लेखक -प्रदीप (Pk110043@gmail.com)
आकाश में सूरज, चाँद और तारों की दुनिया बहुत अनोखी है। आपने घर की छत पर जाकर चाँद और तारों को खुशी और आश्चर्य से कभी न कभी जरुर निहारा होगा। गांवों में तो आकाश में जड़े प्रतीत होने वाले तारों को देखने में और भी अधिक आनंद आता है, क्योंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में बिजली की रोशनी की चकाचौंध कम होती है और वातावरण भी स्वच्छ एवं शांत होता है। तारों को निहारते-निहारते और उनकी अधिक संख्या को देखकर आप जरुर आश्चर्यचकित हो जाते होंगे। इस बात की पूरी सम्भावना है कि आपनें शहर में कभी भी ऐसा सुंदर दृश्य न देखा होगा!
तारों को रोज देखने से आपके मन में कई सवाल उठतें होंगे कि आकाश के ये तारे हमसे कितनी दूर हैं? ये हमेशा चमकते क्यों दिखाई देते हैं? ये कब तक चमकते रहेंगे? क्या इन तारों का जन्म भी होता है? क्या इनकी मृत्यु भी होती है? आकाश में कुल कितनें तारे हैं? क्या हमारा सूर्य भी एक तारा है? यदि हमारा सूर्य भी एक तारा है, तो इन असंख्य तारों की दुनिया में इसका क्या स्थान है? कहाँ हमारा सूर्य बहुत चमकीला है तो कहाँ तारे अपेक्षाकृत मंद दिखाई पड़ते हैं इसके पीछे क्या कारण हैं? मोतियों से जड़े इस गोले (आकाश) के बावजूद अंधेरा क्यों होता है? क्यों तारे टिमटिमाते नजर आते हैं? और कुछ तारे क्यों नही टिमटिमाते दिखाई देते हैं? आदि अनेक प्रश्न आपके जिज्ञासु दिमाग में जरुर उठते होंगे।
क्या आप जानतें हैं कि प्राचीनकाल से ही मानव तारों से संबंधित उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर पाने का प्रयास करता रहा है? इसी का परिणाम है कि आज हमारे पास इन प्रश्नों के सटीक उत्तर उपलब्ध हैं। हम इस आलेख में विस्तार से तारों की इस दुनिया के बारे में चर्चा करेंगें।
कितने दूर हैं तारे?

रात के समय आकाश को देखने पर हमें यही प्रतीत होता हैं कि सभी तारे किसी विशाल गोले पर बिखरे हुए हैं और साथ ही साथ हमें यह भी लगता है कि सभी तारे हमसे एकसमान दूरी पर स्थित हैं। इस गोले को प्राचीन भारतीय खगोल-विज्ञानियों तथा यूनानी ज्योतिषियों ने ‘नक्षत्र-लोक’ नाम दिया था। इसी अनुमान के आधार पर अमीर खुसरो ने इस पहेली की भी रचना की थी -‘एक थाल मोती भरा, सबके सिर पर औंधा पड़ा!’ इस पहेली को आप और हम कई बार हल कर चुकें हैं। आज हम जानते हैं कि उनका यह अनुमान सही नहीं था, क्योंकि न तो सभी तारे एकसमान दूरी पर स्थित हैं और न ही कोई ऐसा गोल है जिस पर ये टिके हुए हैं।
हाँ, कुछ तारे हमसे बहुत दूर हैं तो कुछ तारे हमसे बहुत नजदीक। पृथ्वी से तारों की दूरियाँ इतनी अधिक होती हैं कि हम उसे किलोमीटर या अन्य सामान्य इकाइयों में व्यक्त नही कर सकते हैं इसलिए हमें एक विशेष पैमाना निर्धारित करना पड़ा जिसे वैज्ञानिक प्रकाश वर्ष कहतें हैं। दरअसल बात यह है कि प्रकाश की किरणें एक सेकेंड में लगभग तीन लाख किलोमीटर की दूरी तय करती हैं। इस वेग से प्रकाश-किरणें एक वर्ष में जितनी दूरी तय करती हैं, उसे एक प्रकाश वर्ष कहते हैं। इसलिए एक प्रकाश वर्ष 94 खरब, 60 अरब, 52 करोड़, 84 लाख, 5 हजार किलोमीटर के बराबर होता है।
सूर्य के बाद हमसे सर्वाधिक नजदीकी तारा प्रौक्सिमा-सेंटौरी हैं, जिसकी दूरी लगभग 4.3 प्रकाश वर्ष है। प्रकाश वर्ष हमें समय और दूरी दोनों की सूचना देता है, हम यह भी कह सकते हैं कि प्रौक्सिमा-सेंटौरी से प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में 4.3 प्रकाश वर्ष लगेंगे। आकाश का सबसे चमकीला तारा लुब्धक या व्याध हमसे तकरीबन 9 प्रकाश वर्ष दूर है। तारों की दूरियां मापने के लिये एक और पैमाने का इस्तेमाल होता है, जिसे पारसेक कहते हैं। एक पारसेक 3.26 प्रकाश-वर्षों के बराबर है।
सूर्य हमसे लगभग 8 मिनट और 18 प्रकाश सेकेंड दूर है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की इस दूरी को ‘खगोलीय इकाई’ या ‘खगोलीय एकक’ कहते हैं। हमारी दृष्टि में सूर्य अन्य तारों की तुलना में अधिक बड़ा तथा प्रकाशमान प्रतीत होता है, परन्तु विशाल ब्रह्मांड की दृष्टि में यह महासागर के एक बूंद के बराबर भी नही है। इसलिए हमारा सूर्य आकाश का एक सामान्य तारा है। वास्तविकता तो यह है कि अन्य तारों की अपेक्षा सूर्य पृथ्वी के अधिक नजदीक है इसलिए हमें यह अधिक प्रकाशमान तथा शक्तिशाली प्रतीत होता है।
तारों के रंग एवं तापमान

