
गणित में बेहद रूचि रखने वाले वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) भौतिकी की ओर अपने स्कूल के अंतिम दिनों में आकृष्ट हुए और फिर ऐसा कर गये जिसने प्रचलित भौतिकी की चूलें हिला दीं। वे कितने प्रतिभाशाली रहे होंगे और उनके कार्य का स्तर क्या रहा होगा, इसका अंदाज इस बात से लगता है कि जिस क्वांटम यांत्रिकी को उन्होंने मात्र 23 की उम्र में गढ़ा, उसके लिये उन्हें मात्र 31 वर्ष की उम्र में ही नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अपने मौलिक चिंतन से हाइजेनबर्ग ने ने अनिश्चितता का सिद्धांत(Uncertainty principle) प्र्स्तुत किया।इस सिद्धांत को उन्होंने इस प्रकार बताया:
यह पता कैसे चलेगा कि कोई कण (पार्टिकल) कहाँ है? उसे देखने के लिए हमें उसपर प्रकाश फेंकना पड़ेगा अर्थात हमें उसपर फ़ोटॉन डालने होंगे। जब फ़ोटॉन उस पार्टिकल से टकरायेंगे तब उस टक्कर के परिणामस्वरूप कण(पार्टिकल) की स्थिति परिवर्तित हो जायेगी। इस तरह हम उसकी स्तिथि को नहीं जान पाएंगे क्योंकि स्थिति को जानने के क्रम में हमने स्तिथि में परिवर्तन कर दिया।

तकनीकी स्तर पर यह सिद्धांत कहता है कि हम कण(पार्टिकल) की स्तिथि और उसके संवेग(momentum) को एक साथ नहीं जान सकते। यह पूरा तो नहीं पर कुछ-कुछ उस ‘ऑब्ज़र्वर’ प्रभाव की भांति है जहाँ कुछ प्रयोग ऐसे होते हैं जिनमें परीक्षण का परिणाम प्रेक्षक (ऑब्ज़र्वर) की स्तिथि में बदलाव होने से बदल जाता है। इस प्रकार अणुओं और परमाणुओं की सौरमंडलीय व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। अब इलेक्ट्रौन को पार्टिकल के रूप में नहीं बल्कि संभाव्यता प्रकार्य (प्रॉबेबिलिटी फंक्शन्स) के रूप में देखा जाता है। हम उनके कहीं होने की संभावना की गणना कर सकते हैं पर यह नहीं बता सकते कि वे कहाँ हैं। वे कहीं और भी हो सकते हैं।
हाइजेनबर्ग ने जब इस सिद्धांत की घोषणा की तब बहुत विवाद भी हुए। आइन्स्टीन ने अपना प्रसिद्द उद्धरण भी कहा, “ईश्वर पासे नहीं फेंकता”। और इसके साथ ही भौतिकी भी दो भागों में बाँट गयी। एक में तो विस्तार और विहंगमता का अध्ययन किया जाने लगा और दूसरी में अतिसूक्ष्म पदार्थ का। इन दोनों का एकीकरण अभी तक नहीं हो पाया है।
बचपन
वर्नर हाइजेनबर्ग का जन्म 5 दिसम्बर 1901 को वुर्ज़बर्ग (Würzburg) में हुआ था। वारेन ने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वुर्ज़बर्ग के स्कूल मेक्सीमिलियन जिम्नेशियम (Maximilians Gymnasium, Munich) से की। जब वे पैदा हुए थे तब उनके पिता आगस्ट हाइजेनबर्ग (August Heisenberg) क्लासिकल लेंग्वेज के शिक्षक थे, जो आगे चलकर सन् 1909 में वे म्युनिक विश्वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्रोफेसर बने। कुछ महिनों के बाद वर्नर भी परिवार के साथ वुर्ज़बर्ग से म्यूनिक आ गये।
सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया जो सन् 1919 तक चला। सन् 1918 में जर्मनी में क्रांति हुई। इस कारण म्यूनिक में भी बहुत आपदाएं आईं। वर्नर ने इस क्रांति में भाग लिया। रात को ड्यूटी रहती लेकिन जब सुबह-सुबह काम नहीं रहता तब उनका पुस्तकें पढ़ने का शौक पूरा होता। एक बार महान दार्शनिक प्लेटो की ग्रीक भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थिमेअस’ (Timaeus) उनके हाथ लग गई। चूँकि ग्रीक भाषा का अध्ययन वर्नर के पाठ्यक्रम का हिस्सा था, अतः यह पुस्तक उनके लिये उपयोगी थी। इस पुस्तक में प्राचीन यूनान के परमाणु संबंधी सिद्धांत का वर्णन था। अतः इस पुस्तक को पढ़ते समय उनके मन में परमाणु के रहस्यों को गहराई से जानने की इच्छा पैदा हो गई। अब उनका मन गणित के साथ ही भौतिकी के अध्ययन की ओर भी होने लगा। आगे चलकर उन्होंने सन् 1932 में परमाणु के नाभिक के लिये ‘न्यूट्रॉन-प्रोटॉन मॉडल’ प्रस्तुत किया। उनका ग्रीक प्रेम आगे भी नजर आया जब युकावा ने सशक्त नाभिकीय बल के सिद्धांत को विकसित करने के लिये जिस कण को ‘मिसॉट्रॉन’ के नाम से प्रतिपादित किया था, उसे हाइजेनबर्ग के सुझाव पर ‘मिसॉन(Meson)’ के रूप में मान्य किया गया।
