कोरोना वायरस वैक्सीन: महत्वपूर्ण तथ्य


कोरोना महामारी पर नियंत्रण के लिए दुनिया के कई देशों में टीकाकरण अभियान शुरू हो चुके हैं। इससे जुड़ी सूचनाएं और सुझाव कई बार आपको पेचीदा लग सकती हैं, लेकिन कुछ बुनियादी तथ्य हैं जो आपकी यह समझने में मदद करेंगे कि एक वैक्सीन आख़िर काम कैसे करती हैं।

वैक्सीन क्या है?

एक वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है।

वैक्सीन में किसी बीमारी का कारण बनाने वाले वायरस के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं। ये शरीर के प्र तिरक्षा प्रणाली(‘इम्यून सिस्टम’ को संक्रमण (आक्रमणकारी वायरस) की पहचान करने के लिए प्रेरित करते हैं और उनके ख़िलाफ़ शरीर में एंटीबॉडी बनाते हैं जो बाहरी आक्रमण से लड़ने में हमारे शरीर की मदद करती हैं।

वैक्सीन लगने का नकारात्मक असर कम ही लोगों पर होता है, लेकिन कुछ लोगों को इसके साइड इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ सकता है। हल्का बुख़ार या ख़ारिश होना, इससे सामान्य दुष्प्रभाव हैं।

वैक्सीन लगने के कुछ वक़्त बाद ही आप उस बीमारी से लड़ने की इम्यूनिटी विकसित कर लेते हैं।

अमेरिका के सेंटर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) का कहना है कि वैक्सीन बहुत ज़्यादा शक्तिशाली होती हैं क्योंकि ये अधिकांश दवाओं के विपरीत, किसी बीमारी का इलाज नहीं करतीं, बल्कि उन्हें होने से रोकती हैं।

हर्ड इम्यूनिटी क्या होती है ?

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि संक्रमण को रोकने के लिए कम से कम 65-70 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगानी होगी, जिसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को टीका लगवाने के लिए प्रेरित करना होगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि संक्रमण को रोकने के लिए कम से कम 65-70 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगानी होगी, जिसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को टीका लगवाने के लिए प्रेरित करना होगा।

हर्ड इम्यूनिटी यानि अगर लगभग 70-90 प्रतिशत लोगों में बीमारी के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाए तो बाकी भी बच जाएंगे। विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना वायरस से लोगों के बीच हर्ड इम्यूनिटी तभी उत्पन्न होगी जब लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या संक्रमित हो चुकी हो। हालांकि इस साठ प्रतिशत के आंकड़े को लेकर भी अभी तक विशेषज्ञों में एक राय नहीं है।

हर्ड इम्यूनिटी के सिद्धांत के अनुसार अगर कोई बीमारी किसी समूह के बड़े हिस्से में फैल जाती है तो मानव की रोग प्रतिरोधक क्षमता उस बीमारी से लड़ने में संक्रमित लोगों की मदद करती है। जो लोग बीमारी से लड़कर पूरी तरह ठीक हो जाते हैं, वो उस बीमारी से ‘इम्यून’ हो जाते हैं, यानी उनमें प्रतिरक्षात्मक गुण विकसित हो जाते हैं। इम्यूनिटी का मतलब यह है कि व्यक्ति को संक्रमण हुआ और उसके बाद उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता ने वायरस का मुक़ाबला करने में सक्षम एंटी-बॉडीज़ तैयार कर लिया। जैसे-जैसे ज़्यादा लोग इम्यून होते जाते हैं, वैसे-वैसे संक्रमण फैलने का ख़तरा कम होता जाता है, क्योंकि अब वायरस से प्रभावित हो सकने वाले व्यक्तियों की संख्या कम है।

क्या टीके सुरक्षित हैं?