क्या आप जानते हैं कि सभी तारे एक ही रंग के नहीं होते? पृथ्वी से देखने पर हमे ज्यादातर तारे एक ही जैसे दिखाई देते हैं। मगर, जब हम तारों को दूरबीन से देखतें हैं तो यह साफ हो जाता है कि उनके रंग अलग-अलग हैं। क्या आपको मालूम है कि रंगों से हमें तारों के तापमान के बारे में भी पता चलता है। तथा अलग-अलग तापमान होने के ही कारण दूरबीन से देखने पर तारे अलग-अलग रंग के दिखाई देते हैं। जब किसी लोहे की छड़ी को हम आग में गर्म करते हैं तो ताप और रंग के बीच का संबंध हमें स्पष्ट दिखाई देने लगता हैं। जब छड़ी गर्म होती हैं तो लाल रंग की हो जाती है। इससे भी अधिक गर्म करने पर पीले रंग की हो जाती है, और भी गर्म करने पर छड़ी सफेद रंग की हो जाती है। बहुत अधिक तापमान होने के कारण सफेद रंग, नीले रंग में परिवर्तित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार अधिक गर्म तारे नीले दिखाई देते हैं, उनकी अपेक्षा पीले तारे उनसे कम गर्म तथा लाल तारे सबसे कम गर्म होते हैं। हमारा सूर्य एक पीले रंग का तारा है। इसलिए यह न तो बहुत अधिक गर्म है और न ही बहुत ठंडा। यह एक सामान्य तारा है।
स्पेक्ट्रमदर्शी नामक यंत्र से तारों को देखने पर हमे तारों के भिन्न-भिन्न रंग दिखाई देते हैं, जिनके समूह को वर्णक्रमपट अथवा स्पेक्ट्रम कहा जाता हैं। दरअसल, तारों के वर्णक्रमपट की सहायता से हम उसके विभिन्न भौतिक गुणधर्मों जैसे- रंग, तापमान आदि के बारे में पता लगा सकते हैं। इसकी मदद से हम यह पता लगा सकते हैं कि तारों के अंदर कौन-कौन से तत्व मौजूद हैं। अब तक सैकड़ों तारों के वर्णक्रमपट प्राप्त किये जा चुके हैं। इन वर्णक्रमपटों के आधार पर तारों का वर्गीकरण किया गया है। उन्नीसवी सदी के अंत में हावर्ड वेधशाला के वैज्ञानिकों ने तारों को कुछ वर्गों में बाँटकर उन्हें O, B, A, F, G, K, M आदि नाम दिए हैं। हमारा सूर्य G वर्ग का तारा है।
हमारी आकाशगंगा के ज्यादातर तारों को उपर्युक्त वर्गों में बाँटा गया है। एक वर्ग तथा दूसरे वर्ग के बीच वाले तारों को उपवर्गों 1, 2, 3… जैसी संख्याओं में व्यक्त किया गया है। जैसे सूर्य G -2 वर्ग का तारा है।
तारों का चमकीलापन
रात के समय तारों को नंगी आँखों से देखने पर हमें यह पता होने लगता है कि कुछ तारे अधिक चमकीले हैं तथा कुछ कम। चमक (कांति) के आधार पर तारों को विभिन्न कांतिमानों में वर्गीकृत किया गया है। जैसाकि हम जानते हैं कि तारे हमसे बहुत दूर हैं और दूरी अधिक होने के कारण कम चमकीले तारे हमें दिखाई नही देते हैं। हम नंगी आँखों से केवल छठे कांतिमान के तारों को ही देख सकते हैं। मजेदार बात यह है कि धरती से दिखाई देने वाले आकाश में छठे कांतिमान के लगभग साढ़े पांच हजार से अधिक तारे नही हैं।
वैज्ञानिकों ने कांतिमान का वर्गीकरण इस प्रकार किया है कि जो तारे सबसे ज्यादा चमकीले दिखाई देते हैं, उसके लिये सबसे छोटी संख्या का प्रयोग किया जाता है जैसे प्रथम। उसका ठीक उल्टा, जो तारे कम चमकीले दिखाई देते हैं उनके लिये बड़ी संख्या का प्रयोग किया जाता है, जैसे छठी। प्रथम कांतिमान के तारे द्वितीय कांतिमान के तारों से 2.5 गुना चमकीला और द्वितीय कांतिमान का तारा तृतीय कांतिमान के तारे से 2.5 गुना चमकीला होता है। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है। अमेरिका के पालोमार पर्वत पर स्थित वेधशाला के दूरबीन की मदद से 22 से 23 कांतिमान तक के तारो को आसानी से पहचाना जा सकता है।
समूह | सीमा | उदाहरण | दृश्य कांतिमान |
---|---|---|---|
प्रथम कांतिमान | < 1.5 | Vega(वेगा) | 0.03 |
द्वितिय कांतिमान | 1.5 to 2.5 | Denebola(डेनेबोला) | 2.14 |
तृतिय कांतिमान | 2.5 to 3.5 | Rastaban(रास्टाबान) | 2.79 |
चतुर्थ कांतिमान | 3.5 to 4.5 | Sadalpheretz(सडल्फ़ेरेत्ज) | 3.96 |
पंचम कांतिमान | 4.5 to 5.5 | Pleione(पाइओने) | 5.05 |
छ्ठा कांतिमान | 5.5 to 6.5 | 54 Piscium(54पिसिअम) | 5.88 |
सप्तम कांतिमान | 6.5 to 7.5 | HD 40307 | 7.17 |
अष्टम कांतिमान | 7.5 to 8.5 | HD 113766 | 7.56 |
नवम कांतिमान | 8.5 to 9.5 | HD 149382 | 8.94 |
दसंवा कांतिमान | 9.5 to 10.5 | HIP 13044 | 9.98 |
व्यास और द्रव्यमान

सूर्य एक सामान्य तारा है, इसका व्यास लगभग 14,00,000 किलोमीटर है अर्थात् पृथ्वी के व्यास का लगभग 109 गुना ज्यादा। आकाशगंगा में कुछ तारे सूर्य से सैकड़ों गुना बड़े हैं। इन्हें ‘महादानव तारे’ कहते हैं। इन तारों का व्यास हमारे सूर्य से 100 गुना अधिक होता है । पहले वैज्ञानिकों की यह मान्यता थी कि यदि सूर्य महादानव तारा बन जायेगा तो वह हमारी पृथ्वी को निगल जाएगा,परन्तु इटली के खगोलविद रोबर्ट सिल्वोटी ने इस आशंका को नकार दिया हैं, परन्तु वर्तमान में सभी वैज्ञानिक सिल्वोटी के तर्को से सहमत नही हैं।
आकाशगंगा में अनेक ऐसे भी तारे हैं जो सूर्य से छोटे हैं और-तो-और अनेक तारे पृथ्वी तथा बुध ग्रह से भी छोटे हैं। ऐसे तारों को ‘श्वेत वामन तारे’ अथवा ‘बौने तारे’ कहते हैं। श्वेत वामन तारे भले ही सूर्य से छोटे होते हैं, परन्तु इनका द्रव्यमान लगभग बराबर ही होता हैं। महादानव तारों के द्रव्य का घनत्व पानी के घनत्व की अपेक्षा लगभग एक लाख गुना कम होता है। श्वेत वामन तारों या बौने तारों का घनत्व बहुत अधिक होता है। इनका घनत्व पानी के घनत्व की अपेक्षा दस लाख गुना अधिक हो सकता है। ऐसे तारों का एक घन सेंटीमीटर द्रव्य सौ टन से भी अधिक हो सकता है।