जर्मनी में क्रांति के दिनों में, जब जर्मनी के हालत बिगड़ने लगे और उनके परिवार के पास खाने तक का संकट था, तब वर्नर को कुछ दिनों के लिये स्कूल छोड़कर कुछ महीनों के लिये म्यूनिक से करीब 50 मील दूर स्थित खेत पर मजदूरी के लिये जाना पड़ा। खेत पर उन्हें अक्सर साढ़े तीन बजे सुबह उठना पड़ता और फिर रात को करीब दस बजे तक काम करना होता था। कई बार उन्हें दिन में घास काटने जैसा थका देने वाला परिश्रम भी करना पड़ता। लेकिन वर्नर ने इस काम को मजबूरी में करने की बजाय ‘शिक्षा देने वाले काम’ के रूप में लिया। बाद में उन्होंने महसूस किया कि इस दौरान उन्हें वह शिक्षा मिली जो स्कूलों में रहकर कभी नहीं मिल सकती थी।
धीरे-धीरे जर्मनी के हालात सुधरे और फिर वर्नर अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1920 में सोमेरफेल्ड के मार्गदर्शन में भौतिकी पढ़ने के लिये म्यूनिक विश्वविद्यालय में आ गये। यहाँ वीन, प्रिंगशेम और रोजेंथल जैसे प्रतिष्ठित भौतिकविद् भी थे। म्यूनिक में उनकी मुलाकात सोमरफेल्ड के तीक्ष्ण बुद्धि वाले और बहुत सशक्त व्यक्तित्व के धनी छात्र वुल्फगैंग पॉली (जो आगे चलकर 1945 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए) से हुई। हाइजेनबर्ग उनसे बहुत गहराई तक प्रभावित हुए। पॉली शोध करने और इस दौरान प्रस्तुत किये जाने वाले सिद्धांतों में गलतियों को खोजने में माहिर थे।
सोमरफेल्ड अपने विद्यार्थियों से बहुत प्यार करते थे। उन्हें पता चल चुका था कि वर्नर हाइजेनबर्ग को ‘परमाणु के चितेरे’ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नील्स बोहर के परमाणु भौतिकी के काम में बहुत रूचि है। इसीलिये एक बार जब गोटिंजन में ‘बोहर फेस्टिवल’ का आयोजन हुआ तो वे हाइजेनबर्ग को भी अपने साथ ले गये। इस फेस्टिवल में बोहर के व्याख्यानों की एक शृंखला आयोजित थी। यहीं वे पहली बार बोहर से मिले और उनके गहरे प्रभाव में आ गये।
शोधकार्य
सन् 1922-23 के शीतकालीन अवकाश के दौरान हाइजेनबर्ग मैक्स बॉर्न, जेम्स फ्रेंक और डेविड हिलबर्ट के पास अपनी पीएचड़ी के लिये एक परियोजना पर कार्य करने के लिये गॉटिंगन गये। पी.एचडी. प्राप्त करने के बाद उन्हें गॉटिंगन विश्वविद्यालय में मैक्स बॉर्न के सहायक के रूप में कार्य करने का अवसर मिल गया। उन दिनों गॉटिंगन विश्वविद्यालय मैक्स बॉर्न के नैतृत्व में भौतिकी के बहुत बड़े केंद्र के रूप में विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान रखता था। मैक्स बॉर्न को उनके क्वांटम यांत्रिकी की सांख्यिकीय व्याख्या के लिये 1954 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला।
इसके पश्चात 17 सितम्बर 1924 से 1 मई 1925 के बीच वे ‘रॉकफेलर ग्रांट’ प्राप्त कर कोपनहेगन विश्वविद्यालय में नील्स बोहर के साथ काम करने के लिये गये। उस समय क्वांटम दुनिया से उठ रही समस्याएं वैज्ञानिकों के सम्मुख चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही थीं। बोहर इस क्षेत्र के अग्रणी वैज्ञानिक थे। उन्हें परमाणविक संरचना की खोज के लिये सन् 1922 का नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। कोपनहेगन के चैतन्य और प्रेरक वातावरण से निकल कर जब वे लौटे तो क्वांटम जगत से उठ रही समस्याओं से निपटने के लिये उनके मस्तिष्क में सर्वथा नये विचार घुमड़ने लगे और उन्होंने सर्वथा नये तरीके से सोचना आरंभ किया।
