वर्ष 2020 के चिकित्सा नोबेल पुरस्कारों का ऐलान सोमवार 5 अक्टूबर 2020 को किया गया है। इस बार ब्रितानी वैज्ञानिक माइकल हाउटन (Michael Houghton) और अमरीकी वैज्ञानिक हार्वे अल्टर (Harvey Alter) और चार्ल्स राइस ( Charles Rice) को यह पुरस्कार मिला है। इन तीनों को ‘हेपेटाइटिस सी’ वायरस की खोज के लिए यह पुरस्कार दिया गया है।
नोबेल पुरस्कार समिति ने ट्विटर पर बताया है कि रक्त-जनित हेपेटाइटिस, विश्व भर के लोगों में सिरोसिस और यकृत कैंसर का कारण बनता है। इसके खिलाफ लड़ाई में इन तीनों ने निर्णायक योगदान दिया।
हार्वे जे अल्टर, माइकल ह्यूटन और चार्ल्स एम राइस
- हार्वे जे. आॅल्टर ( जन्म- 1935 ) न्यूयार्क, अमेरिका के निवासी हैं और मेडिकल रिसर्चर, विषाणु विज्ञानी व चिकित्सक रह चुके हैं।
- माइकल हॉवटन ( जन्म- 1950 ) इंग्लैण्ड के निवासी हैं और विषाणु विज्ञानी व प्रोफ़ेसर हैं।
- चार्ल्स एम. राइस ( जन्म- 1952) सैक्रमैन्टो, अमेरिकी के निवासी हैं और विषाणु विज्ञानी व प्रोफ़ेसर रह चुके हैं।
इन वैज्ञानिकों की खोज के कारण इतिहास में पहली हिपेटाइटिस सी का इलाज संभव हो सका है। इन वैज्ञानिकों ने हिपेटाइटिस सी के मौजूदा मरीजो के लिए खून की जांच और नई दवाओं को संभव बनाया। इसकी वजह से लाखों लोगों की जान बचाई जा सकी। इससे पहले लाखों लोग बीमारी का पता चले बगैर ही इसके शिकार हो कर अपनी जान गंवा बैठे।
साल 2020 के लिए चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार के एलान के साथ ही नोबेल पुरस्कारों की घोषणा का सप्ताह शुरू हो गया है। स्टॉकहोम की कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने पुरस्कार विजेता के नाम की घोषणा की।
हेपेटाइटिस C वायरस से लीवर कैंसर होता है और यह एक बहुत बड़ा कारण है कि लोगों को लीवर ट्रांसप्लांट करवाना पड़ता है।
1960 के दशक में यह एक बड़ी चिंता का विषय था कि जो लोग दूसरों से रक्तदान लेते थे उन्हें एक अज्ञात और रहस्यमयी बीमारी हो जाती थी जिसके कारण उनके लीवर में जलन पैदा हो जाती थी।
नोबेले कमेटी के अनुसार उस समय रक्त लेना(ब्लड ट्रांसफ़्यूज़न) ‘रूसी रुलेट’ की तरह था. इसका अर्थ होता है एक ख़तरनाक खेल जिसमें खेलने वाला अपने रिवॉल्वर में सिर्फ़ एक गोली डालता है और फिर सिलेंडर को घुमा देता है।)। उसके बाद वो अपनी रिवॉल्वर को ख़ुद पर ही तान कर चला देता है। इस खेल में उसकी जान भी जा सकती है और वो बच भी सकता है।
बहुत ही उच्च श्रेणी की रक्त जॉच से अब इस तरह के ख़तरों पर क़ाबू पाया जा चुका है और एंटी-वायरस दवाएं भी विकसित की जा चुकी हैं।
नोबेल कमेटी के अनुसार 1960 के दशक में किसी से रक्त लेना ऐसा ही ख़तरनाक था कि आपकी जान भी जा सकती थी।
नोबेल कमेटी ने कहा,
“इतिहास में पहली बार अब इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है, जिससे दुनिया से हेपेटाइटिस सी वायरस ख़त्म करने की उम्मीद बढ़ गई है।”
लेकिन अभी भी इस वायरस के सात करोड़ मरीज़ हैं और इस वायरस से दुनिया भर में हर साल क़रीब चार लाख लोग मारे जाते हैं।
रहस्यमयी हत्यारी बीमारी
1960 के दशक में हेपेटाइटिस A और हेपेटाइटिस B को खोजा गया था।
लेकिन प्रोफ़ेसर हार्वे ने साल 1972 में यूएस नेशनल इंस्टीच्यूट्स ऑफ़ हेल्थ में रक्त ट्रांसफ़्यूजन के मरीज़ों पर शोध करते हुए पाया था कि एक दूसरा रहस्यमीय वायरस भी मौजूद है जो अपना काम कर रहा है।
रक्तदान लेने वाले मरीज़ बीमार पड़ रहे थे।
उन्होंने अपनी शोध में पाया कि संक्रमित लोग अगर वनमानुष को अपना ख़ून दे रहे थो तो उससे वनमानुष बीमार पड़ रहे थे।
इस रहस्यमयी बीमारी को नॉन A नॉन B हेपेटाइटिस कहा जाने लगा और इसकी खोज शुरू हो गई।
प्रोफ़ेसर माइकल हाउटन ने दवा की कंपनी शिरोन में काम करते हुए साल 1989 में इस वायरस के जेनेटिक श्रंखला की पहचान करने में सफलता पाई थी।
इससे पता चला कि यह एक तरह का फ़्लैवीवायरस है और इसका नाम हेपेटाइटिस C रख दिया गया।
प्रोफ़ेसर चार्ल्स राइस ने सेंट लुई स्थित वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में रहते हुए साल 1997 में इस वायरस के बारे में अंतिम महत्वपूर्ण खोज की।