जिन तारों का घनत्व पानी की अपेक्षा एक लाख अरब गुना होता हैं, ऐसे तारे ‘पल्सर’ या ‘न्यूट्रॉन’ तारे कहलाते हैं। इनका व्यास 40 किलोमीटर से भी कम हो सकता है।
हर्टजस्प्रुंग-रसेल आरेख

डेनमार्क के खगोलज्ञ एजनार हर्टजस्प्रुंग और अमेरिका के खगोलज्ञ हेनरी नारेस रसेल ने तारों के रंग तथा तापमान में महत्वपूर्ण समंध स्थापित किया। दोनों खगोलज्ञो ने तारों के रंग तथा तापमान के आधार पर एक आरेख (ग्राफ) तैयार किया, जिसे ताराभौतिकी में हर्टजस्प्रुंग-रसेल (HR) आरेख के नाम से जाना जाता है। इस आरेख की भुजा रंग एवं तापमान को निर्धारित करता हैं तथा कोटि- अंक कांतिमान को निर्धारित करता है। सर्वाधिक विस्मयकारी बात इस आरेख में यह है कि अधिकांश तारे दाईं ओर के नीचे के कोने से बाईं ओर के ऊपरी कोने तक एक विकर्ण पट्टे में स्थित है। इस पट्टी को ‘मुख्य अनुक्रम’ या ‘मेन सिक्वेंस’ कहते है। सूर्य इस प्रमुख क्रम के लगभग मध्य में है। इस आरेख के ऊपरी कोने पर बहुत गर्म नीले रंग के विशालकाय महादानव तारे हैं तथा नीचले कोने पर लाल रंग के श्वेत वामन अथवा बौने तारे है। हर्टजस्प्रुंग-रसेल आरेख तारों के विकासक्रम के अध्ययन में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।
सूर्य तथा अन्य तारों की तेजस्विता का रहस्य
सूर्य हमसे लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर है। हम जानते हैं कि अन्य तारों की अपेक्षा सूर्य हमसे बहुत नजदीक है, इसलिए हमे बहुत शक्तिशाली प्रतीत होता है। सूर्य से समन्धित हमारे मस्तिष्क में अनेक कौतहूलपूर्ण सवाल उठते हैं -यह कैसे चमकता हैं ? यह कैसे इतनी अधिक मात्रा में ऊजा उत्पन्न करता है? आखिर सूर्य तथा तारों के अंदर ऐसी कौन सा ईधन है जो जल रहा है?
प्रारम्भ में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के दहन को ही सूर्य के ऊर्जा का स्रोत समझा जाता था। परन्तु यदि ऐसा होता तो हमारा सूर्य केवल दो-तीन हजार साल तक ही अपनी ऊर्जा उत्सर्जित कर पाता। सन् 1842 में जे. मेयर ने बताया कि सूर्य में उल्कापिंडो के गिरने के कारण टक्कर और घर्षण के फलस्वरूप पर्याप्त मात्रा में उर्जा उत्सर्जित कर रहा है। परन्तु यदि ऐसा होता तो सूर्य के द्रव्यमान में नाटकीय बढोत्तरी होती और इसका प्रभाव ग्रहों के कक्षीय वेग में विचलन होनी चाहिए।
ग्रहों के वेग में विचलन न होने के कारण लार्ड केल्विन तथा हर्मन वैन हेल्म्होल्टेज ने सूर्य में ऊर्जा के उत्पन्न होने का कारण संकुचन (सिकुड़न) बताया। यदि ऐसा नियम हम सूर्य पर लागू करें, तो हमे एक विस्मयकारी परिणाम प्राप्त होगा, कि सूर्य का एक बिंदु में संकुचन आधे ही घंटे के भीतर हो चुका होगा। परन्तु हम जानते हैं कि सूर्य हजारों-करोड़ों वर्षों से ऐसा ही रहा हैं। इसलिए इस परिकल्पना को भी नकार दिया गया।
होउटरमैन्स तथा अटकिंसन नामक दो वैज्ञानिक ने यह प्रस्ताव रखा कि ‘तापनाभिकीय अभिक्रियायें’ ही सूर्य तथा अन्य तारागणों में ऊर्जा का स्रोत है। सन् 1939 में वाइसजैकर तथा हैंस बेथे नामक दो वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से शोध के पश्चात् यह व्याख्या कि सूर्य तथा अन्य तारों में होने वाली तापनाभिकीय अभिक्रियाओं के कारण हाइड्रोजन का दहन होकर हीलियम में परिवर्तन हो जाता है (संलयन)। सूर्य तथा अन्य तारों में हाइड्रोजन सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला संघटक हैं,तथा ब्रह्मांड में भी इसकी सर्वाधिक मात्रा है । यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभियों को जोड़ें, तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभियों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इन सबके पीछे 1905 में आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित ‘विशेष सापेक्षता सिद्धांत’ का प्रसिद्ध समीकरण E=mc² हैं । इस समीकरण के अंतर्गत द्रव्यमान ऊर्जा का ही एक रूप हैं, द्रव्यमान m ऊर्जा की एक मात्र E के तुलनीय हैं ।अर्थात् उपरोक्त तापनाभिकीय संलयन में हीलियम के द्रव्यमान में जो कमी हुई थी,वह ऊर्जा के रूप में वापस मिलेगा । इसी कारण से सूर्य तथा अन्य तारें चमकते हैं।
परन्तु मजेदार तथ्य यह है कि सभी तारे अपना हाइड्रोजन एक ही प्रकार से खर्च नही करते हैं। जो तारे हमारे सूर्य से बड़े हैं वे अपना हाइड्रोजन बहुत तेजी से खर्च कर रहे। इसका अर्थ यह हैं कि जो तारे जितना बड़ा होते हैं उतना ही अधिक तेजी से हाइड्रोजन खर्च करते हैं। जो तारे सूर्य से दो गुना बड़े हैं वे अपना हाइड्रोजन दस गुना तेजी से खर्च कर रहे हैं। जो तारे सूर्य से दस गुना बड़े हैं वे एक हजार गुना तेजी से। ऐसे तारे काफी कम समय में ही अपना हाइड्रोजन समाप्त कर देते हैं तथा मृत्यु की कगार पर पहुँच जाते हैं। जो तारे हमारे सूर्य के आकार के हैं उनका हाइड्रोजन काफी लम्बे समय तक चलता है।
