परग्रही जीवन भाग 3 : क्या सिलीकान आधारित जीवन संभव है?


कार्बन के विकल्प के रूप मे सिलीकान का प्रस्ताव 1891 मे खगोलभौतिक वैज्ञानिक जुलियस स्कीनर(Julius Scheiner) ने रखा था। उनके इस तर्क के पीछे कारण था कि सिलिकान के बहुत से यौगिक उच्च तापमान पर भी स्थाई रहते है, इस अवधारणा के अनुसार पृथ्वी की तुलना मे उच्च तापमान वाले ग्रहों का जीवन सिलिकान आधारित होने की संभावना अधिक है। 1909 के आते तक सिलिकान को वैकल्पिक जीवन के लिये गंभीर उम्मीदवार माना जाने लगा इसलिये जब रसायनशास्त्री जे इ रेनाल्डस ने कहा कि सिलिकान जीवन शरीर मे कार्बन का स्थान ले सकता है,कोई भी चकित नही हुआ। इसके पश्चात सर हेराल्ड स्पेन्सर जोन्स ने कहा था कि कार्बन के अतिरिक्त जटिल अणुओं के निर्माण की क्षमता केवल सिलीकान के पास है। वर्तमान मे भी सिलीकान सबसे अधिक लोकप्रिय उम्मीदवार है और इसके समर्थको मे विलियम बेन्स, पिटर मोल्टन, स्टिफ़न बेनर तथा वी एक्सेल फ़िर्साफ़ जैसे नाम है।

सिलिकान का सबसे विशेष गुण आवर्त सारणी मे कार्बन के समूह से संबधित होना है, जिससे उसके पास भी कार्बन के जैसे ढेर सारे गुण है, जिनमे चार एकल बंधन(single bonds) बनाने की क्षमता का भी समावेश है। सिलिकान भी सिलीकान से स्व:तत्व(same element bonds) बंधन बना सकता है,यह क्षमता कार्बन की तुलना मे कम है लेकिन यह क्षमता सिलीकान मे भी है। सिलिकान भी कार्बन के जैसे श्रृंखला, शाखायुक्त श्रृंखला तथा वलय संरचना बना सकता है। सिलिकान मे उपलब्धता भी प्रचूर है, पृथ्वी की भूपर्पटी का 28% भाग सिलीकान है जोकि कार्बन से 1000 गुणा अधिक है। इसका अर्थ यह है कि कार्बन के विपरीत सिलिकान की उपलब्धता अन्य छोटे चट्टानी ग्रहो मे अधिक होगी।

सिलिकान यौगिको के तीन वर्ग

सिलिकान आक्सीजन से अत्याधिक प्रतिक्रिया करता है, इस आधार पर हम सिलिकान रसायनशास्त्र की चर्चा तीन मुख्य वर्ग के लिये करेंगे।

  1. सिलेन: सिलिकान के सिलेन यौगिक कार्बन के हायड्रोकार्बन यौगिको के तुल्य है, इनमे सिलिकान परमाणु अन्य सिलिकान परमाणुओं से सीधे बंधन मे होता है। इस वर्ग मे हम उन सभी अणुओं का समावेश करेंगे जिनमे अन्य तत्व सिलेन संरचना रूपी रीढ़ से जुड़ा हो। यह भूमिका कार्बनीक रसायन हायड्रोकार्बन समूह निभाता है। लेकिन इसमे एक शर्त है, इस समूह मे हमने उन अणुओं को शामिल नही किया है जिसमे सिलिकान परमाणु आक्सीजन से सीधा बंधन मे है क्योंकि इन अणुओं को हम अगले दो समूहों मे देखेंगे।
  2. सिलिकेट : एक सिलिकेट अणु इकाई ने सिलिकान परमाणु चार आक्सीजन परमाणु से जुड़ा होता है। ये सिलिकेट इकाईयाँ  अन्य समान सिलिकेट इकाईयों से आक्सीजन परमाणु को साझा करते हुये जुड़ी रहती है। इस लेख मे सिलिकेट या सिलिकान आक्साइड को हम ऐसे यौगिक के रूप मे लेकर चल रहे है जिसमे सिलिकान परमाणु प्राथमिक रूप से आक्सीजन परमाणु से बंधन मे है।
  3. सिलिकोन : सिलिकोन सिलेन तथा सिलिकेट के मध्य के अणु है। इस अणुओं की आधारभूत संरचना मे सिलिकान एक के बाद एक आक्सीजन परमाणु से जुड़ा होता है। सिलिकान परमाणु के बचे दो बंधन कार्बनिक अणुओं से जुड़े होते है।

हम इन तीनो समूहो को अलग अलग तरह से देखेंगे क्योंकि इन तीनो का व्यवहार एक दूसरे से भिन्न है। इस तरह से तीन तरह का सिलिकान आधारित जीवन हो सकता है, सिलेन-, सिलिकेट- तथा सिलिकोन- आधारित जीवन। क्या इन तीनो मे से कोई या तीनो जीवन के लिये आधार का निर्माण कर सकते है? यदि कर सकते है तो उनके लिये कैसी परिस्थितियों की आवश्यकता होगी। अब हम इन तीनो को एक के बाद एक देखेंगे।