वैक्सीन ना सिर्फ़ कोविड-19 से सुरक्षा देती है, बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित करती है।
वैक्सीन ना सिर्फ़ कोविड-19 से सुरक्षा देती है, बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित करती है।

वैक्सीन का एक प्रारंभिक रूप चीन के वैज्ञानिकों ने 10वीं शताब्दी में खोज लिया था।

लेकिन 1796 में एडवर्ड जेनर ने पाया कि चेचक के हल्के संक्रमण की एक डोज़ चेचक के गंभीर संक्रमण से सुरक्षा दे रही है। उन्होंने इस पर और अध्ययन किया। उन्होंने अपने इस सिद्धांत का परीक्षण भी किया और उनके निष्कर्षों को दो साल बाद प्रकाशित किया गया।

तभी ‘वैक्सीन’ शब्द की उत्पत्ति हुई। वैक्सीन को लैटिन भाषा के ‘Vacca’ से गढ़ा गया जिसका अर्थ गाय होता है।

वैक्सीन को आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धियों में से एक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, टीकों की वजह से हर साल क़रीब बीस से तीस लाख लोगों की जान बच पाती है।

सीडीसी का कहना है कि बाज़ार में लाये जाने से पहले टीकों की गंभीरता से जाँच की जाती है। पहले प्रयोगशालाओं में और फिर जानवरों पर इनका परीक्षण किया जाता है। उसके बाद ही मनुष्यों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है।

अधिकांश देशों में स्थानीय दवा नियामकों से अनुमति मिलने के बाद ही लोगों को टीके लगाये जाते हैं।

टीकाकरण में कुछ जोखिम ज़रूर हैं, लेकिन सभी दवाओं की ही तरह, इसके फ़ायदों के सामने वो कुछ भी नहीं। उदाहरण के लिए, बचपन की कुछ बीमारियाँ जो एक पीढ़ी पहले तक बहुत सामान्य थीं, टीकों के कारण तेज़ी से लुप्त हो गई हैं। चेचक जिसने लाखों लोगों की जान ली, वो अब पूरी तरह ख़त्म हो गयी है।

लेकिन सफ़लता प्राप्त करने में अक्सर दशकों लग जाते हैं। वैश्विक टीकाकरण अभियान शुरू होने के लगभग 30 साल बाद अफ़्रीका को अकेला पोलियो मुक्त देश घोषित किया गया। यह बहुत लंबा समय है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि कोविड-19 के ख़िलाफ़ पूरे विश्व में पर्याप्त टीकाकरण करने में महीनों या संभवतः वर्षों का समय लग सकता है, जिसके बाद ही हम सामान्य स्थिति में लौट सकेंगे।

टीके कैसे बनाये जाते हैं?

जब एक नया रोगजनक (पैथोजन) जैसे कि एक जीवाणु, विषाणु, परजीवी या फ़ंगस शरीर में प्रवेश करता है तो शरीर का एक उप-भाग जिसे एंटीजन कहा जाता है, वो उससे लड़ने के लिए एंटीबॉडी का उत्पादन शुरू कर देता है।

वैक्सीन में किसी बीमारी का कारण बनाने वाले वायरस के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं। ये शरीर के ‘इम्यून सिस्टम’ यानी प्रतिरक्षा प्रणाली को संक्रमण (आक्रमणकारी वायरस) की पहचान करने के लिए प्रेरित करते हैं और उनके ख़िलाफ़ शरीर में एंटीबॉडी बनाते हैं जो बाहरी हमले से लड़ने में हमारे शरीर की मदद करती हैं।

पारंपरिक टीके शरीर के बाहरी हमले से लड़ने की क्षमता को विकसित कर देते हैं। लेकिन टीके विकसित करने के लिए अब नये तरीक़े भी इस्तेमाल किये जा रहे हैं। कोरोना के कुछ टीके बनाने में भी इन नये तरीक़ों को आज़माया गया है।

वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रयासों के चलते दुनिया को कोरोना वायरस की कई वैक्सीन रिकॉर्ड समय में तैयार करने में सफलता मिल सकी है। इन टीकों की मदद से कोविड-19 की भयंकर महामारी से सबसे ज़्यादा जोख़िम वाले लोगों को सुरक्षित करने में मदद मिलेगी।

आइए देखें कि ये टीके कैसे रिकॉर्ड समय में वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं से निकलकर लोगों की बांहों तक पहुंच रहे हैं।