तारों की जीवन यात्रा के समंध में चर्चा करने से पहले हमे यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि धरती के मानवों ने सन् 1950 के उपरांत हाइड्रोजन बम निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। हाइड्रोजन बम आकार में अधिक बड़ा नहीं होता है। यूँ कहे तो दस लाख टी०एन०टी० क्षमता वाले हाइड्रोजन बम को एक साधारण बिस्तर में छुपा सकते हैं। हाइड्रोजन बम का विमोचक (ट्रिगर) ही सामान्यता परमाणु बम की क्षमता के बराबर होता है। इस बम से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा वस्तुत: तापनाभिकीय अभिक्रियाओं के ही कारण होती है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य तथा अन्य तारों में प्रतिदिन हजारों-करोड़ों हाइड्रोजन बम फूटते हैं। परन्तु, तारों के अंदर होने वाली तापनाभिकीय प्रक्रियायें विस्फोटात्मक रूप में न होकर संतुलित रूप में होती हैं। संलयन को संतुलित रूप में करवाने में अभी पृथ्वीवासी सफल नही हुए हैं, यदि मानव ‘संलयन भट्ठी’ बनाने में सफलता प्राप्त कर लेगा तो हम धरती पर ही कृत्रिम वामन तारों का निर्माण कर सकेंगे। परन्तु इस समय चिंताजनक विषय यह हैं कि मानव हाइड्रोजन बम जैसी युक्तियों का उपयोग विनाशक तथा संहारक आयुधों के निमार्ण में निरंतर प्रयासरत रहा है और इसमें बहुत सफल भी रहा है । सौभाग्यवश अभी तक हाइड्रोजन बम का किसी युद्ध में प्रयोग नही किया गया है। आइए,अब हम तारों के जीवन यात्रा की ओर मुड़ते हैं।
तारों की जीवन यात्रा
तारों की अरबों साल की जीवन यात्रा की तुलना में मनुष्य का जीवन काल बहुत ही छोटा है। तो फिर वैज्ञानिक तारों के जन्म, यौवन, मृत्यु आदि के बारे में कैसे जान सकते हैं? कल्पना कीजिये कि कोई दूसरे ग्रह से आया बुद्धिसम्पन्न प्राणी मनुष्यों के जीवन क्रम को जानना चाहता है। उसके पास दो उपाय हैं । पहला उपाय यह हैं कि वह धरती पर आकर किसी अस्पताल में जाकर नवजात शिशु को जन्म होते देखे और साथ-ही-साथ उसे किशोर, युवक, प्रौढ़, वृद्ध तथा मृत्युपर्यन्त तक उसका अवलोकन करे। इसी प्रकार वह उस मनुष्य के जीवनक्रम से भलीभांति परिचित हो जाता है, जिसका उसने अवलोकन किया था। परन्तु इससे केवल एक ही मनुष्य के विषय में जानकारी प्राप्त होगी तथा उस प्राणी को पृथ्वी पर लगभग साठ-सत्तर वर्ष व्यतीत करने पड़ेंगे। दूसरा उपाय बहुत ही अद्भुत् है। इसके अंतर्गत उस प्राणी को किसी नगर में जाकर वहाँ के लोगों का अवलोकन तथा अध्ययन करना पड़ेगा। इससें चंद दिनों में ही वह मनुष्यों के कुछ गुण तथा जीवन के बारे में समझने लगेगा। वह एक बुद्धिसम्पन्न प्राणी हैं अत: वह सांख्यिकी का इस्तेमाल करेगा जैसे वह नगर के सभी मनुष्यों का वजन ऊंचाई, बालों का रंग, दाँतों की संख्या, त्वचा के रंग आदि के बारे में जानकारी एकत्र करेगा । इसी प्रकार कुछ ही दिनों के अवलोकन के पश्चात् वह मानव के कालानुसार विकास-क्रम की रूप-रेखा से परिचित हो जायेगा। यही दूसरा उपाय तारों की जीवन यात्रा को समझाने में समर्थ सिद्ध हुआ है।
तारों की उत्पत्ति का प्रश्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति से ही समन्धित है। परन्तु यहाँ पर केवल आकाशगंगा पर ही चर्चा करना उचित होगा ।
एक तारे की जीवन यात्रा
एक तारे की जीवन यात्रा आकाशगंगा में उपस्थित धूल एवं गैसों के एक अत्यंत विशाल मेघ (बादल) से शुरू होती है। इसे ‘नीहारिका’ (नेबुला) कहते हैं । दरअसल नीहारिका शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द नीहार से हुई जिसका अर्थ है ‘कुहरा’ । लैटिन में नीहारिका शब्द को ‘नेबुला’ कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बादल’। इन नीहारिकाओं के अंदर हाइड्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती है और 23 से 28 प्रतिशत हीलियम तथा बहुत कम मात्रा में कुछ भारी तत्व होते हैं। ऐसी ही तारों की एक प्रसूतिगृह हैं ओरीयान नीहारिका । इसकी विस्तृति लगभग 100 प्रकाश-वर्ष हैं इसके अंदर बहुत से नये तारे हैं तथा इसमें अनेकों ऐसे तारे हैं जिनका निर्माण हो रहा है।
वर्तमान में सभी वैज्ञानिक इस सिद्धांत से सहमत हैं कि धूल और गैसों के बादलोँ से ही तारों का जन्म होता है। कल्पना कीजिए कि गैस और धूलों से भरा हुए मेघ के घनत्व में वृद्धि हो जाती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्वाकर्षण के कारण संकुचित होने लगता है। इस संकुचन के होने के समय को ‘हायाशी-काल’ कहा जाता है। जैसे -जैसे मेघ में संकुचन होने लगता है, वैसे-वैसे उसके केन्द्रभाग का तापमान तथा दाब भी बढ़ जाता है। आखिर में तापमान और दाब इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का निर्माण करते हैं । तब तापनाभिकीय अभिक्रिया (संलयन) प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रक्रम में प्रकाश तथा गर्मी के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस प्रकार वह मेघ ताप और प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है।