वे बोहर मॉडल को लेकर सोचने लगे कि हम नहीं जानते कि इलेक्ट्रॉन परमाणु में कब, कहाँ हैं। हम अवशोषण या उत्सर्जन से इतना जान सकते हैं कि इलेक्ट्रॉन ने अवस्था परिवर्तन(State change) किया है। लेकिन इसने किस कक्षा से किस कक्षा में जाने के लिये किस रास्ते को तय किया है, यह कभी नहीं जाना जा सकता है। कक्षाओं के अस्तित्व को किसी भी तरीके से सत्यापित नहीं किया जा सकता है। अतः हम कैसे मान सकते हैं कि बोहर के ये आर्बिट वास्तविक आर्बिट हैं। अगर ये वास्तविक नहीं हैं तो फिर क्यों नहीं इनको छोड़कर आगे बढ़ने के लिये कोई अन्य वैकल्पिक रास्ता निकाला जाना चाहिये। वे सोचने लगे कि किसी भी सिद्धांत को ‘यथार्थ’ पर आधारित होना चाहिये न कि कल्पनाओं पर आधारित मॉडल्स पर। चूँकि हम संक्रमण (transition) के माध्यम से परमाणु को एक अवस्था से दूसरी में जाते हुए देखते हैं, अतः ‘संक्रमण’ को आधार बनाकर आगे बढ़ना उन्हें श्रेयस्कर लगा।
क्वांटम जगत में प्रवेश के लिये हाइजेनबर्ग के ये विचार बीज एक नई दिशा की ओर संकेत कर रहे थे। वे इस बात के पक्षधर थे कि वैज्ञानिक पड़तालों को सिर्फ निरिक्षणो (observables) पर ही निर्भर होना चाहिए, और जहां तक परमाणु की बात है, हम सिर्फ स्प्रेक्ट्रल रेखाओं को ही देखते हैं, अतः इसी के इर्द-गिर्द हमारे सिद्धांत खड़े होना चाहिए। स्पेक्ट्रल रेखाओं के माध्यम से हम परमाणु द्वारा अवशोषित या उत्सर्जित विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा से संबद्ध तरंगदैर्ध्य, आवृति और तीव्रता को संज्ञान में लेते हैं। यानि, ये ही वे राशियां होनी चाहिए जिनको आधार बनाकर हमें आगे बढ़ना चाहिए। अब उनकी प्रतिभा और अधिक रंग दिखाने लगी। कोई भी स्पेक्ट्रल रेखा तभी उदित होती है जब इलेक्ट्रॉन एक अवस्था से दूसरी में जाता है। चूंकि परमाणु में इलेक्ट्रॉन की अवस्था की पहचान उसकी स्थिति से नहीं बल्कि उससे संबद्ध क्वांटम संख्या से होती है, अतः स्पेट्रल रेखा का संबंध क्वांटम संख्याओं के विभिन्न जोड़ों से होना चाहिए।
विचारों के बीजारोपण के इस दौर में उन्हें हे-फीवर हो गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘फिजिक्स एण्ड बीयांड’ में लिखा कि हे-फीवर के कारण जब वे हवा परिवर्तन के लिये हेलीगोलैण्ड गये तब उनकी घंटी बजी।’ बुखार के कारण शारीरिक कमजोरी के बावजूद उनका मस्तिष्क इन विचारों को दिशा देने के लिये बहुत उत्तेजित और सक्रिय था। अपनी तार्किक यात्रा के इसी दौर में उन्हें लगा कि वे परमाणविक घटनाओं के नीचे एक अनोखे खूबसूरत संसार को देख रहे हैं। वे हतप्रभ रह गये इस विचार से कि अब उन्हें प्रकृति द्वारा बड़ी ही उदारता से बिखेरी इस गणितीय संरचना को उजागर करना है।
अब हाइजेनबर्ग के सामने सब कुछ साफ हो गया। परमाणविक घटनाओं के नीचे छिपी इस गणितीय संरचना में परमाणु में इलेक्ट्रॉन की स्थिति, वेग, संवेग आदि साधारण संख्याओं के रूप में उपस्थित नहीं रहते। इसके लिये उनके अनुसार पंक्ति (row) और कॉलम (column) में जमे संख्याओं के टेबिल की जरूरत होगी। इसमें प्रमुख अंतर इस बात को लेकर है कि जहाँ संख्याओं के गुणा में क्रम बदलने से गुणनफल नहीं बदलता वहीं टेबिलों के गुणा में ऐसा जरूरी नहीं होता। जब हाइजेनबर्ग ने अपने काम के बारे में बॉर्न को बताया तो उन्हें याद आया कि ऐसा ‘मेट्रिक्स’ के गुणनफल के दौरान होता है। अपने विद्यार्थी जीवन में बॉर्न का इससे परिचय हुआ था। अतः यह टेबिल तथा उससे जुड़ी विशिष्टता वाली बात गणितीय दुनिया में पहले से ही ज्ञात होने के कारण अब हाइजेनबर्ग के गणित के लिये कार्यकारी नियमों को खोजने की आवश्यकता नहीं थी।