वैक्सीन की ज़िंदगी प्रयोगशाला में शुरू होती है

वैज्ञानिकों ने नए कोरोना वायरस की वैक्सीन विकसित करने का काम तभी शुरू कर दिया था, जब जनवरी 2020 में इसके जेनेटिक सीक्वेंस यानी जैविक बनावट को जारी किया गया था।

दुनिया के तमाम विशेषज्ञों ने पहली बार बड़े पैमाने पर सहयोग करते हुए, वैक्सीन के विकास के अलग अलग चरणों पर एक साथ काम करना शुरू किया था।इस अभूतपूर्व वैश्विक सहयोगा का ही नतीजा था कि वैक्सीन के विकास का जो काम दस साल में होता है, उसे बारह महीनों के अंदर पूरा करने में कामयाबी मिल सकी।

वैक्सीन के विकास के लिए आपस में सहयोग कर रहे दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों में से कई ऐसे थे, जिन्होंने सार्स और मर्स महामारियों के वायरस के बारे में अध्ययन किया था। इसीलिए, नए कोरोना वायरस को हराने वाली वैक्सीन तैयार करने की मज़बूत बुनियाद पहले से तैयार थी।

वैज्ञानिकों ने इस वायरस के बारे में विस्तार से अध्ययन किया, जिससे वो वायरस में मौजूद उस छोटे से तत्व का पता लगा सकें, जो हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम या रोग प्रतिरोधक क्षमता को सक्रिय करता है। वायरस में मौजूद इस तत्व को वैज्ञानिक ज़ुबान में एंटीजन कहते हैं। वायरस को हराने में कामयाब होने वाली ज़्यादातर वैक्सीन में इस वायरस को बनाने वाले छोटे छोटे ब्लूप्रिंट या वायरस के नुक़सान न करने वाले अंश होते हैं, जिससे कि ये हमारे शरीर में ही बन सकें। वैज्ञानिकों ने इन एंटीजन का टेस्ट लैब में कंप्यूटर मॉडल पर किया, जिससे कि इनके साइड इफेक्ट पर नज़र रखी जा सके।

इसके बाद इन टीकों का परीक्षण मानवों में शुरू किया गया।

जब लैब में हुए ये परीक्षण पूरे हो गए, तब ये टीके दुनिया के तमाम देशों में ऐसे लोगों को लगाए गए, जो ख़ुद पर इन टीकों का परीक्षण कराने के लिए तैयार थे। इन्हें वैक्सीन वॉलंटियर्स कहा जाता है। इन टीकों के ह्यूमन ट्रायल या मानव पर परीक्षण का उद्देश्य न सिर्फ़ ये सुनिश्चित करना था कि टीके इंसानों के लिए सुरक्षित हैं, बल्कि ये पता लगाना भी था कि वायरस से बचने के लिए वैक्सीन की कितनी ख़ुराक देनी पड़ेगी।

आम तौर पर वैक्सीन के ऐसे ट्रायल या परीक्षण करने में दस साल तक का समय लगता है। लेकिन, कोविड-19 के लिए टीकों के कई चरण के परीक्षण एक साथ किए गए, जिससे वैक्सीन को जल्द से जल्द इस्तेमाल किया जा सके।  वैक्सीन के सफल परीक्षण के नतीजों को उन संस्थाओं को भेजा गया, जो दवाओँ के सुरक्षित होने को प्रमाणित करती हैं, और उन्हें इस्तेमाल करने की मंज़ूरी देती हैं।

इन संगठनों और उनके वैज्ञानिकों ने तमाम टीकों के परीक्षण के नतीजों और उनके सुरक्षित होने के दावों का बारीक़ी से विश्लेषण किया। इसके अलावा इनकी गुणवत्ता और असरदार होने का भी सत्यापन किया, जिससे कि टीकों के इस्तेमाल को हरी झंडी दी जा सके।