मुख्य अनुक्रम:- हर्टजस्प्रुंग-रसेल आरेख की मुख्य अनुक्रम पट्टी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर तारे इसी पट्टी में पायें जाते हैं । इसका कारण यह है कि तारे अपने जीवन के 90 प्रतिशत भाग को इसी अवस्था में व्यतीत करते हैं । इस अवस्था में हाइड्रोजन का हीलियम में परिवर्तन काफी लम्बे समय तक चलता है। इसके कारण तारों के केन्द्रभाग में हीलियम की मात्रा में वृद्धि होती रहती है। अंत में तारों का ‘क्रोड’ हीलियम में परिवर्तित हो जाता है।
जब हीलियम क्रोड में परिवर्तित हो जाता है तो उसके उपरांत उनकी तापनाभिकीय अभिक्रियायें इतनी अधिक तेजी से होने लगती हैं कि तारे मुख्य अनुक्रम से अलग हो जाते हैं।
दानव तारे:- मुख्य अनुक्रम के पश्चात् तारे के केन्द्रभाग में संकुचन प्रारम्भ हो जाता है, संकुचित होने के कारण उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के कारण तारा फैलने लगता है। फैलने के उपरांत वह एक दानव तारा बन जाता (Giant Star) है। हमारा सूर्य भी इस अवस्था में आ जाएगा । पृथ्वी को छोड़कर बुध और शुक्र जैसे ग्रहों का नामोनिशान ही मिट जायेगा । यदि पृथ्वी सूर्य का ग्रास बनने से बच भी जाता हैं तो भी आग का दैत्याकार गोला बनने के बाद जब सूर्य श्वेत वामन तारा बन जायेगा। इससे पृथ्वी पर पर एक्स-रे तथा अन्य पैराबैंगनी किरणों की झड़ी-सी लग जाएगी । उस समय पृथ्वी को जीवन विहीन बनने से कोई भी नही रोक पायेगा।
श्वेत वामन तारे:- दानवी अवस्था में पहुँचने के पश्चात् तारे के अंदर हीलियम की ऊर्जा उत्पन्न होती है। और एक विशेष प्रक्रिया के अंतर्गत हीलियम भारी तत्वों में परिवर्तित हो जाता है। अंतत: यदि तारा सूर्य से पांच -छह गुना ही अधिक बड़ा हों तो उसमे छोटे-छोटे विस्फोट होकर उससे तप्त गैस बाहर निकल पड़ती है। उसके उपरांत तारा श्वेत वामन (White Dwarf Star) के रूप में अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करता हैं । प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ० सुब्रमणियन् चन्द्रशेखर ने यह सिद्ध किया कि तारों का द्रव्यमान सूर्य से 44 प्रतिशत से अधिक नही हो सकता । इस द्रव्यमान-सीमा को ‘चन्द्रशेखर-सीमा’ के नाम से जाना जाता है।
नोवा/सुपरनोवा(विस्फोटी तारे):- जो तारे सूर्य से पांच-छह गुना अधिक विशाल होते हैं अन्तत: उनमें एक भंयकर विस्फोट होता है। विस्फोटी तारे के बाहर का समस्त आवरण (कवच) उड़ जाता है और और उसका समस्त द्रव्य-राशी अंतरिक्ष में फ़ैल जाता है। परन्तु उसका अति तप्त क्रोड सुरक्षित रहता है। इस अद्भुत् घटना को सुपरनोवा (Supernova Star) कहते हैं। यदि उस तारे में अत्यधिक तेजी से संकुचन होने लगता है तो तो वह न्यूट्रॉन तारे का रूप धारण कर लेता है। बशर्ते उस तारे का द्रव्यमान हमारे सूर्य से दुगनी से अधिक न हो। कुछ विशेष परिस्थितियों में तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते हैं कि इनमे से प्रकाश की किरणें भी बाहर नही निकल पाती है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
सुपरनोवा विस्फोट के कारण तारे की जो द्रव्यराशी बाह्य अन्तरिक्ष में छितरा जाती है। वे द्र्व्यराशी किसी दिन नया ग्रह बनाने में भी मददगार हो सकते हैं। हो सकता है वह ग्रह हमारी धरती जैसा हो। तारों के इन्हीं अवशेषों में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, लोहा, निकिल, सिलिकॉन आदि अन्य सभी तत्व पायें जाते हैं। हमारा जीवन अतीत में हुए सुपरनोवा विस्फोट की ही देन है, इसमें आपको कोई संदेह है, क्या? एक महान वैज्ञानिक ने कहा है:-
“हमारे डीएनए में नाइट्रोजन, हमारे दाँतों में कैल्शियम, हमारे खून में लोहा, हमारी एपल-पाई (एक किस्म की मिठाई) में कार्बन (ये सब) तारों के अन्दर बने थे। हम स्टारस्टफ (तारा-पदार्थ) से बने हैं।”

उन महान वैज्ञानिक का नाम था कार्ल सैगन। अमेरीकी खगोल शास्त्री, लेखक, विज्ञान संचारक। उन्होंने 1980 में 13 खण्डों में एक टेलीविज़न सिरीज़ बनाई थी: ‘कॉसमॉस: ए पर्सनल वोयेज’। आज तक यह अमेरिका में निर्मित सबसे लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम है और इसे 60 देशों के 50 करोड़ लोग देख चुके हैं। इसका विषय है विज्ञान। यह सचमुच एक सुन्दर रचना है। उपरोक्त उद्धरण इसी नाम की पुस्तक से है जो सैगन ने टीवी सिरीज़ के साथ लिखी थी।