उन्होंने हेपेटाइटिस C वायरस को एक वनमानुष के लीवर में इंजेक्ट किया और दिखाया कि वनमानुष को हेपेटाइटिस संक्रमण हो गया है।
हैपेटाइटिस
हैपेटाइटिस को सरल शब्दों में कहें तो यकृत में होने वाली जलन व सूजन। हैपेटाइटिस चार तरह के होते हैं- A, B, C और E
A और E वायरस दूषित खाने, शराब व पानी से हमारे यकृत में प्रवेश करते हैं जबकि B और C वायरस दूषित रक्त, संक्रमित सुई से इन्जेक्शन लगाने व अशुद्ध रेजर आदि के उपयोग से शरीर में प्रवेश करते हैं। हैपेटाइटिस A और E के रोगी गर्मी और बारिश के दिनों में ज़्यादा सामने आते हैं क्योंकि इन मौसमों में पीने के पानी और खाद्य सामग्री के दूषित होने की संभावना अधिक होती है। हैपेटाइटिस A और E से बचाव स्वच्छता की अच्छी आदतों को अपनाकर किया जा सकता है। A और B की वैक्सीन मौजूद है व जल्द ही E व C की भी उपलब्ध होगी।
हैपेटाइटिस के लक्षण हैं- भूख ना लगना, उल्टी होना, बुखार व पीलिया की शिकायत, ख़ून की उल्टी होना।
हैपेटाइटिस-C
आज नोबेल के सन्दर्भ में हैपेटाइटिस-C की चर्चा ज़रूरी है।
हैपेटाइटिस-C वायरस रक्त से यकृत में प्रवेश करता है और धीरे-धीरे सालों, दशकों में सूजन और जलन पैदा करते हुए अन्ततः सिलोसिस और कैंसर का कारण बनता है।
हर साल 28 जुलाई को ‘विश्व हैपेटाइटिस दिवस’ भी मनाया जाता है। इसी तारीख को हैपेटाइटिस-B के खोजकर्ता प्रोफ़ेसर ‘बारूक ब्लमवर्ग’ का जन्मदिन भी होता है। लगभग 50 साल पहले ही वैज्ञानिकों को शरीर में रक्त चढ़ाने के तरीकों पर जोखिम नज़र आने लगा था। 1940 के दशक तक ये स्पष्ट हो चुका था कि मुख्यतः दो प्रकार के हैपेटाइटिस विषाणु मौजूद हैं- A व B. इसी क्रम में बारूक ब्लमवर्ग ने 1967 में हैपेटाइटिस-B का पता लगाया था और उन्हें 1976 में चिकित्सा का नोबेल भी मिला था। लेकिन B वायरस ने हैपेटाइटिस की सारी बातें उजागर नहीं की। पिछले 4 दशकों तक परिश्रम के पश्चात आॅल्टर, हाॅवटन और राइस ने C वायरस का पता लगाया।
1970 के दशक में आॅल्टर और उनके सहयोगियों ने अध्ययन करके पता लगाया कि A और B से प्रतिरक्षा करने पर भी कुछ वायरस यकृत में मौजूद रह सकते हैं। उन्होंने सन् 1978 में अन्जान रक्त( जिसमें हैपेटाइटिस की सम्भावना थी) को चिम्पैन्जी में इन्जैक्ट किया और यह सिद्ध किया कि रक्त में कोई वायरस मौजूद है। खोज आगे बढ़ने पर यह सिद्ध हो गया कि यह विषाणु ही था।
सन् 1989 में हाॅवटन ने एक फार्मा कम्पनी में काम करते हुए अपने सहयोगियों के साथ पहली बार इस वायरस का क्लोन यानि प्रतिकृति ( हूबहू ढांचा) तैयार किया और इसे हैपेटाइटिस-C नाम दिया। इसी टीम ने ब्लड टेस्टिंग के नये तरीके खोजे और उस समय तक अस्पष्ट हैपेटाइटिस के रहस्य को सुलझाया। इस खोज ने आगे चलकर रक्त से संक्रमित रोगियों के इलाज को सरल किया। वर्तमान में तो हम दूषित रक्त युक्त इन्जेक्शन द्वारा फैलने वाले इस रोग को बहुत हद तक रोकने में सक्षम हो चुके हैं।
राइस ने भी इसी खोज को आगे बढ़ाया। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में काम करते हुए 1997 में उन्होंने अपने शोध पत्र में दावा किया कि यह नया वायरस अनेक रूप लिए होता है। कुछ रूप नुकसानदायक होते हैं और कुछ नहीं। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि वायरस के कुछ रूप बहुत हानिकारक हैं और लीवर को नुकसान पहुंचाते हैं।
वर्तमान में लगभग 8 करोड़ लोग हैपेटाइटिस के संक्रमण से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार साल 2016 में लगभग 4 लाख लोगों की मौत हैपेटाइटिस-C से हुई थी। नोबेल कमेटी के अनुसार हर साल 10 लाख लोगों की मौत रक्त जनित हैपेटाइटिस से होती है। इस रोग से सबसे बुरी तरह प्रभावित देश मिस्र में पिछले कुछ सालों से नये चिकित्सीय तरीकों द्वारा हैपेटाइटिस के रोगियों का सफल इलाज किया जा रहा है।
हैपेटाइटिस-A से संक्रमित व्यक्ति कुछ समय बाद साधारण उपचार द्वारा ख़ुद ही सही हो जाता है। हैपेटाइटिस-B वायरस गम्भीर समस्या पैदा करता है और कैंसर जैसे रोगों का कारण बनता है। हैपेटाइटिस-C बहुत नुकसानदायक होता है।
हैपेटाइटिस-C वायरस को वैज्ञानिकों ने कैसे पहचाना ?