वैक्सीन के इस्तेमाल को मंज़ूरी देने की प्रक्रिया जल्द पूरी करने के लिए ब्रिटेन की नियामक संस्था ने ‘रॉलिंग रिव्यू’ नाम की एक व्यवस्था का इस्तेमाल किया।इसमें वैक्सीनों के परीक्षणों के पूरा होने का इंतज़ार करने और उसके बाद जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण करने के बजाय, ट्रायल के दौरान ही जुटाए जा रहे आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर टीकों को मंज़ूरी दी गई

वैक्सीनों की ख़ुराक की बड़ी तादाद किसी दवा कारखाने में बनाई जाती है

आम तौर पर इस चरण तक पहुंचने के बाद ही-यानी जब किसी दवा को नियामक संस्था से मंज़ूरी मिल जाती है-दवाओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया जाता है

लेकिन, कोविड की वैक्सीनों के मामले में, उनके इस्तेमाल की मंज़ूरी मिलने से पहले से ही उन्हें बडे पैमाने पर बनाने की क्षमता विकसित कर ली गई थी।वो भी उस समय जब वैक्सीन पर रिसर्च जारी थी।उन्हें तैयार करने के लिए वैज्ञानिक काम कर ही रहे थे।इसका कारण ये था कि वैक्सीन तैयार करने में भारी मात्रा में निवेश किया जा रहा था।

वैक्सीन को मंज़ूरी मिलने से पहले ही उन्हें बनाने की क्षमता विकसित करने का मक़सद ये था कि जब सुरक्षित और असरदार वैक्सीन तैयार कर ली जाए और उसे मंज़ूरी मिल जाए, तो कंपनियां उनके जल्द से जल्द वितरण के लिए तैयार रहें

कोई भी वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया के दौरान वायरस के सक्रिय तत्वो को बड़ी मात्रा में अन्य तत्वों जैसे कि स्टेबिलाइज़र से मिलाया जाता है। इस दौरान वैक्सीन में वो केमिकल भी मिलाया जाता है जिसे ‘एडजुवैंट’ कहते हैं।’एडजुवेंट’ हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता या इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है। बड़ी मात्रा में तैयार किए गए इन टीकों को छोटी छोटी कीटाणु रहित शीशियों में पैक करने और मंज़िल की ओर रवाना किए जाने से पहले, इनकी गुणवत्ता की पड़ताल की जाती है

वैक्सीन को कोल्ड चेन या फ्रीज़र वैन और आइस कूलिंग रेफ्रिजरेटर जैसे माध्यमों से ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है। जब वैक्सीन के निर्माता, उन्हें अपने प्लांट से निकालते हैं, तो उन्हें रेफ्रिजेरेटेड ट्रकों के ज़रिए तय मंज़िल की ओर रवाना किया जाता है।इससे वैक्सीन को लगातार एक ख़ास तापमान पर सुरक्षित रखा जाता है।

ज़्यादातर पारंपरिक टीके 2 से 8 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सुरक्षित रखे जाते हैं। लेकिन, कोविड-19 के कई टीके ऐसे भी हैं, जो इससे कम तापमान पर स्टोर किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, फाइज़र-बायोएनटेक की वैक्सीन को बेहद कम तापमान यानी -70 डिग्री सेल्सियस पर रखना पड़ता है।

हालांकि, ब्रिटेन में तैयार की गई ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन को किसी सामान्य फ्रिज के तापमान पर भी रखा जा सकता है। इसीलिए, इस टीके को कहीं लाने-ले जाने में कम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस वैक्सीन को कम तापमान पर रखी जाने वाली अन्य दवाओं की कोल्ड चेन के ज़रिए भी कहीं लाया-ले जाया जा सकता है।

इस वैश्विक महामारी के ख़ात्मे के लिए ज़रूरी ये है कि उन लोगों तक पहले वैक्सीन पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।न कि उन लोगों को पहले मिले, जो इसे ख़रीद पाने की क़ुव्वत रखते हैं। अमीर देशों की सरकारों ने एक साथ कई टीकों की करोड़ों डोज़ या खुराक के ऑर्डर दे रखे हैं।लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के ग़रीब और कम आमदनी वाले देशों के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए कोवैक्स के नाम से एक कार्यक्रम चला रखा है।