हाइजेनबर्ग ने गॉटिंगन लौटने के बाद मैक्स बॉर्न, पॉस्कल जॉर्डन के साथ मात्र 6 महिनों में ही क्वांटम मेकेनिक्स का पहला संस्करण मैट्रिक्स मेकेनिक्स के रूप में गढ़कर दुनिया के सामने रख दिया। हाइजेनबर्ग ने जिस क्वांटम मेकेनिक्स का विकास किया था उसमें बाहर से क्वांटम संख्याओं को ठूंसने की जरूरत नहीं थी। वे तो अपने आप समस्या के अनुसार से प्रकट होते थे। उनके इस कार्य ने सबको हैरत में डाल दिया। और, उन वैज्ञानिकों को तो मुश्किल में ही डाल दिया जिनकी जड़ें चिर-सम्मत भौतिकी में थी और वे अपने चिर-परिचित अंदाज में क्वांटम सिद्धांत को विकसित करने में लगे थे। इस तरह बड़े ही मौलिक अंदाज में उन्होंने क्वांटम समस्याओं को हल करने के लिये एक सर्वथा नई यांत्रिकी का विकास कर दिया।
हालांकि हाइजेनबर्ग की क्वांटम मेकेनिक्स को किसी साधारण आदमी तो ठीक, वैज्ञानिकों के लिये भी समझना आसान नहीं है। लोगों की नजर में यह आईंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से भी कठिन प्रतीत होता है क्योंकि उनकी यांत्रिकी का आधार और विकास की किसी तरह से भी चित्रात्मक अभिव्यक्ति में नहीं हो सकती। उनकी यांत्रिकी में मात्र शब्द और चिन्ह हैं तथा उनकी भाषा विशुद्ध गणितीय है। और यह बात सर्वविदित है कि सामान्य आदमी के लिये बिना चित्र की सहायता के किसी सिद्धांत को समझना आसान नहीं होता। हाइजेनबर्ग का विश्व-भौतिकी के क्षितीज पर उदय हो चुका था और वे रातों रात एक सैलिब्रेटी कर चुके थे। इस समय वे मात्र 24 वर्ष के थे।
बुलंद होंसलों से उड़ने वालों को भला कौन रोक सका है? अपनी इस सफलता के बाद मई 1926 में उन्हें कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में सैद्वांतिक भौतिकी में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति मिली। इस कारण अब उन्हें नील्स बोहर का सतत सानिध्य मिलने लगा। यहाँ के बोहर द्वारा सृजित अकादमिक वातावरण में उनके मस्तिष्क में बहुत कुछ नया और नया ही आ रहा था। प्रकृति को देखने और समझने के लिये उनका अपना एक विशिष्ट नजरिया था। वे अपने तरीके से क्वांटम दुनिया को जानने और समझने को बेताब थे।
हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत

कोपनहेगन में एक दिन हाइजेनबर्ग को स्पष्ट महसूस हुआ कि भौतिक ज्ञान को जानने की हमारी अपनी सीमा है। इलेक्ट्रॉन की स्थिति को जानने के लिये हम अत्यधिक आवृत्ति के फोटॉन का इस्तेमाल करना पड़ता है जो देखे जाने वाले इलेक्ट्रॉन को प्रभावित करता है। इससे भले ही हमें उसकी स्थिति का पता चल जाये लेकिन उसका संवेग को सही-सही नहीं जाना जा सकेगा। प्रभाव को कम करने के लिये कम ऊर्जा वाले फोटॉन से संवेग को सही-सही भले ही जाना जा सके लेकिन अब स्थिति के बारे में निश्चिततापूर्वक जान पाना संभव नहीं होता है। इस तरह एक विचित्र स्थिति का निर्माण हो जाता है। हाइजेनबर्ग ने सोचा कि भले ही यह हमारी दुनिया में न हो लेकिन कम से कम परमाणविक दुनिया के बारे में तो निश्चित ही यह सही है। एक हद से नीचे हम वास्तविकता को जान ही नहीं सकते क्योंकि अवलोकन की प्रक्रिया देखी जाने वाली वास्तविकता को बदल देती है। अवलोकन के पूर्व हम नहीं कर सकते कि वास्तविकता क्या है। वास्तविकता का संबंध देखने की प्रक्रिया से है। इस अनुभूति ने हाइजेनबर्ग को परेशान कर दिया। आखिर उनके इस विचार से ब्रह्माण्ड के घड़ी की तरह चलने और वास्तविकता के बारे ने प्रचलित चिर-सम्मविचार बाहर होने जा रहा था।