आजकल जिस तरह कोविड-19 की पहचान चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती है, ठीक उसी तरह हैपेटाइटिस-C भी तब एक चुनौती ही था। इस वायरस की पहचान के लिए हर परम्परागत तरीक़ा अपनाया गया, दशकों तक काम हुआ, पर कुछ हाथ न आया। तभी हाॅवटन ने अलग तरीका अपनाया। सर्वप्रथम चिम्पैन्जी को दूषित रक्त चढ़ाया गया। फिर चिम्पैन्जी के रक्त में मौजूद न्यूक्लिक अम्ल में से DNA के टुकड़े अलग किए गए। ये अधिकतर टुकड़े चिम्पैन्जी के स्वयं के जीनोम के थे, परन्तु वैज्ञानिकों को शक हुआ कि इस रक्त में कुछ DNA के टुकड़े किसी अंजान सूक्ष्म जीव के भी थे, जो हैपेटाइटिस-C वायरस था। यह मानते हुए कि इस वायरस का प्रतिरोधी भी स्वयं शरीर में ही होगा, वैज्ञानिकों ने संक्रमित चिम्पैन्जी के रक्त से वायरस का ढाँचा ( क्लोन) विकसित किया और वायरस पकड़ में आया।
ये तीनों वैज्ञानिक नोबेल के हकदार तो हैं ही, उससे भी बढ़कर हमारी प्रशंसा और प्यार के। इनकी खोज महान है और हैपेटाइटिस से हमारी लड़ाई में एक शानदार वैज्ञानिक उपलब्धि भी है। इन्हीं की खोज के दम पर आज अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किए जा रहे हैं और हैपेटाइटिस की बीमारी को विश्व के अनेक देशों में बहुत हद तक काबू में लाकर लोगों के स्वास्थ्य को संवारा जा सका है। मरते को जीवन की उम्मीद, बस ! और क्या मांगेंगे आप ? लोगों में उम्मीद जगी है कि हाँ हैपेटाइटिस-C का भी उपचार सम्भव है और भविष्य में इसका पूर्ण ख़ात्मा भी हो सकेगा।
नोबेल एसेम्बली के महासचिव प्रोफ़ेसर टॉमस पर्लमैन ने कहा कि वो फ़िलहाल प्रोफ़ेसर ऑल्टर और प्रोफ़ेसर राइस को ही नोबेल पुरस्कार दिए जाने की सूचना दे पाएं हैं।
उन्होंने कहा,
“वे लोग अपने फ़ोन के आसपास नहीं बेठे थे क्योंकि मैंने उनलोगों को कई बार फ़ोन किया लेकिन जवाब नहीं मिला। लेकिन जब उनसे संपर्क हुआ तो वे लोग बहुत चौंके और बहुत ख़ुश हुए, कुछ देर के लिए तो वो लोग कुछ बोल ही नहीं पाए। उनसे बात करके मुझे बहुत अच्छा लगा।”
इस साल चिकित्सा के पुरस्कार को कोरोना की महामारी के कारण विशेष महत्व दिया गया। इससे समाज और अर्थव्यवस्था के लिए पूरी दुनिया में मेडिकल रिसर्च की अहमियत का पता भी चलता है। हालांकि यह भी लगभग तय था कि इस साल का विजेता कोरोना के इलाज या फिर रोकथाम की दिशा में काम करने वाला ही हो। आमतौर पर कई सालों बल्कि कई बार तो दशकों की मेहनत के बाद मिली सफलता लोगों को इस पुरस्कार का विजेता बनाती है।
नोट : लेख के कुछ हिस्से सौरभ पांडेय की फेसबुक पोस्ट से लिये गए हैं।