलयन बनाने पर कुछ ऐसे नैनो-संरचनाएँ अस्तित्व में आती हैं , जो विद्युतचुम्बकीय तरंगें छोड़ा करती हैं। फिर इसी तरह वैज्ञानिकों की गोष्ठियों में वे होमियोपैथी को विज्ञान-सम्मत बताया करते हैं। अनेक रोगों में प्रयुक्त किये जाने वाले टीकों का सम्बन्ध वे ऑटिज़्म नामक विकास-सम्बन्धी रोग से बताया करते हैं, जो आज-कल अनेक बच्चों में देखने को मिल रहा है।
ज़ाहिर है जो लोग होमियोपैथी में विश्वास रखते हैं या आधुनिक टीकाकरण को उद्योगपतियों की विज्ञानी साज़िश मानते हैं , वे मॉन्तेग्निये में अपना हीरो पाते हैं। उन्हें लगता है कि भ्रष्ट वैज्ञानिक-समाज में एक वे ही साहसी महानायक हैं , जो सत्य कहने का जोखिम उठा रहे हैं। ऐसे में तमाम देशों के होमियोपैथ अथवा वैक्सीन-विरोधी उन नाम का जनता के सामने उसे प्रभावित करने के लिए भरपूर इस्तेमाल करते हैं।
समस्या किसी विचार को मानने में नहीं है। निजता निजता होती है , कोई आवश्यक नहीं कि वैज्ञानिक की हर निजता वैज्ञानिक ही हो। बल्कि सच तो यह है कि वैज्ञानिक हमेशा विज्ञान-सम्मत बात नहीं करता। कोई मनुष्य सम्पूर्ण रूप से अपना समूचा जीवन साइंटिफिक मेथड के अनुसार जीता ही नहीं। मनुष्यों में वैज्ञानिकता न्यूनाधिक हो सकती है , किन्तु उनमें अपनी मनोधारणाएँ , अन्धविश्वास व रूढ़ियाँ भी वास किया करती हैं। किन्तु विज्ञान अपनी बातों में इतना स्पष्ट और साफ़ होता है कि बड़े-से-बड़े भ्रमजीवी के मन में भी तरेड़ तो डाल ही देता है। कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े-बड़े धर्मगुरुओं को आज-कल हम ‘विज्ञान भी तो अब मान चुका है’ या ‘ विज्ञान भी यही कहता है’ के वाक्य अपने प्रवचनों व गोष्ठियों में इस्तेमाल करते देखते हैं।
लोग वैज्ञानिक के श्रीमुख से सुनी हर बात को विज्ञान-सम्मत मान लेते हैं। ‘विज्ञान भी तो अब मान चुका है’ या ‘विज्ञान भी तो यही कहता है’ से लोगों का आशय होता है कि अमुक वैज्ञानिक ने अमुक जगह पर अमुक बात कही है , जो हम भी कहते रहे हैं। अब चूँकि अमुक व्यक्ति बड़े वैज्ञानिक हैं और उनकी साख आप-जैसे आधुनिक ‘पढ़े-लिखे’ लोगों में बहुत है , इसलिए आपके सामने उनका सत्यापन रख रहा हूँ। ये वैज्ञानिक भी तो यही मान रहे हैं ! ये वैज्ञानिक भी तो यही कहते हैं !