चिर-सम्मत भौतिकी(classical physics) भौतिक राशियों के एक साथ त्रुटिहीन मापन की कोई सीमा नहीं मानती। लेकिन हाइजेनबर्ग के अनुसार यह सिर्फ एक राशि के लिये ही हो सकता है। उनके अनुसार एक गतिमान कण की स्थिति और संवेग को एक साथ ठीक-ठीक कभी नहीं जाना जा सकता है। अगर दोनों को एक साथ मापना है तो उनके मापन में अनिश्चितता का गुणनफल किसी भी हालत में एक निश्चित मान से कम नहीं हो सकता जिसका संबंध प्लांक के नियतांक से है। यह नियतांक प्लांक को तब मिला था जब वे कृष्णिका वस्तुओं के स्पेक्ट्रम की समस्या को हल करने के लिये एक सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे। अतः हाइजेनबर्ग के अनुसार इस दुनिया के बारे में जानने का गणित और संभाव्यता ही एक मात्र सहारा है।
अनिश्चितता सिद्धान्त (Uncertainty principle) की व्युत्पत्ति हाइजनबर्ग ने क्वाण्टम यान्त्रिकी के व्यापक नियमों से सन् 1927 ई। में दी थी। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी गतिमान कण की स्थिति और संवेग को एक साथ एकदम ठीक-ठीक नहीं मापा जा सकता। यदि एक राशि अधिक शुद्धता से मापी जाएगी तो दूसरी के मापन में उतनी ही अशुद्धता बढ़ जाएगी, चाहे इसे मापने में कितनी ही कुशलता क्यों न बरती जाए। इन राशियों की अशुद्धियों का गुणनफल प्लांक नियतांक (h) से कम नहीं हो सकता।
यदि किसी गतिमान कण के स्थिति निर्दशांक x के मापन में , की त्रुटि (या अनिश्चितता) और x-अक्ष की दिशा में उसके संवेग p के मापने में
, की त्रुटि हो तो इस सिद्धांत के अनुसार –
,
जहाँ, , h प्लांक नियतांक है।
इससे प्रकट होता है कि किसी कण का कोई निर्दशांक और उसके संवेग का तत्संगन संघटक दोनों एक साथ यथार्थतापूर्वक नहीं जाने जा सकते और यदि इन दोनों संयुग्मी राशियों में से एक की अनिश्चितता बहुत कम हो तो दूसरी की बहुत अधिक होती है।
हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत विज्ञान और गणित की उन समस्याओं में से एक है जो अज्ञेय हैं। क्वांटम भौतिकी का यह सिद्धांत कहता है कि हम किसी पार्टिकल की स्थिति और उसकी गति/दिशा को एक साथ नहीं जान सकते।
इसके बारे में सोचने पर बहुत मानसिक उथलपुथल होती है। इसने ब्रह्माण्ड को देखने और समझने के हमारे नज़रिए में बड़ा फेरबदल कर दिया। अभी भी हमारे स्कूलों में परमाणु की संरचना को सौरमंडल जैसी व्यवस्था के रूप में दिखाया जाता है जिसमें केंद्र में नाभिक में प्रोटोन और न्यूट्रौन रहते हैं और बाहर इलेक्ट्रौन उपग्रहों की भांति उनकी परिक्रमा करते हैं। लेकिन परमाणु का ऐसा चित्रण भ्रामक है। नील्स बोर के ज़माने तक सभी लोग परमाणु के ऐसे ही भ्रामक चित्रण को सही मानते थे लेकिन वर्नर हाइजेनबर्ग ने अपने अनिश्चितता के सिद्धांत से इसमें भारी उलटफेर कर दिया।
क्वांटम मेकेनिक्स
अनिश्चितता के सिद्धांत को पचाने में वैज्ञानिकों को आरंभ में दिक्कत आ रही थी। अतः बड़े ही संघर्ष के बाद बोहर ने पूरकता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। और, कहा कि क्वांटम दुनिया में दोहरी प्रकृति काम करती है। लेकिन एक समय में हमें इसकी एक ही प्रकृति के बारे में सही सही जानकारी मिल सकती है।