जीवन के आधार के रूप मे : सिलेन

मिथेन और सिलेन की आण्विक संरचना
मिथेन और सिलेन की आण्विक संरचना

वैक्लपिक जैव-रसायन के लिये सिलेन सबसे स्वभाविक उम्मीदवार है क्योंकि वे पृथ्वी पर जीवन के आधार हायड्रोकार्बन के जैसे ही है। इसमे बड़े पालीमर अणुओं के निर्माण की सीमित क्षमता का भी समावेश है। जटिल, विशाल जैव-अणुओं का निर्माण सबसे महत्वपूर्ण गुण है, और कार्बन अकेला अन्य परमाणु है जो इस क्षमता को रखता है। सिलिकान कार्बन से बहुत सी समानता रखता है लेकिन सिलेन कार्बन के जैसे जटिल अणुओं के निर्माण करने की क्षमता नही रखता है। इसके कारण नीचे दिये है।

  • कमजोर सिलिकान-सिलिकान बंधन : सिलिकान-सिलिकान का एकल बंधन कार्बन-कार्बन बंधन से 20 प्रतिशत कमजोर है। सारणी देखें। इस कारण से सिलेन हायड्रोकार्बन की तुलना मे कम स्थाईत्व रखते है।
  • मजबूत एकाधिक बंधन की कमी। सिलिकान अत्यंत दुर्लभ परिस्थितियों मे ही एकाधिक बंधन का निर्माण करता है, जिससे वह कार्बन की तुलना मे संभव यौगिकों की संख्या तथा भिन्नता मे पिछड़ जाता है।
  • कार्बन से अधिक रासायनिक सक्रियता: सिलिकान के यौगिक कार्बनिक पदार्थो की तुलना मे अधिक रासायनिक सक्रिय होते है। उदाहरण के लिये मिथेन(CH4) वायु मे निष्क्रिय है और केवल चिंगारी या ज्वाला की उपस्थिति मे ही आक्सीजन से प्रतिक्रिया करती है। जबकि सिलिकान का तुल्य सिलेन यौगिक SiH4 वायु मे स्वत: ही आक्सीजन से प्रतिक्रिया करता है। सिलिकान की यह अधिक सक्रियता सूचना का भंडारण करने वाले अणुओं के लिये विनाशकारी होगी। सिलेन की यह कमी अत्याधिक कम तापमान पर दूर हो सकती है जिसे हम आगे देखेंगे।
  • आक्सीजन से अतिसंवेदनशीलता : सिलिकान आक्सीजन के प्रति अतिसंवेदनशील है क्योंकि वह आक्सीजन से काफ़ी मजबूत बंधन का निर्माण करता है। इसका अर्थ है कि ऐसे अणु जिनमे सिलिकान-सिलीकान बंधन है वायु मे आक्सीजन की उपस्थिति मे स्थाई नही रह पायेंगे। इसका अर्थ है कि सिलिकान आधारित जीवन आक्सीजन मुक्त वातावरण (Aoxic) मे ही पनप पायेगा।
  • जल तथा अमोनिया से असंगतता : सिलेन सामान्यत: जल और अमोनिया दोनो से प्रतिक्रिया करता है। ऐसा इसलिये है कि सिलिकान जल मे मौजूद आक्सीजन तथा अमोनिया मे मौजूद नाइट्रोजन दोनो से सिलिकान की तुलना मजबूत बंधन बनाता है। इसका अर्थ यह भी है कि सिलिकान जैवरसायनो को ऐसा वातावरण चाहिये होगा जिसमे जल तथा अमोनिया दोनो द्रव रूप मे अनुपस्थित या दुर्लभ हो। अत्याधिक शीतल या अत्याधिक उष्ण वातावरण मे ही द्रव जल और द्रव अमोनिया की उपस्थिति नही होगी। लेकिन इन परिस्थितियों मे हमे इन दोनो के वैकल्पिक द्रव जीवन विलायक की आवश्यकता होगी।
  • सिलिकान – हायड्रोजन बंधन अधिक स्थाई नही है। सिलेन के लिये सिलिकान-हायड्रोजन बंधन एक बड़ी समस्या है। प्रथम, ये बंधन अत्यंत क्रियाशील है तथा जल या आक्सीजन वाले यौगिक से प्रतिक्रिया करेंगे। द्वितिय, इन बंधनो की उपस्थिति पूरे अणु को अस्थिर कर देती है। उदाहरण के लिये सरल सिलेन जिसमे केवल सिलिकान और हायड्रोजन है, छः लगातार सिलिकान परमाणुओं के बाद ही अस्थिर हो जाता है। जबकि हायड्रोकार्बन के लिये ऐसी कोई भी सीमा ज्ञात नही है। इसके पीछे कारण यह है कि सिलिकान हायड्रोजन से विद्युत रूप से हल्का सा कम ऋणात्मक है। इस कारण सिलिकान से बंधा हायड्रोजन परमाणु के पास आंशिक ऋणात्मक हो जाता है जिससे वह अत्यंत क्रियाशील बन जाता है। ऐसे अणु जिसमे एक सिलिकान परमाणु केवल एक हायड्रोजन परमाणु से बंधा हो आंशिक स्थिर लेकिन अत्यंत क्रियाशील होता है, इसमे दूसरा, तीसरा हायड्रोजन परमाणु उन्हे और अस्थिर करते जाता है। इससे किसी अणु मे अधिकतम हायड्रोजन परमाणुओं की संख्या की सीमा निर्धारित हो जाती है। इस कमी के कारण सिलिकान द्वारा निर्माण किये जा सकने वाली आधारभूत संरचना की संख्या पर भी सीमा निर्धारित हो जाती है।