कोई वैज्ञानिक जो-कुछ कहे , वह हमेशा विज्ञानसम्मत नहीं। कोई वैज्ञानिक जो-कुछ माने , वह हमेशा विज्ञान-सम्मत नहीं। लेकिन जिस तरह प्रेम-कविता लिखने वाले साहित्यकार से पाठक सदा-सर्वदा ‘प्रेममय’ बने रहने की आशा लगाये रहते हैं ,उसी तरह विज्ञान रचने वाले वैज्ञानिक से यह उम्मीद लगायी जाती है कि वह हमेशा ‘विज्ञानमय’ रहेगा। विज्ञान ही जियेगा , विज्ञान ही कहेगा।
विज्ञान व छद्मविज्ञान में अन्तर है। जब आप छद्म विज्ञान के किसी विचार को मानते हैं , तब आप उसे सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। आप उसके पक्ष में प्रमाण जमा करते हैं। आपकी पूरी कोशिश होती है कि छद्म विज्ञान पर से आप छद्मता का आवरण छुड़ा दें। ऐसे प्रमाण को आपको मिल भी जाते हैं। जानते हैं क्यों ? क्योंकि आपके मन में अपने छद्म-विज्ञान-विचार के प्रति अनुराग है , ममता है। आप उसे छोड़ नहीं पा रहे , आप उसके पक्ष में दलील-पे-दलील दिये जा रहे हैं।
विज्ञान उलटे ढंग से काम करता है। वह निर्मम ढंग से कहता है कि जिसे मान रहे हो , उसके विरोध में साक्ष्य जमा करो। पक्ष में नहीं , विरोध में। अपने विचार को ग़लत सिद्ध करने में लगो , ग़लत नहीं सिद्ध कर पाओगे तो सही तो वह अपने-आप हो ही जाएगा। इस कॉन्सेप्ट का नाम फाल्सिफ़ायबिलिटी है। विज्ञान फाल्सिफायबिल है , छद्म विज्ञान फाल्सिफायबिल नहीं है।
विज्ञान की यह निर्ममता बायस यानी भेदभाव से बचने के लिए है। ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं जो एकदम तटस्थ होकर रिसर्च करे। वैज्ञानिक भी नहीं। अगर एकदम तटस्थ होता , तब उसी विषय क्यों को चुनता ? चुनने में भी रुचि आ गयी ! जो रुचिकर विषय था , उसी पर शोध चुना गया। जब चुनाव रुचि के अनुसार किया गया , तब उसके शोध के दौरान निकलने वाले निष्कर्षों में ममता और अनुराग के कारण वैज्ञानिक भ्रमित क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा न हो , इसलिए वैज्ञानिक कार्यप्रणाली के दौरान पक्ष नहीं , विपक्ष में साक्ष्य जुटाने को कहा जाता है। अपनी बात झुठलाने का प्रयास करो — झुठला न पाए , तब सच तो हो ही जाएगी !
छद्म विज्ञान या आस्था के मामलों में झुठलाना नहीं चलता। वहाँ अपने विचार या मान्यता को सच साबित करने की कोशिशें चलती हैं। विचार या मान्यता के प्रति व्यक्ति पहले से चिपका हुआ है : वह तो जो कुछ भी कहेगा , पक्ष की बातें ही कहेगा। विरोधी बातों पर वह ध्यान देगा ही नहीं। सांख्यिकी के अनुसार पक्ष-विपक्ष का अन्वेषण करेगा ही नहीं। जो विचार पहले से तय करके प्रमाण ढूँढने निकले , वह छद्मविज्ञानी है। जो विचार के विरोध में गणितीय ढंग से प्रमाण खोजने की कोशिश कर रहा हो , वह विज्ञान-सम्मत है।
लूक मॉन्तेग्निये ने विज्ञान को बड़ी उपलब्धियों से समृद्ध किया है। पर वे वैज्ञानिक कार्यप्रणाली से बड़े नहीं हैं। वैज्ञानिक कार्यप्रणाली से बड़ा कोई वैज्ञानिक नहीं होता। लेकिन उत्तर-सत्य के दौर में भ्रमित ढंग से जी रही जनता मुख्यधारा के विज्ञान से जब कट जाती है , तब वह लूक मॉन्तेग्निये-जैसों की सुनती है। जनता में ज़्यादातर को वैज्ञानिक कार्यप्रणाली पता ही नहीं , उन्हें लगता ही नहीं कि वैज्ञानिक भी अन्धविश्वासी हो सकते हैं।
एक मित्र कहने लगे कि मॉन्तेग्निये ही आपको क्यों ग़लत लगते हैं। हो सकता है कि अन्य वैज्ञानिक ग़लत हों। बिक गये हों। उद्योगपतियों के इशारों पर नाच रहे हों। दुनिया में राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति में भ्रष्टाचार इतना अधिक है। हर जगह आपको करप्शन-ही-करप्शन मिलेगा। ऐसी में हो सकता है जिसे आप दोषी समझ रहे हों , वह निर्दोष हो और जिसे निर्दोष समझ बैठे हों , वह पूरा-का-पूरा वैज्ञानिक समाज ही दोषयुक्त !