वैक्सीन की ख़ुराक को प्रमुख केंद्रों से टीकाकरण केंद्रों तक ले जाया जाता है

जब कोई वैक्सीन, अपनी तय मंज़िल वाले देश पहुंचती है, तो उसे तुरंत वितरित करने के बजाय, एक ख़ास ठिकाने पर उसकी गुणवत्ता की पड़ताल की जाती है। फाइज़र की वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए ख़ास तरह के रेफ्रिजरेटर की ज़रूरत होती है। कई देशों ने इस टीके को रखने के लिए विशेष फ्रीज़र फार्म बनाए हैं। ये वो गोदाम हैं, जहां वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए कई डीप फ्रीज़र रखे गए हैं। जब परीक्षण करने वाले, बाहर से आई वैक्सीन की खेप को हरी झंडी दे देते हैं, तो उन्हें कम तापमान वाले विशेष वाहनों के ज़रिए अस्पतालों, क्लिनिक और दूसरे टीकाकरण केंद्रों तक ले जाया जाता है।

कई बार केंद्रीय वैक्सीन हब से टीकों को अस्पतालों और क्लिनिक तक ले जाने से पहले क्षेत्रीय केंद्रों पर ले जाया जाता है।

मरीज़ों को वैक्सीन, टीकाकरण केंद्रों में दी जाती है।

टीकाकरण केंद्रों के प्रशिक्षित कर्मचारियों को वैक्सीन की छोटी छोटी खेप पहुंचाई जाती है।इन केंद्रों में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि मरीज़ों को लगाने के लिए लाए गए टीके, सही तरीक़े से यानी उचित तापमान पर रखे जाएं। फ्रीज़ किए हुए टीकों को मरीज़ों को लगाने से पहले उन्हें सामान्य तापमान पर लाकर पिघलाया और पतला किया जाता है।

असली काम तब शुरू होता है, जब वैक्सीन को सिरिंज में भरकर मरीज़ की बांह के ऊपरी हिस्से में लगाया जाता है। हमारे शरीर के अंदर जाने के बाद ये वैक्सीन, हमारे इम्यून सिस्टम या रोग प्रतिरोधक व्यवस्था को शरीर में कहीं भी मौजूद नए कोरोना वायरस से लड़ने के लिए तैयार करती है। टीके इस उम्मीद में लगाए जाते हैं कि इन्हें लेने वाले कोविड-19 की भयंकर बीमारी के शिकार दोबारा न हों।

ये तो समय के साथ वैक्सीन लेने वालों पर बारीक़ी से नज़र रखने से ही पता चलता है कि जिन्हें ये टीके लगे हैं, वो कब तक कोरोना वायरस से सुरक्षित रह पाते हैं।

कोविड वैक्सीन की तुलना

कोविड वैक्सीन की तुलना
कोविड वैक्सीन की तुलना

फ़ाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना की कोविड वैक्सीन, दोनों ‘मैसेंजर आरएनए वैक्सीन’ हैं जिन्हें तैयार करने में वायरस के आनुवांशिक कोड के एक हिस्से का उपयोग किया जाता है।

ये टीके एंटीजन के कमज़ोर या निष्क्रिय हिस्से का उपयोग करने की बजाय, शरीर के सेल्स को सिखाते हैं कि वायरस की सतह पर पाया जाने वाला ‘स्पाइक प्रोटीन’ कैसे बनायें जिसकी वजह से कोविड-19 होता है।

ऑक्सफ़ोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन भी अलग है। वैज्ञानिकों ने इसे तैयार करने के लिए चिंपांज़ी को संक्रमित करने वाले एक वायरस में कुछ बदलाव किये हैं और कोविड-19 के आनुवंशिक-कोड का एक टुकड़ा भी इसमें जोड़ दिया है।

इन तीनों ही टीकों को अमेरिका और ब्रिटेन में आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी दी जा चुकी है। मैक्सिको, चिली और कोस्टा रिका ने भी फ़ाइज़र की कोविड वैक्सीन का प्रबंध करना शुरू कर दिया है। जबकि ब्राज़ील सरकार ने ऑक्सफ़ोर्ड और सिनोवैक की वैक्सीन को हरी झंडी दिखाई है।

क्या कोविड के और टीके भी हैं?