लंबी श्रृंखला रूपी संरचना पर सीमा हम पहले भी चर्चा कर चूके है कि जैव रसायन के लिये सबसे मूलभूत आवश्यकता लंबी जटिल श्रृंखला रूपी संरचना का निर्माण अत्यावश्यक है। सिलिकान कार्बन के अलावा अकेला तत्व है जो ध्यान देने योग्य लंबी श्रृंखला रूपी संरचना बना सकता है। इस विषय के लिये अब हम सिलेन को दो समूह मे विभाजीत कर चर्चा करेंगे। पहले समूह मे सरल (नान-पालीमर) सिलेन का समावेश है। रसायन शास्त्रीयों ने इस तरह के बहुत से अणुओं का निर्माण किया है लेकिन सबसे बड़ा उदाहरण केवल लगातार 26 सिलिकान परमाणु का है। दूसरा समूह पालीसिलेन है जो सरल सिलेन से बना पालीमर है। इसके अणुओं की लंबाई लगातार 40,000 सिलिकान परमाणु तक हो सकती है। पालीसिलेन की बहुत सी कमियाँ है, सर्वप्रथम इनमे कुछ ही सरल कार्बनिक संरचना जुड़ सकती है क्योंकि ये इन कार्बनिक संरचनाओं से अधिक प्रतिक्रिया नही कर पाते। दूसरी और बड़ी कमी है कि ये सभी पालीमर एक जैसे ही होते है जिसमे हर सिलिकान अणु के बाजू मे एक ही जैसी कार्बनिक हो सकती है, जबकि जैविक रूप से सक्रिय पालीमर (डी एन ए, प्रोटिन) के लिये बहुत से तथा पुनरावर्ती ना होने वाली संरचनायें चाहिये होती है। सारांश मे सरल सिलेन मे रासायनिक भिन्नता होती है लेकिन आकार छोटा होता है, जबकि पालीसिलेन लंबी श्रृंखला रूपी संरचना बना सकते है लेकिन उनमे जैविक रसायन के लिये आवश्यक विभिन्नता नही होती है।

इन सभी कमियों के कारण सिलेन रसायन कम तापमान तथा हायड्रोजन की अधिकता लेकिन आक्सीजन की कमी वाले वातावरण मे पनप सकते है। इसका एक अपवाद है, अत्याधिक शीतल परिस्तिथियाँ, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

तत्व कार्बन के साथ एकल बंधन ऊर्जा (kJ/mol)

सिलिकान के साथ एकल बंधन ऊर्जा (kJ/mol)

हायड्रोजन

410 380

आक्सीजन

360

515

नाइट्रोजन 310

400

कार्बन

400 375
सिलिकान 375  320

जीवन के आधार के लिये सिलिकेट

काल्पनिक सिलिकेट आधारित जीव
काल्पनिक सिलिकेट आधारित जीव

सिलिकान रसायन के लिये कमजोर सिलिकान-सिलिकान बंधन सबसे बड़ी कमी है लेकिन मजबूत सिलिकान-आक्सीजन बंधन सबसे बड़ी क्षमता है। सिलिकान-आक्सीजन बंधन सिलिकान-सिलिकान बंधन से 60% अधिक मजबूत है तथा यह कार्बन-कार्बन एकल बंधन से भी मजबूत है। यह सिलिकेट संरचनाओं को बहुत मजबूत और टिकाउ बनाता है। पृथ्वी तथा अन्य चट्टानी ग्रहों पर सिलिकेट की प्रचूरता है। पृथ्वी की भूपर्पटी का 90% भाग सिलिकेट से बना है जिसमे सिलिकान,आक्सीजन और अन्य तत्व होते है। सिलिकेट रसायनिक रूप से अत्यंत टिकाउ होता है, सिलेन के विपरित वे आक्सीजन, जल या अमोनिया से अधिक प्रतिक्रिया नही करते है। उष्मा मे भी वे स्थिर रहते है और इन पर अत्याधिक तापमान का कोई प्रभाव नही पड़ता है, उदाहरण के लिये सिलिकेट को पिघलाने के लिये 1000°C से अधिक तापमान चाहिये। कुछ अपवाद स्वरूप 500 °C पर पिघलते है। इस आधार पर अवधारणा के रूप मे सिलिकान आधारित जीवन केप्लर 78b जैसे ग्रहों पर हो सकता है जोकि अपने मातृ तारे के एक्दम समीप परिक्रमा करते है और उनकी सतह पिघले लावे के जैसे होगी। ऐसा जीवन पृथ्वी पर भूपर्पटी के नीचे मैग्मा के पास भी पनप सकता है।
सिलिकेट मे सिलेन की बहुत सी कमियां नही है लेकिन जब जैव रसायन की बात आती है तब इनकी भी कुछ गंभीर सीमायें है।