बहरहाल, 4 जुलाई 1054 को चीनी ज्योतिषियों ने हमारी आकाशगंगा में एक बहुत ही चमकीला तारा (यह एक सुपरनोवा विस्फोट था) देखा यहाँ तक दो दिनों तक तारा सूर्य के रहते हुए भी प्रकाशमान रहा, परन्तु शनै:-शनै: उसकी शक्ति समाप्त हो गयी। यदि करोड़ो-करोड़ो हाइड्रोजन बमों का विस्फोट करे तो शायद ऐसा विस्फोट हो। कर्कट-नीहारिका (क्रैब-नेबुला) में इस विस्फोट के आज भी स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं ।
दरअसल, ‘नोवा’लैटिन भाषा का एक शब्द हैं जिसका अर्थ होता हैं -नया । इसलिए प्राचीन ज्योतिषियों ने जब भी आकाश में कोई नई घटना होती देखी,बशर्ते आकाश में कोई नया तारा उदय होते देखा तो नोवा शब्द का इस्तेमाल किया। इसी प्रकार सुपरनोवा नाम पड़ा।
कृष्ण विवर (ब्लैक होल):- जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि जब तारे इतना अधिक संकुचित हो जाते हैं कि अत्यंत सघन पिंड (न्यूट्रॉन तारे से भी अधिक) बन जाते हैं, जिनमें से प्रकाश का भी निकल पाना सम्भव नही होता। वैज्ञानिक ऐसे अत्यधिक सघन पिंडों को ‘कृष्ण विवर, श्याम विवर’ या ‘ब्लैक होल’ (Black Hole) कहते हैं। क्या कारण हैं कि कृष्ण विवर प्रकाश को भी बाहर नही आने देते? ऐसा उस क्षेत्र के अत्यंत प्रबल गुरुत्वाकर्षण के कारण होता हैं। विस्मयकारी बात यह है कि कृष्ण विवर के निकट काल के प्रवाह में भी बेहद परिवर्तन हो जाता है।
कृष्ण विवर के अस्तित्व में होने की सम्भावना सर्वप्रथम वर्ष 1783 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन मिशेल ने बताई थी। यदि कृष्ण विवर प्रकाश की किरणों को नही भेजता तो हम उसे कैसे देख सकते हैं? हम यह अनुमान कैसे लगा सकते हैं कि कृष्ण विवर का अस्तित्व है? कृष्ण विवर की कल्पना हम उस व्यक्ति से कर सकते हैं जो सोफ़े पर बैठा हुआ हैं, परन्तु अदृश्य है। हम उस व्यक्ति को नही देख सकते हैं क्योंकि वह दृश्यमान नही हैं, परन्तु उसके बैठने से सोफ़े में गड्ढ़े बन जाते हैं ! ठीक उसी प्रकार से तारों के गुरुत्व क्षेत्र के प्रभाव को देखकर वैज्ञानिक कृष्ण विवर के अस्तित्व के बारे में पता लगा सकते हैं। हम जानते हैं कि आकाश में अनेक युग्म तारे (ऐसे तारे जो एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं) हैं। कल्पना कीजिये उनमे से एक तारा कृष्ण विवर है, तो दूसरे तारे के द्रव्यमान के बारे में खगोलीय विधियों द्वारा जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत तथा क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि कृष्ण विवर किसी गर्म पिंड (कृष्णिका पिण्ड) की भांति एक्स और गामा किरणों का उत्सर्जन करते हैं। कई वैज्ञानिको का मत है कि हमारे आकाशगंगा में ही करोड़ो-अरबों की संख्या में कृष्ण विवर हो सकते हैं। वर्तमान में भी कई खगोलविदों का यह मत है कि कृष्ण विवर केवल एक कल्पना-मात्र है।
परिशिष्ट :-
ध्रुव तारा : आखिर कितना स्थिर?
जब हम रात में आकाश का अवलोकन करते हैं तो हम यह देखते हैं कि ध्रुव तारा हर रोज, हर समय एक ही स्थिति में दिखाई देता है। इसलिए हमने ध्रुव तारे को स्थायी रूप से एक स्थान पर टिका रहने वाला तारा मान लिया है। ध्रुव तारे से मानव प्राचीन काल से ही अवगत रहा है। पुरानें जमानें के नाविकों एवं यात्रियों को दिशा के ज्ञान के लिए एवं समय के निरूपण के लिए इसी तारे की शरण लेनी पड़ती थी। वर्तमान में भी पानी के जहाजों को चलाने में हम तारों की सहायता लेते हैं और तो और आज जो बड़ी-बड़ी खगोलीय अवलोकन के लिए वेधशालाएँ हैं उनकीं भी घड़ियों को भी विभिन्न तारों से मिलाया जाता है। और वेधशालाओं की घड़ियों से बाकी घड़ियों को मिलाया जाता है। यहाँ तक अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए भी तारों का ज्ञान रखना बेहद महत्वपूर्ण होता है, विशेषकर ध्रुव तारे का।
हमारे पुराणों में ध्रुव तारे की स्थिरता को लेकर एक कहानी है। राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थी-सुनीति और सुरुचि । उत्तानपाद सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे। सुनीति को ध्रुव नामक पुत्र हुआ तथा सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम था। एक दिन उत्तम को अपने पिता के गोद में बैठा देखकर ध्रुव ने भी गोद में बैठने की इच्छा प्रकट की। और जाकर बैठ गया, मगर सुरुचि ने बालक ध्रुव को वहाँ से जबर्दस्ती दूर धकेल दिया। इस घटना से बालक ध्रुव बहुत दुखी हो गया और घर को छोड़ दिया। ध्रुव ने जंगल में जाकर तपस्या शुरू कर दी। कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु या शिव ने ध्रुव से वांछित वरदान मांगने के लिए कहा। तो ध्रुव ने त्रिलोक यानी पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग में सर्वोच्च पद की मांग की, जहाँ से उसे हटाया न जा सके। भगवान ने उसे वही स्थान दिया जो सदैव अटल रहता है, ध्रुव तारा !
ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ जिसका कारण विज्ञान द्वारा नही मिलता, ऐसी ही लोककथाओं तथा पौराणिक कहानियों में गढ़ा जाता है। इतना तो स्पष्ट हैं कि ध्रुव तारे की स्थिरता को ही देखकर उपरोक्त कथा गढ़ी गयी होगी। वर्तमान में हमारे पास कारण मीमांसा उपलब्ध हैं, इसलिए हम यह बता सकते हैं कि ध्रुव तारा स्थिर (अटल) क्यों प्रतीत होता है। और अब यह कथा मात्र मनोरंजक कहानी बनकर रह गईं है।
आज से लगभग दो हजार साल पहले यूनानी दार्शनिकों की यह अवधारणा थी कि पृथ्वी के चारों तरफ एक गोल पर तारे फैले हुए हैं (तथाकथित खगोल) तथा यह गोल एक धुरी पर घूमती हैं। इस अवधारणा के अनुसार तारे इस गोल पर जड़े हुए प्रकाशीय स्रोत हैं जो तथाकथित खगोल के साथ-साथ घूमते रहते हैं। ध्रुव तारा गोल की धुरी पर होने के कारण स्थिर प्रतीत होता है। महान भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट ने यूनानी दार्शनिकों की इस अवधारणा का खंडन किया तथा उन्होनें बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिक्रमा करती है, इसलिए तारे हमे पश्चिम से पूर्व की ओर जाते हुए प्रतीत होते हैं। अब हम जानते हैं कि आर्यभट की यह अवधारणा सही है।
पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती हैं। पृथ्वी की यह धुरी उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की ओर है। परन्तु यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती है तो क्या लट्टू की धुरी सैदव स्थिर रहती हैं? तो फिर ध्रुव तारा हमेशा स्थिर कैसे प्रतीत होता हैं? जब हम लट्टू को नचाते हैं तो वह धीरे-धीरे शंकु बनाते हुए घुमा करती हैं। ठीक लट्टू की ही भांति हमारी पृथ्वी की भी धुरी अंतरिक्ष में स्थिर नही है। दिलचस्प बात यह है कि पृथ्वी की यह धुरी स्वयं सूर्य की गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे घूम रही है। और लगभग 20,000 वर्षों में एक चक्कर पूरी करती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सर्वदा इस धुरी की स्थिति ध्रुव तारे की ओर नही रहेगी। आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व वर्तमान ध्रुव तारा घूमता हुआ प्रतीत होता होगा क्योंकि उस समय अटल (स्थिर) स्थान था अल्फ़ा ड्रेकोनिस। इसी प्रकार उत्तरी आकाश का सर्वाधिक चमकीला तारा अभिजित आज से करीब 12 हजार साल बाद ध्रुव-बिंदु के अत्यधिक नजदीक होगा और उस समय उसे ध्रुव तारा कहा जायेगा। ध्रुव तारे से संबंधित हमारे इसी आधुनिक ज्ञान के कारण हमें प्राचीनकाल के विभिन्न ग्रंथों के काल निर्धारण के लिए खगोलीय विधि प्राप्त हुई है।
इसलिए हमारे भौतिक-विश्व में कुछ भी स्थिर नही है, ध्रुव तारा भी नही! सूक्ष्म परमाणु कणों से लेकर विराट आकाशगंगाओं तक की प्रत्येक वस्तु गतिशील है। इस विश्व में अटल, स्थिर, शाश्वत, सदैव एकरूपी, नित्य एकरूपी, नियत, धीर, निश्चल, अचल पक्का इत्यादि नाम की कोई भी वस्तु नही है।
Universe mein dust particle kahan she aya
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अधिकतर धुल कण बिग बैंग के समय ही बने है, कुछ भाग तारों मे बना है और कुछ भाग सुपरनोवा विस्फोटो मे।
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Thank you sir for cosmos curiousity.
Sir, black hole ko adhrishya grah kyun mante hai jabki wo actual me ek hole hai, jo gravity se bani hai. Jaise koi mixer grinder ya bawander ko le lo, jo khud to hole me rahta par ass-pass ki sari chije apni ander khich leta hai.
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ब्लैक होल दिखाई नहीं देता है। किसी भी वस्तु को दिखाई देने के लिए उससे प्रकाश लौट कर आना चाहिए। ब्लैक होल प्रकाश को भी खींच लेता है जिससे वह दिखाई नहीं देता।
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Thank you sir, for sharing your knowledge with me.
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Sir, cosmos me gas, roshni ya jitane bhi padarth hai wo kaha se aye hai.
Aur kya pura cosmos aise hi star, galaxies se dhaka hua hai ya iske alava bhi aur kuchh hoga.
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दो चीजे है डार्क मैटर और डार्क एनर्जी। लेकिन वर्तमान में हम इन के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते।
लेख सूची में जाइये आपको कुछ लेख मिल जॉयेंगे।
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good
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Sir agar hum doorbin se taaro ka rang akar aur kafi jankari hasil Kar Lete hai ye bhi pata chal jata hai k waha Kon Kon c gas hai aur temperature bhi pata chal jata hai to kya ye doorbin se nahi dekh sakte k Kon se grab par alien reh rahe hai kya unko doorbin se dekhna sambhar nahi hai
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दूरबीन से किसी ग्रह् की सतह जैसी सूक्ष्म जानकारी नहीं मिल पाती है
दूरबीन बड़ी जानकारी जैसे आकार, गैस की सरंचना, द्रव्यमान जैसी जानकारी ही पता लगा पाती है।
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बहोत समय से मन में कुछ प्रश्न लगातार परिक्रमा लगा रहे है , किन्तु आज आपसे पूछ रहा हूँ , कृपया यथासंभव इन संकाओ का समाधान करें। पहला प्रश्न यह है की
“हम किसी तारे अथवा आकाशगंगा की दूरी का अनुमान किस प्रकार लगते हैं की वह हमसे कितनी प्रकाश वर्ष दूर स्थित हैं ?