दोनों सिद्धांत को एक साथ रखने पर क्वांटम मेकेनिक्स की जो व्याख्या उभर कर आती है, उसे कोपेनहेगन व्याख्या के नाम से जाना जाता है। और इसे ही क्वांटम सिद्धांत के आधार के रूप में मान्य किया गया है। इसके निहितार्थ बड़े ही चौंकाने वाले रहे। इस गणित में इलेक्ट्रॉन और परमाणु वास्तविक वस्तु नहीं हैं जिन्हें हम अपनी इंद्रियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से खोज सकते हैं। नये गणित में घटना प्रमुख है, न कि वस्तु। ऊर्जा ज्यादा महत्वपूर्ण है न कि पदार्थ। अब तक के हमारे सारे परमाणु के मॉडल और चित्र हमें भ्रम में डालने लगे। क्रिकेट की बॉल की तरह इलेक्ट्रॉन के बारे में सोचा नहीं जा सकता। बावजूद इस गणितीय चित्रण के हम भरोसे के साथ कहते हैं कि दुनिया इन्हीं परमाणुओं से बनी है। इसने निर्वात की नई परिभाषा दी कि निर्वात वास्तव में आकाश वास्तव में कभी खाली नहीं रहता। निर्वात वास्तव में निर्वात नहीं होता वहाँ क्वांटम प्रक्रियाएं निरंतर चलती रहने के का वर्चुअल पार्टिकल-एण्टी-पार्टिकल भरे रहते हैं लेकिन वे प्रकट और लुप्त होते रहते हैं।

इस तरह हाइजेनबर्ग के ऊर्वरक मस्तिष्क में ऐसा कुछ चला जिसने प्रकृति के जिस गूढ़ रहस्य को उजागर किया उसने भौतिकी की नींव को ही हिला दिया। हालांकि इस यथार्थ को जानने के बाद भी वे अचंभित थे और सोचते थे कि क्या प्रकृति सच में इतनी बेतुकी (absurd) हो सकती है?
हाइजेनबर्ग का यह कार्य आईंस्टीन के कार्यों के बाद भौतिकी में एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लेकर आया। नई भौतिकी ने न सिर्फ चिर-सम्मत भौतिकी(classical physics) को बदलने के लिये मजबूर किया वरन् इसने विज्ञान की कई अन्य शाखाओं समेत आर्ट और दर्शन को भी अपने प्रभाव में लिया।
बोहर के साथ कोपनहेगन अत्यंत सृजनात्मक समय में बिताने के पश्चात् सन् 1927 में वे लिपझीग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गये। उस समय उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी। उनके समय में लिपझीग में फेलिक्स ब्लॉच, फ्रेड्रिक हुण्ड, जॉन सी. स्लेटर एडवर्ड टेलर आदि जैसे कई प्रतिभाशाली शोध छात्र थे, जिन्होंने आगे चलकर भौतिकी के विकास में अपना अतुलनीय योगदान दिया। यहां रहते हुए सबसे पहले हाइजेनबर्ग ने अपने मित्र पॉली द्वारा प्रतिपादित अपवर्जन नियम(Pauli Exclusion Principle ) (इसके अनुसार किसी भी एक क्वांटम कक्षा में एक से अधिक इलेक्ट्रॉन नहीं रह सकता) का अनुप्रयोग करते हुए पदार्थों में फैरोमेग्नेटिक गुणों के उदय होने की गुत्थी सुलझाई। इसके बाद यहां बीतने वाला प्रत्येक क्षण उनके लिये बहुत उर्वरक साबित हो रहा था।
प्रतिपदार्थ(Anti Matter)

1925 में पी.ए.एम. डिरॉक को कैम्ब्रिज में हाइजेनबर्ग को सुनने का अवसर मिला। वे इंजीनियरिंग से आये थे। अतः हाइजेनबर्ग के व्याख्यान के लिये भौतिकी के लिये सर्वथा नये, अनुभवहीन और अनजाने थे। लेकिन अप्लाइड गणित में रुचि के कारण उनके ध्यान में हाइजेनबर्ग की एक बात जहाँ संख्याओं के गुणा में क्रम बदलने से गुणनफल नहीं बदलता वहीं टेबिलों के गुणा में ऐसा जरूरी नहीं होता’ आई। अब उनकी रुचि भौतिकी में जागी और वे क्वांटम दुनिया में प्रवेश के लिये नये तरीकों से सोचने लगेे। इसके पूर्व सन् 1925 में श्रोडिंगर ने डिब्रॉगली के पदार्थ तरंग को ध्यान में रखकर एक समीकरण प्रस्तुत किया था जिसे वेव-मेकेनिक्स के नाम से जाना गया, जो हाइजेनबर्ग की मैट्रिक्स मेकेनिक्स के तुल्य ही निकली। सन् 1928 में डिरॉक ने चिर-सम्मत भौतिकी की तर्ज पर ‘ऑपरेटर एलजेब्रा’ विकसित कर क्वांटम मेकेनिक्स की आधारशिला रखी। इसके बाद इलेक्ट्रॉन के अध्ययन के लिये उन्होंने सापेक्षीय तरंग-समीकरण प्रस्तुत किया जिससे इलेक्ट्रॉन के चक्रण संबंधी गुण के सापेक्षीय प्रभाव के रूप में प्रकट होने की जानकारी मिली। इसी सिद्धांत में से धनात्मक इलेक्ट्रॉन के अस्तित्त्व में होने की बात भी सामने आई, जिससे प्रकृति में प्रति पदार्थ की अवधारणा आई। इसे धनात्मक इलेक्ट्रॉन को पॉजीट्रॉन कहा गया।