  • सिलिकेट पालीमर की बजाये क्रिस्टल संरचना बनाते है। अधिकतर सिलिकेट चट्टानो मे पाये जाते है जोकि पृथ्वी पर भूपर्पटी बनाते है। उदाहरण के लिये सबसे सरल सिलिकेट सिलिकान डाय आक्साईड(SiO2) है जो साधारण रेत के रूप मे होती है। ऐसी क्रिस्टल संरचनायें जटिल जैविक अणुओं के निर्माण के लिये उपयोगी नही होती है।
  • रासायनिक रूप से स्थिरता वास्तविकता मे विशेषता की बजाये कमी : जैवरसायन के लिये रासायनिक रूप से स्थिरता आवश्यक है लेकिन अधिक स्थिरता उन्हे रासायनिक निष्क्रिय बना देती है। सिलिकान आक्साईड इतना स्थिर है कि उससे जैविक रूप से आवश्यक रासायनिक क्रियाये लगभग असंभव है। सिलिकान आक्साईड जीवन के आधार के रूप मे सबसे कमजोर विकल्प है।
  • वातावरण मे सिलिकान की उपलब्धता : सिलिकान पृथ्वी मे प्रचूर मात्रा मे उपलब्ध है लेकिन वह सिलिकेट चट्टानो के रूप मे है। सिलिकेट आधारित खनिज अत्याधिक स्थिर होते है; इतने स्थिर कि एक बार बनने के बाद वे लंबे अरसे तक वैसे ही रहते है। ये खनिज सामान्यत: निष्क्रिय होते है और जल मे घुलते नही है। कार्बन डाय आक्साईड सिलिकान डाय आक्साईड के विपरित गैस है और जल मे विलेय है। सिलिकान की उपलब्धता कार्बन की तुलना मे बहुत अधिक है लेकिन जैविक प्रक्रियाओं के लिये जल मे या थल मे आसानी से उपलब्ध नही है।
  • उत्सर्जन मे कठिनाई : सिलिकान आधारित जैविक चयापचय प्रक्रियाओं मे सिलिकान डाय आक्साईड का निर्माण होगा, यह कार्बन आधारित जैविक प्रक्रियाओं मे कार्बन डाय आक्साईड के निर्माण के जैसा है। लेकिन सिलिकान डाय आक्साईड ठोस क्रिस्टल है जिसका सिलिकान आधारित जीव के शरीर से उत्सर्जन कठिन होगा। हम इस उत्सर्जन की प्रक्रिया के बारे मे सही अनुमान नही लगा सकते है लेकिन यह प्रक्रिया कार्बन डाय आक्साईड गैसे के उत्सर्जन से जटिल और कठिन अवश्य होगी।
  • अत्याधिक तेज रासायनिक प्रतिक्रियायें : उच्च तापमान पर रासायनिक प्रतिक्रियायें तेज गति से घटित होती है। सिलिकेट रसायन के लिये अत्याधिक उच्च तापमान(1000 °C से अधिक) चाहिये, इस तापमान पर सभी गंभीर जैव प्रक्रियाये इतनी अधिक तेज होंगी कि जैविक अंगो को उन्हे नियंत्रण मे रखना कठिन होगा।
  • उचित विलायक की अनुपलब्धता : जीवन के लिये एक ऐसा विलायक चाहिये जिसमे मुख्य जैवरासायनिक प्रक्रियाओ हो सकें। इतने अधिक उच्च तापमान पर किसी पदार्थ का द्रव रूप मे मिलना अत्याधिक कठिन है जो जैव रासायनिक प्रक्रियाओं को सहायता दे सके।

यह स्पष्ट है कि सिलिकेट रसायन जटिल जीवन के लिये एक कमजोर उम्मीदवार है। लेकिन यदि सिलिकेट आधारित जीवन उपस्थित है तो वह सिलिकेट की प्रचूर उपस्थिति वाले छॊटे ग्रहों पर अत्याधिक उच्च तापमान पर होगा। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस तरह का वातावरण पृथ्वी मे ही भूपर्पटी के नीचे पिघले मैगमा के पास उपलब्ध है। हमारे पास इस बात के कोई प्र्माण नही है कि इस प्रकार का कोई जीवन पृथ्वी पर उपस्थित था। यदि पृथ्वी के जैसी परिस्थितियों मे भी सिलिकेट आधारित जीवन उत्पन्न नही हुआ है तो अनयंत्र होने की संभावना नगण्य है।

जीवन के आधार के रूप मे सिलिकोन

सिलिकोन आधारित काल्पनिक जीवन
सिलिकोन आधारित काल्पनिक जीवन

सिलिकोन सिलिकान आधारित जीवन के सबसे हटकर विकल्प के रूप मे है। सिलिकोन आधारित जीवन के मूल अणु मे सिलिकान और आक्सीजन की एक के बाद एक परमाणुओं की एक शृंखला होगी जोकि सिलिकान-आक्सीजन बंधन की मजबूती और स्थिरता का लाभ उठायेगी। हर सिलिकान परमाणु के शेष दो बंधन कार्बनीक समूह से जुड़े होंगे। सिलिकान-आक्सीजन अणुओं की श्रृंखला से जुड़े कार्बनीक समूह पालीमर के गुणधर्मो को निर्धारित करेंगे। सिलिकोन सिलिकान और कार्बन दोनो के विशेष गुणो का लाभ उठायेगा, जिसमे सिलिकेट जैसी मजबूती तथा हायड्रोकार्बन जैसा लचीलापन होगा।

सिलिकोन प्रकृति मे पाये नही जाते है, इनका अध्ययन फ़्रेडेरिक किप्पींग ने 1901 मे किया था। उसके पश्चात भिन्न सिलिकोन पदार्थो का अध्ययन किया जा चुका है। इनका उद्योग जगत मे बहुत उपयोग होता है क्योंकि इनके गुणधर्म बहुत उपयोगी है जैसे कम विषाक्ता, उच्च ताप पर स्थाईत्व, परबैंगनी किरणो का प्रतिरोध, वातावरण की आक्सीजन से प्रतिरोध तथा पानी से सुरक्षितता। इनके प्रयोगो मे उच्च ताप वाले स्नेहक. जलरोधक, विद्युत इंसुलेटर तथा खाना बनाने के उपकरण है। अधिकतर सिलिकोन का प्र्योग उच्च तापमान वाले उपकरणो मे होता है जैसे 260 °C तापमान वाले उपकरण।