मित्र एक बात नहीं समझ रहे। राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति में काम करने का तरीक़ा विज्ञान की तरह एकदम दिशा-निर्दिष्ट व साफ़-सुथरा नहीं होता। दो-सौ सालों से साइंटिफिक मेथड यथावत् है। ( कुछ सुधार किये गये हैं , पर उन पर बात बाद में। ) राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति में जो पॉलिसी-सम्बन्धी दोष आएगा , हो सकता है कि वह जल्दी पकड़ न आये। राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति में क्षेत्रीयता के मायने अधिक हैं। वहाँ भ्रष्टाचार को लम्बी देर तक छिपाया जा सकता है। पर विज्ञान का स्वभाव ही अन्तरराष्ट्रीय है और वहाँ पीयर-रिव्यूअल प्राथमिक शर्त। दूसरे वैज्ञानिक आपके काम का मूल्यांकन करेंगे , उसे दोहराएँगे। आप दूसरों के काम के साथ यही करेंगे। राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति में इस तरह का रिव्यूअल सम्भव ही नहीं , क्योंकि समाज प्रयोगशाला है ही नहीं। समाज में हुई किसी एक क्रान्ति को आप बीकर में दो घोलों के मेल की तरह तापमान व दबाव को यथावत् रखकर बार-बार नियन्त्रित ढंग से कैसे करेंगे ?
मित्र मेरे सामने कार्ल मार्क्स का अर्थशास्त्र और सिग्मंड फ़्रायड का मनोविज्ञान रखते हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि ये दोनों छद्म विज्ञान की ही श्रेणी में आते हैं। भौतिक घटना को देखना / पहचानना – प्रश्न करना व इससे सम्बन्धित पूर्वशोध एकत्रित करना -परिकल्पना प्रस्तुत करना-प्रयोग करना -आँकड़ों का उचित अन्वेषण करना – निष्कर्ष निकालना — वैज्ञानिक कार्यप्रणाली के स्थूल मुख्य चरण हैं। जिस भी विचार या सिद्धान्त को हम इस कसौटी पर नहीं कस सकते , उसे हम वैज्ञानिक नहीं मान सकते। मार्क्स व फ़्रायड के सिद्धान्त फाल्सिफायबिल नहीं हैं , इसलिए वे वैज्ञानिक भी नहीं हैं। जो इन सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं , वे उन्हें झुठलाने के लिए प्रयास नहीं करते बल्कि उन्हें सत्य सिद्ध करने के लिए प्रमाण ढूँढ़ते हैं। अपने विचार के प्रति यदि पहले से ममता रही और उसके कारण भेदभाव (बायस ) आ गया , तब वह विज्ञान की निर्मम कसौटी पर कसा कैसे जाएगा ?
कहने की ज़रूरत नहीं कि लूक मॉन्तेग्निये छद्म विज्ञानियों के महानायक हैं। किन्तु वैज्ञानिक समाज में उनकी साख तेज़ी से लुढक रही है। जो लोग वैज्ञानिक कार्यप्रणाली , फाल्सिफायबिलिटी और पीयर-रिव्यूअल जैसे कॉन्सेप्टों से अपरिचित हैं , वे उनमें विज्ञान का क्रान्तिकारी पा रहे हैं। वह जो सच कहने का साहस रखता है , वह जो विज्ञान को उद्योगपतियों व सरकारों के भ्रष्ट चंगुल से छुड़ाना चाहता है। किन्तु अपने अविज्ञानी विचारों के प्रति ममत्व रखने वाले लोगों को स्वयं शोध में शामिल होने का प्रयास करना चाहिए। शोध को समझने , उसमें शामिल होने और उसे नतीजों के मनमाफ़िक न आने पर विचार को त्याग देने की सीख तभी उन्हें मिल सकती है।
लिनस पाउलिंग से लूक मॉन्तेग्निये तक छद्म विज्ञानपोषी विचारधारा बहती रही है। मानने वाले मानते रहे हैं , मानते रहेंगे।
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द्वारा प्रकाशित
Pradeep
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1999 में जन्मे प्रदीप एक साइंस ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लिखने में इनकी विशेष रूचि है। वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं। इनके लगभग 150 लेख प्रकाशित हो चुके हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है।
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