सन् 1932 में ‘पॉजीट्रॉन’ नामक उपर्युक्त कण को ‘कॉस्मिक किरणों’ के अध्ययन के दौरान ‘क्लाउड चैम्बर’ में खोजा गया। 1933 में हाइजेनबर्ग ने पॉजीट्रॉन का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत में तथा 1934 तथा 1936 के अपने आगे के शोध पत्रों में उन्होंने डिरॉक के समीकरण की क्वांटाइजेशन की शर्तों का पालन करने वाली इलेक्ट्रॉन के समान व्यवहार करने वाले ‘स्पिन-हाफ’ कणों के लिये चिर-सम्मत फिल्ड इक्वेशन के रूप में पुनः व्याख्या की। इससे यह ‘क्वांटम फील्ड इक्वेशन’ बन गई, जो इलेक्ट्रॉन को एकदम सही तरीके से अभिव्यक्त करती है। ऐसा करके हाइजेनबर्ग ने पदार्थ को विद्युतचुम्बकत्व के साथ खड़ाकर दिया। अब, पदार्थ और विद्युतचुम्बकत्व, दोनों ही रिलेटिविस्टिक क्वांटम फील्ड समीकरण से अभिव्यक्त किये जा सकते हैं। इससे आईंस्टीन के ऊर्जा-द्रव्यमान समीकरण का निहितार्थ स्पष्ट होकर क्वांटम यांत्रिकी का हिस्सा बन गया। अब पार्टिकल के सृजन और विनाश यानि कणों के विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा बनने और विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा के कणों में रूपांतरित होने की संभावना को जानने के लिये यांत्रिकी सामने आ गई।
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ। सन् 1938 में ऑटो हान और स्ट्रॉसमन (Otto Hahn and Fritz Strassmann ) के द्वारा नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जर्मनी ने परमाणु बम बनाने के लिये यूरेनियम क्लब गठित किया इसमें हाइजेनबर्ग नैतृत्व करने वाले वैज्ञानिकों में प्रमुख थे। 1942 में जब उन्होंने 1945 के पहले बम बन सकने की संभावना से इंकार किया, तब वे इससे अलग कर दिये गये।
सन् 1941 में वे लिपझीग से बर्लिन विश्वविश्वविद्यालय चले गये और वहीं ‘कैसर विल्हेम इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स’ के निदेशक बन गये।
अब उन्होंने अपना ध्यान पुनः भौतिकी की ओर लगाया तथा मूल कणों के व्यवहार और प्रक्रियाओं को समझने के लिये 1925 की ही तर्ज पर एस मैट्रिक्स सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसमें भी टक्कर की प्रक्रिया में प्रेक्षितों के रूप में आपतित और निर्गम कणों पर विचार किया गया। इसमें बीच की प्रक्रिया का कोई जिक्र नहीं है।
वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) ने अपने बारे में लिखा कि उन्होंने सोमरफेल्ड से सकारात्मकता और भौतिकी बोहर से सीखी। जहाँ तक गणित की बात है, वह उन्होंने गोटिंजन में रहते हुए सीखा।
सम्मान और पुरस्कार
- आर्डर आफ़ मेरीअ ओफ़ बेवेरिआ(Order of Merit of Bavaria)
- रोमानो गार्डीनी पुरस्कार(Romano Guardini Prize)
- ग्रेंड क्रास फ़ार फ़ेडरल सर्वीस विथ स्टार(Grand Cross for Federal Service with Star)
- नाईट आफ़ आर्डर आफ़ मेरीट (नागरी श्रेणी) Knight of the Order of Merit (Civil Class)
- चयनीत रायल सोसायटी के सदस्य(Elected a Foreign Member of the Royal Society (ForMemRS) in 1955)
- 1932– भौतिकी नोबेल पुरस्कार
- 1933–मैक्स प्लैंक मेडल
1 फरवरी 1976 को हाइजेनबर्ग ने दुनिया को अलविदा कहा।
स्रोत :
- मूल लेख : http://mpinfo.org/mpinfostatic/rojgar/2013/1811/other04.asp
- विकिपीडीया
bhagwan ke hone ya na hone me vigyan ki kya ray hai? mai aapke blog ko padhkar nastik ho gya hun. mujhe aapke uttar ka intejar rahega.