सिलिकोन आधारित जीवन के पीछे सबसे बड़ा कारण उनके द्वारा जटिल तथा लंबे पालीमर के निर्माण की क्षमता है। इस क्षमता के द्वारा ऐसे स्थाई और जटिल अणुओं के निर्माण की संभावना है जिसमे जिनेटीक सूचना संग्रहीत की जा सके या वह डीएनए, आर एन ए जैसे अणुओं के समकक्ष अणु का निर्माण कर सके। दूसरी महत्वपूर्ण क्षमता अधिक उच्च तापमान पर स्थाईत्व है। इन गुणो से यह अवधारणा मजबूत होती है कि सिलिकोन आधारित जीवन ऐसी उष्ण परिस्तिथियों मे भी पनप सकता है जिसमे कार्बन आधारित जीवन संभव नही है।

सिलिकोन आधारित जीवन से कुछ उम्मीदे जगती है लेकिन इसके सामने चार महत्वपूर्ण चुनौतियाँ भी है। सिलिकोन पदार्थ 400 °C पर टूटना शुरु हो जाते है जोकि कार्बन रसायनो के 200 °C से थोड़ा ही अधिक है। इसलिये सिलिकोन पदार्थो की कार्बन आधारित पदार्थो पर अधिक तापमान पर स्थाईत्व की क्षमता का अधिक लाभ नही दिखता है। पृथ्वी के वातावरण मे सिलिकोन प्राकृतिक रूप से पाये नही जाते है, वे मानव निर्मित है। इससे इसके प्राकृतिक रूप से निर्मित होकर किसी ग्रह या उसके चंद्रमा पर जीवनारंभ के लिये मूलभूत अणुओं के निर्माण होने की संभावना कम हो जाती है। सिलिकोन अणुओं मे कार्बन समूह आवश्यक तथा महत्वपूर्ण होता है लेकिन कार्बन समूह सिलिकान की बजाये अन्य कार्बन समूहों से जुड़ना पसंद कररे है क्योंकि वे तुलनात्मक रूप से अधिक स्थाई होते है। इस तरह की अप्रत्याशित प्रतिक्रिया सिलिकोन आधारित जीवन के लिये गंभीर चुनौती होंगी। सिलिकोन जलरोधी होते है, इसका अर्थ है कि जैविक प्रक्रियाओं के लिये विलायक के रूप मे जल का प्रयोग नही हो पायेगा। इससे बड़ी समस्या यह है कि अधिक तापमान (200-400 °C) जिसपर कार्बन पर सिलिकोन बेहतर होता है, कोई अन्य सार्वत्रिक विलायक उपलब्ध नही है।

अंतिम संभावना – अत्याधिक शीतल तापमान पर सिलेन आधारित जीवन

पृथ्वी जैसी उष्णता वाली परिस्थितियों पर कार्बन आधारित जीवन सिलीकान की तुलना मे बेहतर उम्मीदवार है। लेकिन शीतल परिस्तिथियों मे सिलेन आधारित जीवन की संभावना कार्बन आधारित जीवन से बेहतर है, विशेषत: ऐसे तापमान मे जहाँ नाइट्रोजन भी द्रव ((–196 °C)हो जाता है। ऐसी परिस्थितियाँ सौर मंडल के बाह्य ग्रह जैसे युरेनस और नेपच्युन पर मिलती है। इन विषम परिस्तिथियों मे दो चुनौतियाँ है, प्रथम अणुओं की विलायकता तापमान आधारित होती है, इसलिये अत्यंत शीतल स्तिथियों मे विलायक अत्यंत कम मात्रा मे अत्यंत सरल अणुओं को ही घोल पाते है। द्वितिय, रासायनिक प्रक्रिया की दर भी तापमान के अनुसार कम होते जाती है, इस तापमान पर पारंपरिक कार्बन आधारित भी प्रक्रियायें थम जाती है। यदि इस तापमान पर कार्बनिक प्रक्रिया नही हो सकती तो कोई अन्य प्रक्रिया भी संभव नही होगी।

सिलिकान के पास ऐसे कई गुण है जो इन विषम परिस्तिथियों मे उपयोगी हो सकते है। प्रथम , कुछ सिलेनाल (कार्बन के अल्कोहल के समरूप) अत्यंत कम तापमान पर भी अपनी विलेयता बनाये रखते है और संभव है कि वे संघनित होकर और भी जटिल अणुओं के निर्माण मे सक्षम हो। दूसरा महत्वपूर्ण गुण है कि सिलिकान की जो अधिक रासायनिक संवेदनशीलता जोकि पृथ्वी के तापमान मे एक अवरोध होती है वह शीतल तापमान पर भी जारी रहकर उपयोगी हो सकती है। एक बोनस के रूप मे इस तापमान पर जल और अमोनिया दोनो ठोस होते है और वे सिलीकान आधारित रासायनिक प्रक्रियाओं मे अवरोध बनने के लिये उपलब्ध नही होंगे। इस क्षेत्र मे अधिक शोध नही हुये हैं लेकिन ऐसी कई चुनौतियाँ है जिससे ऐसा लगता है कि अत्यंत कम तापमान पर भी सिलिकान आधारित जीवन की संभावना नगण्य ही है।