और दूसरा प्रश्न यह है की ,” इतनी दूरी पर होने बावजूद हम यह कैसे ज्ञात करते हैं की किसी तारे की परिक्रमा कर रहा गृह गैस का गोल है अथवा ठोस गृह है (हालाँकि यह तो मुझे आप से ही ज्ञात हुआ है की अधिक द्रवमान के पिंड अधिकांश गैसीय पिंड ही होते है)” कृपया कुछ प्रकाश डालिये, इस पर जानकारी स्पष्ट नहीं है मुझे , और हम यह कैसे ज्ञात करते हैं की यह गृह या पिंड बर्फ का है , अथवा इसपे कौन कौन सी गैस हैं , कैसा वातावरण है यह सब कैसे ज्ञात किया जाता है।
आपके विज्ञानं विश्व ने मेरे जीवन में बिलकुल एक विज्ञानं के शिक्षक की भांति मेरी जिज्ञासाओं का समाधान किया है , इसके लिए मैं सदैव आपका आभारी रहूँगा।
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इसका उत्तर शीघ्र ही एक लेख के रूप में देते है।
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धन्यवाद सर आपने मेरी समस्या हल कर दी !
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sir ji ho sakta hai k aaj jo hum log aakashgaangaen dekh rahe hai un sab k center main black holl hota hai . Is ka matlub k jitne v glaxey hai boh pehle bohat bada tara hogi. Aour us tare main super nova bisfot hua hoga Aour us tare k kender black holl ban gya hoga aour j blast main jo baki padarth bacha hoga us k he sare tare aour plenet bane hoge
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Ashis jo Raaz ka sawal sahi hai ager hum space se niche ki disha mai prithvi mai ghusenge to kya hum samundra se bahar aaenge plz tell me
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यदि आप पृथ्वी के आर पार हो तो दूसरी और सागर या भूमि कुछ भी हो सकता है। सब आपकी भूमि में प्रवेश के स्थान पर निरभर है।
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Thanks sir itni sari knowledge dene ke liye
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Aapka bahut bahut dhanyawad.
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Sir america ke log india ke logo se kitne saal (dimaag se) aage chalte hai.
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समस्त विश्व के मानवो का दिमागी स्तर समान होता है। बस सामाजिक और शैक्षणिक परिवेश से अंतर आता है।
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Sir sabse fast speed wala rocket ya yan konsa hai
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न्यू हरीजोंस 13 किमी/ सेकण्ड
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सर ऐसा कोई परिवर्तीत द्रव्यमान निकाय है जिसका द्रव्यमान समय के साथ बढता है।
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रेडियो सक्रीय पदार्थो में समय के साथ द्रव्यमान काम होता है क्योंकि कुछ मात्रा ऊर्जा में परिवर्तित होती है। लेकिन द्रव्यमान बढ़ाने वाला उदाहरण उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं है लेकिन शायद ब्लैक होल के आसपास ऐसा हो सकता है, वहां पर ऊर्जा द्रव्यमान में परिवर्तित हो सकती है।
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good job
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क्या हमारे वैज्ञानिक सौरमंडल से बाहर गये या नही।
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अभी तक मानव चंद्रमा के पार नही गया है। लेकिन मानव निर्मित यान वायेजर सौर मंडल की सीमा के पार जा चुका है।
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खगोलशास्त्र (Astronomy) से जुडी हुई किन्ही अच्छी हाॅलीवुड फिल्मो का नाम बताये सर ताकि हम और रोचक ढंग से जानकारी प्राप्त कर सके। धन्यवाद
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Apollo 13, 2001 a space Odyssey, Gravity, Interstellar, Martian
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आप अच्छा काम कर रहे हैं
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क्या ऐसी भी कोई जगह है जहॉ दुसरा पैर रखते ही पृथ्वी के बाहर हो जाये. . मेरा मतलब पूर्व, पश्िम,उत्तर, दक्षिण का कोई अंत (आखिरी छोर) तो होगा ही पृथ्वी का. ? इस विषय पर प्रकाश डाले. .
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पृथ्वी गोल है और गोलाकार वस्तु पर ऐसी कोई जगह नहीं होती है।
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मुझे पता है गोल है… आप मेरा सवाल नही समझे.. एक गेंद को बीच से काट ले अब अगर अंतरिक्ष यान उपर की तरफ प्रिथ्वी के बाहर निकल सकता है तो दाये या बाये से भी तो प्रिथ्वी के बाहर निकल सकता है..
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पृथ्वी पर आप किसी भी जगह पर खड़े हो, पृथ्वी से बाहर निकलने के लिये आपको उपर की दिशा मे ही जाना होगा। बाये, दायें, आगे पीछे चलने पर आप पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर उसी स्थान पर आ जा जायेंगे।
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आप एक्सिस मुंड के बारे mei जानना चाहा रहे हैं.. एक बार एक्सिस मुंड बारे में पढो ये आपकी थोड़ी मदद करेगा आपके सवाल के जवाब पाने में
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बहुत ही अच्छा लेख है।।
अभी वायेजर १ और २ की क्या स्थिति है वह भी अवगत कराये’।
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श्रम पूर्वक लिखा गया उपयोगी आलेख. लिखते रहो….
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धन्यवाद 🙂 🙂 🙂
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प्रदीप ने बढ़िया, शोध परक, परिपूर्ण, जानकारी परक, और सरल शब्दों में विज्ञान आलेख लिखा है. शानदार. और, ध्रुव तारे की असलियत आज ही पता चली 🙂
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