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विज्ञान प्रमाणो पर विश्वास करता है। विज्ञान के पास ईश्वर के अस्तित्व के कोई प्रमाण नही है।
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Yes aap sahi kah rahe hain
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ye achhi baat he jab tak aapko koi preman nhi mil jata tab taak aap nastik hi bane rhe
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Sir, the earth posses which power due to which it rotates it’s own axis. …this rule also followed by all the planets.
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पृथ्वी ने अपनी घूर्णन गति अपने निर्माण के समय से प्राप्त की है। पृथ्वी जिस घूमते हुये बादल से बनी है उसका कोणिय संवेग पृथ्वी को प्राप्त हुआ है।
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Sir, according to physical condition material are divided into three categories.then ‘ the flame of fire’ i.e. Agni ki Jawala Ko kis group me rakhenge
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आग की ज्वाला कोई अवस्था नही है। आग की ज्वाला वायुमंडल के कणो को उष्ण करती है जिसे आप लपट के रूप मे देखते है।
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सर हमारे solar system मे किस-किस ग्रह को उपग्रह है और कितने-कितने है।
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शुक्र बुध को छोड़कर सभी के उपग्रह है। पृथ्वी का एक, मंगल के दो, बृहस्पति के ६०+, शनि के 60+, नेपच्युन और युरेनस के एक दर्जन से अधिक। प्लुटो के पांच!
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सर हमारे solar system के ग्रह कभी तो एक lineआते होंगे अगर हा तो कभ-कभ।
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सार ग्रह एक ही प्रतल(Plane) मे नही है। वे कभी एक रेखा मे नही आ सकते।
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Reblogged this on oshriradhekrishnabole.
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सर हमे कैसे पता हुआ कि 365 दिन पुरे होने पर पृथ्वी का सूरज के around one revolution complete होता है।
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आप स्वयं देख सकते है। सूर्योदय या सूर्यास्त के समय देखिये कि सूर्य किस नक्षत्र मे उदय/अस्त हो रहा है। ठीक एक वर्ष बाद सूर्य उसी नक्षत्र मे उदय/अस्त होगा।
आकाश को तारों के समूह की स्तिथि के आधार पर २७ नक्षत्रो मे बांटा गया है। सूर्य हर दिन किसी एक नक्षत्र मे उदय/अस्त होते दिखता है। नक्षत्र हर दिन थोड़ा आगे खिसकता नजर आता है, वह नक्षत्र पूरे एक वर्ष बाद उसी स्थान पर नजर आयेगा।
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सर मुझे DNA के बारे मे जानकारी चाहिए।thanks for इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए।
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Sir, आप लेख की PDF बनाते जाओ। ताकि download कर सकू और offline पढ़कसू और मेरे दोस्तो को shear कर सकू।
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प्रशांत, PDF बना कर उसे आनलाईन उपलब्ध कराने मे समय लगता है लेकिन प्रयास करते है।
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Ok sir
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Sir, गति करते पिंड अपने साथ फोटोन को खींच कर समकालीनता का संरक्षण करते है। इस व्यवहार को गतिशील प्लाज्मा मे फोटान त्वरण से सिध्द भी किया जा चुका है। इस का मतलब क्या है ?
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हाईजेन्बर्ग जी का सादर सम्मान…
सर किसी परमाणु में इलेक्ट्रान की स्थिति पता न होने से कोई ज्यादा फर्क हमारी भौतिक क्रियाकलापों में तो पड़ेगा नहीं।
यह तो सिर्फ सूक्ष्म भौतिकी के लिये एक आवश्यक खोज है, है ना…
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सभी विद्युत/इलेक्ट्रानिक उपकरण इन्ही सिद्धांतो पर कार्य करते है।
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developing quantum computer based on this theory???…..agr ye sch h to future yhi h. { इस गणित में इलेक्ट्रॉन और परमाणु वास्तविक वस्तु नहीं हैं जिन्हें हम अपनी इंद्रियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से खोज सकते हैं। नये गणित में घटना प्रमुख है, न कि वस्तु। ऊर्जा ज्यादा महत्वपूर्ण है न कि पदार्थ }
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बहुत ही सुन्दर
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Sir I have made a formula on inertia. I have proven it both practically and mathematically. I want to see it. Help me make it public.
This is my blog address – arvinrajsun1999.blogspot.com
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अपने आस पास के किसी कालेज के प्रफ़ेसर से संपर्क किजिये।
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Very nice sir
Aap k articles mujhe bahut achhe lagte h kripaya quantum physics me research ke liye kuchh suggests kariye
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