निष्कर्ष : सिलिकान आधारित जीवन की संभावनाये सीमीत है।

इस सबका निष्कर्ष क्या है ? सबसे पहले सिलिकान कार्बन के जैसे बहुगुणी नही है। उदाहरण के लिये रसायनज्ञ केवल 20,000 सिलिकान यौगिको को जानते है, जबकि कार्बन के एक करोड़ से अधिक यौगिक ज्ञात है साथ ही संभावित कार्बनिक यौगिको की संभावना सैद्धांतिक रूप से असिमित है। इस तरह से सिलिकान की कार्बन की तुलना मे यौगिक निर्माण क्षमता कम से कम 500 गुणा कम है। यह जैविक रसायन क्षेत्र मे एक बहुत बड़ी कमी है क्योंकि जैव रसायन मे एक बड़ी संख्या मे भिन्न भिन्न यौगिको की आवश्यकता होती है। इसके साथ सिलिकान यौगिको की अपनी कमियाँ भी है। सिलेन अत्याधिक क्रियाशील होने से स्थिर यौगिको का निर्माण नही कर पाता है, सिलिकेट लचीले पालीमर की बजाय क्रिस्टल संरचना का निर्माण करता है जबकि सिलिकोन प्राकृतिक रूप से निर्मित नही होता है। अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण कमी है कि सिलिकान कार्बन के जैसे लंबी श्रूंखला अणुओं का निर्माण नही कर पाता है जिसमे जिनेटीक सूचना का संरक्षण किया जा सके, यह किसी भी जीवन के लिये आवश्यक शर्त है। इस सब से यह प्र्माणित होता है कि सिलिकान जीवन के लिये आवश्यक सभी शर्तों को पूरा नही कर पाता है, एक कोशीय जीवन भी नही।

वर्तमान मे प्रमाण यही है कि सिलिकान की बहुत सी सीमायें और शर्ते है। कार्ल सागन जिन्होने “अंधकार्बनवाद” शब्द दिया था, माना था कि सिलिकान जीवन के लिये उपयुक्त शर्तो को पूरा नही कर पाता है। उन्होने सिलीकान को सूचना भंडारण के लिये आवश्यक लम्बी शृंखला वाले अणुओं के निर्माण की अक्षमता तथा सिलिकान डाय आक्साईड के उत्सर्जन की कठिनाई के चलते रद्द कर दिया था।

अब हम अगली संभावना बोरान आधारित जीवन की संभावना पर चर्चा करेंगे।

लेख शृंखला

परग्रही जीवन भाग 1 : क्या जीवन के लिये कार्बन और जल आवश्यक है ?

परग्रही जीवन भाग 4 :बोरान आधारित जीवन

7 विचार “परग्रही जीवन भाग 3 : क्या सिलीकान आधारित जीवन संभव है?&rdquo पर;