चीन की दवा कंपनी सिनोवैक ने ‘कोरोना-वैक’ नामक टीका बनाया है। चीन, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया और फ़िलीपींस में इसे उतारा गया है। कंपनी ने इस टीके को बनाने में पारंपरिक तरीक़े का इस्तेमाल किया है। कंपनी के अनुसार, इस टीके को बनाने के लिए वायरस के निष्क्रिय अंशों का इस्तेमाल किया गया।

हालांकि, यह कितना प्रभावी है, इसे लेकर काफ़ी सवाल उठे हैं। तुर्की, इंडोनेशिया और ब्राज़ील में इस टीके का ट्रायल किया गया था। इन देशों के वैज्ञानिकों ने अंतिम चरण के ट्रायल के बाद कहा कि यह टीका 50.4 प्रतिशत ही प्रभावशाली है।

भारत में दो टीके तैयार हो रहे हैं। एक का नाम है कोविशील्ड जिसे एस्ट्राज़ेनेका और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने तैयार किया और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया इसका उत्पादन कर रहा है। और दूसरा टीका है भारतीय कंपनी भारत बायोटेक द्वारा बनाया गया कोवैक्सीन।

रूस ने अपनी ही कोरोना वैक्सीन तैयार की है जिसका नाम है ‘स्पूतनिक-5’ और इसे वायरस के वर्ज़न में थोड़ बदलाव लाकर तैयार किया गया। यही टीका अर्जेंटीना में भी इस्तेमाल हो रहा है। अपने टीकाकरण अभियान के लिए अर्जेंटीना ने इस टीके की तीन लाख डोज़ मंगवाई हैं।

अफ़्रीकी यूनियन ने भी वैक्सीन की लाखों डोज़ मंगवाई हैं, लेकिन उन्होंने ऑर्डर कई दवा कंपनियों को दिये हैं। मसलन, अफ़्रीकी यूनियन ने फ़ाइज़र, एस्ट्राज़ेनेका (सीरम इंस्टीट्यूट के ज़रिये) और जॉनसन एंड जॉनसन को वैक्सीन का ऑर्डर दिया है। कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन फ़िलहाल अपनी वैक्सीन को अंतिम रूप नहीं दे पायी है।

क्या मुझे कोविड वैक्सीन लेनी चाहिए?

कहीं भी कोविड वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया गया है। लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह सलाह दी जाती है कि वो टीका लगवायें। हालांकि, स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रहे लोगों के मामले में यहाँ अपवाद है।

सीडीसी का कहना है कि वैक्सीन ना सिर्फ़ कोविड-19 से सुरक्षा देती है, बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित करती है। इसके अलावा सीडीसी टीकाकरण को महामारी से बाहर निकलने का सबसे महत्वपूर्ण ज़रिया भी बताती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि संक्रमण को रोकने के लिए कम से कम 65-70 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगानी होगी, जिसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को टीका लगवाने के लिए प्रेरित करना होगा।

बहुत से लोग हैं जिन्हें कोविड वैक्सीन तैयार होने की रफ़्तार को लेकर कई तरह की चिंताएं हैं।

यह सच है कि वैज्ञानिक एक वैक्सीन विकसित करने में कई साल लगा देते हैं, मगर कोरोना महामारी का समाधान ढूंढने के लिए रफ़्तार को काफ़ी बढ़ाया गया। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन वैज्ञानिकों, व्यापारिक और स्वास्थ्य संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा है।

संक्षेप में कहें तो अरबों लोगों के टीकाकरण से कोविड-19 को फैलने से रोका जा सकेगा और दुनिया हर्ड इम्यूनिटी की ओर बढ़ेगी। विशेषज्ञों का कहना है कि हर्ड इम्यूनिटी के ज़रिये ही दुनिया सामान्य जीवन में दोबारा लौट पायेगी।

स्रोत : बीबीसी हिन्दी

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3 विचार “कोरोना वायरस वैक्सीन: महत्वपूर्ण तथ्य&rdquo पर;

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