  1. जीवों के शरीर बहुत छोटी-छोटी काशिकाओं से बने हैं। सरलतम एक-कोशिकाई (unicellular) जीव को लें। कोशिका की रासायनिक संरचना हम जानते हैं। कोशिकाऍं प्रोटीन (protein) से बनी हैं और उनके अंदर नाभिक में नाभिकीय अम्ल (nuclear acid) है। ये प्रोटीन केवल २० प्रकार के एमिनो अम्ल (amino acids) की श्रृंखला-क्रमबद्धता से बनते हैं और इस प्रकार २० एमिनो अम्ल से तरह-तरह के प्रोटीन संयोजित होते हैं। अमेरिकी और रूसी वैज्ञानिकां ने प्रयोग से सिद्ध किया कि मीथेन (methane), अमोनिया (ammonia) और ऑक्सीजन (oxygen) को काँच के खोखले लट्टू के अंदर बंद कर विद्युत चिनगारी द्वारा एमिनो अम्ल का निर्माण किया जा सकता है। उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि अत्यंत प्राचीन काल में जीवविहीन पृथ्वी पर मीथेन, अमोनिया तथा ऑक्सीजन से भरे वातावरण में बादलों के बीच बिजली की गड़गड़ाहट से एमिनो अम्ल बने, जिनसे प्रोटीन योजित हुए।
    अपने प्राचीन ग्रंथों में सूर्य को जीवन का दाता कहा गया है। इसीसे प्रेरित होकर भारत में (जो जीवोत्पत्ति के शोधकार्य में सबसे आगे था) प्रयोग हुए कि जब पानी पर सूर्य का प्रकाश फॉरमैल्डिहाइड (formaldehyde) की उपस्थिति में पड़ता है तो एमिनो अम्ल बनते हैं। इसमें फॉरमैल्डिहाइड उत्प्रेरक (catalyst) का कार्य करती है। इसके लिए किसी विशेष प्रकार के वायुमंडल में विद्युतीय प्रक्षेपण की आवश्यकता नहीं।
    अब कोशिका का नाभिकीय अम्ल ? इमली के बीज से इमली का ही पेड़ उत्पन्न होगा, पशु का बच्चा वैसा ही पशु बनेगा, यह नाभिकीय अम्ल की माया है। यही नाभिकीय अम्ल जीन (gene) के नाभिक को बनाता है, जिससे शरीर एवं मस्तिष्क की रचना तथा वंशानुक्रम में प्राप्त होनेवाले गुण—सभी पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को प्राप्त होते हैं। जब प्रजनन के क्रम में एक कोशिका दो कोशिका में विभक्त होती है तो दोनो कोशिकायें जनक कोशिका की भाँति होंगी, यह नाभिकीय अम्ल के कारण है। पाँच प्रकार के नाभिकीय अम्ल को लेकर सीढ़ी की तरह अणु संरचना से जितने प्रकार के नाभिकीय अम्ल चाहें, बना सकते हैं। नाभिकीय अम्ल में अंतर्निहित गुण है कि वह उचित परिस्थिति में अपने को विभक्त कर दो समान गुणधर्मी स्वतंत्र अस्तित्व धारणा करता है। दूसरे यह कि किस प्रकार का प्रोटीन बने, यह भी नाभिकीय अम्ल निर्धारित करता है। एक से उसी प्रकार के अनेक जीव बनने के जादू का रहस्य इसी में है।
    क्या किसी दूरस्थ ग्रह के देवताओं ने, प्रबुद्ध जीवो ने ये पाँच नाभिकीय अम्ल के मूल यौगिक (compound) इस पृथ्वी पर बो दिए थे?
    एक कोशिका में लगभग नौ अरब (९x१०^९) परमाणु (atom) होते हैं। कैसे संभव हुआ कि इतने परमाणुओं ने एक साथ आकर एक जीवित कोशिका का निर्माण किया। विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोटीन या नाभिकीय अम्ल बनने के पश्चात भी यह प्रश्न शेष रहता है कि इन्होंने किस परिस्थिति में संयुक्त होकर जीवन संभव किया।
    भारत में डॉ॰ कृष्ण बहादुर ने प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया (photo-chemical process) द्वारा जीवाणु बनाए। फॉरमैल्डिहाइड की उत्प्रेरक उपस्थिति में सूर्य की किरणों से प्रोटीन तथा नाभिकीय अम्ल एक कोशिकीय जीवाणु मे संयोजित हुए। ये जीवाणु अपने लिए पोषक आहार अंदर लेकर, उसे पचाकर और कोशिका का भाग बनाकर बढ़ते हैं। जीव विज्ञान (biology) में इस प्रकार स्ववर्धन की क्रिया को हम उपापचय (metabolism) कहते हैं। ये जीवाणु अंदर से बढ़ते हैं, रसायनशाला में घोल के अंदर टँगे हुए सुंदर कांतिमय रवा (crystal) की भाँति बाहर से नहीं। जीवाणु बढ़कर एक से दो भी हो जाते हैं, अर्थात प्रजनन (reproduction) भी होता है। और ऐसे जीवाणु केवल कार्बन के ही नहीं, ताँबा, सिलिकन (silicon) आदि से भी निर्मित किए, जिनमें जीवन के उपर्युक्त गुण थे।
    कहते हैं कि जीव के अंदर एक चेतना होती है। वह चैतन्य क्या है? यदि अँगुली में सुई चुभी तो अँगुली तुरंत पीछे खिंचती है, बाह्य उद्दीपन के समक्ष झुकती है। मान लो कि एक संतुलित तंत्र है। उसमें एक बाहरी बाधा आई तो एक इच्छा, एक चाह उत्पन्न हुई कि बाधा दूर हो। निराकरण करने के लिए किसी सीमा तक उस संतुलित तंत्र में परिवर्तन (बदल) भी होता है। यदि यही चैतन्य है तो यह मनुष्य एवं जंतुओं में है ही। कुछ कहेंगे, वनस्पतियों, पेड़-पौधों में भी है। पर एक परमाणु की सोचें—उसमें हैं नाभिक के चारों ओर घूमते विद्युत कण। पास के किसी शक्ति-क्षेत्र (fore-field) की छाया के रूप में कोई बाह्य बाधा आने पर यह अणु अपने अंदर कुछ परिवर्तन लाता है और आंशिक रूप में ही क्यों न हो, कभी-कभी उसे निराकृत कर लेता है। बाहरी दबाव को किसी सीमा तक निष्प्रभ करने की इच्छा एवं क्षमता—आखिर यही तो चैतन्य है। यह चैतन्य सर्वव्यापी है। महर्षि अरविंद के शब्दों में, ‘चराचर के जीव (वनस्पति और जंतु) और जड़, सभी में निहित यही सर्वव्यापी चैतन्य (cosmic consciousness) है।‘
    पर जीवन जड़ता से भिन्न है, आज यह अंतर स्पष्ट दिखता है। सभी जीव उपापचय द्वारा अर्थात बाहर से योग्य आहार लेकर पचाते हुए शरीर का भाग बनाकर, स्ववर्धन करते तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जड़ वस्तुओं में इस प्रकार अंदर से बढ़ने की प्रक्रिया नहीं दिखती। फिर मोटे तौर पर सभी जीव अपनी तरह के अन्य जीव पैदा करते हैं। निरा एक- कोशिक सूक्ष्मदर्शीय जीव भी; जैसे अमीबा (amoeba) बढ़ने के बाद दो या अनेक अपने ही तरह के एक-कोशिक जीवों में बँट जाता है। कभी-कभी अनेक अवस्थाओं से गुजरकर जीव प्रौढ़ता को प्राप्त होते हैं और तभी प्रजनन से पुन: क्रम चलता है। किसी-न-किसी रूप में प्रजनन जीवन की वृत्ति है, मानो जीव-सृष्टि इसी के लिए हो। पर ये दोनों गुण जीवाणु में भी हैं। यदि यही वृत्तिमूलक परिभाषा (functional definition) जीवन की लें तो जीवाणु उसकी प्राथमिक कड़ी है।
    कोशिका में ये वृत्तियाँ क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर दर्शन, भौतिकी तथा रसायन के उस संधि-स्थल पर है जहां जीव विज्ञान प्रारंभ होता है। यहां सभी विज्ञान धुँधले होकर एक-दूसरे में मिलते हैं, मानों सब एकाकार हों। इसके लिये दो बुनियादी भारतीय अभिधारणाएँ हैं—(1) यह पदार्थ (matter) मात्र का गुण है कि उसकी टिकाऊ इकाई में अपनी पुनरावृत्ति करनेकी प्रवृत्ति है। पुरूष सूक्त ने पुनरावृत्ति को सृष्टि का नियम कहा है। (2) हर जीवित तंत्र में एक अनुकूलनशीलता है; जो बाधाऍं आती हैं उनका आंशिक रूप में निराकरण, अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाकर, वह कर सकता है। इन गुणों का एक दूरगामी परिणाम जीव की विकास-यात्रा है। चैतन्य सर्वव्यापी है और जीव तथा जड़ सबमें विद्यमान है, यह विशुद्ध भारतीय दर्शन साम्यवादियों को अखरता था। उपर्युक्त दोनों भारतय अभिधारणाओं ने, जो जीवाणु का व्यवहार एवं जीव की विकास-यात्रा का कारण बताती हैं, उन्हें झकझोर डाला।
    यह विश्वास अनेक सभ्यताओं में रहा है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की। भारतीय दर्शन में ईश्वर की अनेक कल्पनाऍं हैं। ऐसा समझना कि वे सारी कल्पनाऍं सृष्टिकर्ता ईश्वर की हैं, ठीक न होगा। ईश्वर के विश्वास के साथ जिसे अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं, यहाँ पनपता रहा। कणाद ऋषि ने कहा कि यह सारी सृष्टि परमाणु से बनी है।
    सांख्य दर्शन को भी एक दृष्टि से अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं। सांख्य की मान्यता है कि पुरूष एवं प्रकृति दो अलग तत्व हैं और दोनों के संयोग से सृष्टि उत्पन्न हुई। पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान। मेरे एक मित्र इस अंतर को बताने के लिए एक रूपक सुनाते थे। उन्होंने कहा कि उनके बचपन में बिजली न थी और गैस लैंप, जिसके प्रकाश में सभा हो सके, अनिवार्य था। पर गैस लैंप निष्क्रिय था। न वह ताली बजाता था, न वाह-वाह करता था, न कार्यवाही में भाग लेता था, न प्रेरणा दे सकता था और न परामर्श। पर यदि सभा में मार-पीट भी करनी हो तो गैस लैंप की आवश्यकता थी, कहीं अपने समर्थक ही अँधेरे में न पिट जाऍं। यह गैस लैंप या प्रकाश सांख्य दर्शन का ‘पुरूष’ है। वह निष्क्रिय है, कुछ करता नहीं। पर उसके बिना सभा भी तो नहीं हो सकती थी।
    इसी प्रकार प्रसिद्ध नौ उपनिषदों में पाँच उपनिषदों को, जिस अर्थ में बाइबिल ने सृष्टिकर्ता ईश्वर की महिमा कही, उस अर्थ में अनीश्वरवादी कह सकते हैं। जो ग्रंथ ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में मानते हैं उनमें एक प्रसिद्ध वाक्य आता है, ‘एकोअहं बहुस्यामि’। ईश्वर के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं एक हूँ, अनेक बनूँ और इसलिए अपनी ही अनेक अनुकृतियाँ बनाई—ऐसा अर्थ उसमें लगाते हैं। पर एक से अनेक बनने का तो जीव का गुण है। यही नहीं, यह तो पदार्थ मात्र की भी स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
    भारतीय दर्शन के अनुसार यह सृष्टि किसी की रचना नहीं है, जैसा कि ईसाई या मुसलिम विश्वास है। यदि ईश्वर ने यह ब्रम्हाण्ड रचा तो ईश्वर था ही, अर्थात कुछ सृष्टि थी। इसलिए ईश्वर स्वयं ही भौतिक तत्व अथवा पदार्थ था, ऐसा कहना पड़ेगा। (उसे किसने बनाया?) इसी से कहा कि यह अखिल ब्रम्हांड केवल उसकी अभिव्यक्ति अथवा प्रकटीकरण (manifestation) है, रचना अथवा निर्मित (creation) नहीं। उसी प्रकार जैसे आभूषण स्वर्ण का आकार विशेष में प्रकटीकरण मात्र है। इसी रूप में भारतीय दर्शन ने सृष्टि को देखा।
    धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह विचार कि जीवन इस पृथ्वी पर स्वाभाविक और अनिवार्य रासायनिक- भौतिक प्रक्रिया द्वारा बिना किसी चमत्कारी शक्ति के उत्पन्न हुआ, इसलिए प्रतिकूल पड़ता है कि वे जीव का संबंध आत्मा से जोड़ते हैं। उनका विश्वास है कि बिना आत्मा के जीवन संभव नहीं और इसलिए कोई परमात्मा है जिसमें अंततोगत्वा सब आत्माऍं विलीन हो जाती हैं। पर जड़ प्रकृति का स्वाभाविक सौंदर्य, वह स्फटिक (crystal), वह हिमालय की बर्फानी चोटियों पर स्वर्ण-किरीट रखता सूर्य, वह उष:काल की लालिमा या कन्याकुमारी का तीन महासागरों के संधि-स्थल का सूर्यास्त, अथवा झील के तरंगित जल पर खेलती प्रकाश-रश्मियाँ- ये सब कीड़े-मकोडों से या कैंसर की फफूँद से या अमरबेल या किसी क्षुद्र जानवर से निम्न स्तर की हैं क्या? पेड़-पौधे और उनमें उगे कुकुरमुत्ते में आत्मा है क्या ? एक बात जो मुसलमान या ईसाई नहीं मानते। सृष्टि में इस प्रकार के जीवित तथा जड़ वस्तुओं में भेदभाव भला क्यों ?
    शायद हम सोचें, सभी जीवधारियों का अंत होता है। ‘केहि जग काल न खाय।‘ वनस्पति और जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ? वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है।

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व हीमोफ़ीलिया दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।

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