विज्ञान का मिथकीकरण


जालंधर के लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस का 106वां अधिवेशन 7 जनवरी, 2019 को संपन्न हुआ। इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन की स्थापना दो अंग्रेज़ वैज्ञानिकों जे. एल. सीमोंसन और पी. एस. मैकमोहन की दूरदर्शिता और पहल पर 1914 में हुई थी। 1914 में ही इसका पहला अधिवेशन कोलकाता के एशियाटिक सोसाएटी मे हुआ था। तब से प्रतिवर्ष भारतीय विज्ञान कांग्रेस का आयोजन होता आ रहा है। वैसे तो भारतीय जनसामान्य में विज्ञान के प्रति अरुचि के चलते मुख्यधारा का मीडिया हमेशा से ही इसके कवरेज से बचता आया है, मगर विगत कुछ वर्षों से वेदों-पुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताने से जुड़े विवादों के चलते यह आयोजन सुर्खियों में रहा है। इस हालिया अधिवेशन में भी प्राचीन भारत की विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देनेवाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है, इस बार सम्मेलन की थीम थी – ‘फ्यूचर इंडिया : साइंस एंड टेक्नोलॉजी’। भविष्य में विज्ञान और प्रौद्योगिकी भारत के विकास का मार्ग किस प्रकार प्रशस्त करेगी, की चर्चा के बजाए प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी।

आंध्र यूनिवर्सिटी के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नोलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के 24 प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया। तमिलनाडु के वल्र्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्नन जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि मेरे शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं। वे यहीं पर नहीं रुके उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के विचार बदल देंगे, तब ‘गुरुत्वीय तरंगों’ को ‘नरेंद्र मोदी तरंगों’ के नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण लेंसिंग प्रभाव को ‘हर्षवर्धन प्रभाव’ के नाम से जाना जाएगा। भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्रह्मा इस ब्रह्मांड के सबसे महान वैज्ञानिक थे। वह डायनासोर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है। इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही देखा गया हो। 2015 में मुंबई मे आयोजित अधिवेशन में रिटायर्ड कैप्टन और पायलट ट्रेनिंग संस्थान के प्रमुख आनंद बोडास ने दावा किया था कि हवाई जहाज़ का आविष्कार सात हज़ार साल पहले ‘वैमानिक शास्त्र’ नामक ग्रंथ के रचयिता भारद्वाज ऋषि ने किया था और उस समय की विमानन प्रौद्योगिकी आज से कहीं अधिक विकसित थी तथा उस समय के हवाई जहाज एक ग्रह से दूसरे ग्रहों पर भी जाने में सक्षम थे। इसी तरह 2016 में मैसूर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में दावा किया गया था कि बाघ की चमड़ी पर बैठने से आयु नहीं बढ़ती है। दावा तो यहां तक किया गया था कि अगर कोई लगातार बाघ की छाल पर बैठे, तो उसकी आयु पीछे की ओर लौटने लगती है। यही कारण है कि नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकी रामकृष्णन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस को एक सर्कस करार दिया था।

विज्ञान का मिथकीकरण

अविश्वसनीय छद्मवैज्ञानिक दावे सिर्फ भारतीय विज्ञान कांग्रेस में ही नहीं किए जाते, आम नेता-मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, यहाँ तक प्रधानमंत्री भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं। उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रन्थों जैसे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जैसे- राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांति-भांति प्रकार के यंत्रोंपकरण आदि-इत्यादि। यदि यह मान भी लें कि वेदों में विज्ञान का अक्षय भंडार समाया हुआ है तो यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अब तक हम क्या कर रहे थे? तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अब तक वेदों के जो टीकाकार, भाष्यकार हुए वे सभी मूर्ख थे क्योंकि उनको विज्ञान के इस अक्षय भंडार के बारे में पता ही नहीं चला? उन्होंने वेदों का अध्ययन करके कोई वैज्ञानिक आविष्कार किया ही नहीं? वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि-शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञ-ज्योतिषी नहीं खोज पाएं, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूढ़ निकाला! वास्तव में वैज्ञानिक दावों को पुराणों और काव्य-रचनाओं के आधार पर करना पूरी तरह से अतर्कसंगत और हास्यास्पद है, क्योंकि वर्तमान ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह पता चला है कि ये साहित्यिक रचनाएँ थीं, नाकि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शोधपत्र। प्रो. जयंत नार्लीकर के अनुसार ये तो ऐसा ही होगा कि कोई ग्रिम की परीकथाओं को पढ़कर यह निष्कर्ष निकाले कि 17 वी से 19 वी सदी में यूरोप के लोग जादूगरी और प्रेतकलाओं में माहिर थे।

हम मिथक और इतिहास में भेद नहीं कर पाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि मिथक प्राचीन कथाएँ हैं जिसे आलौकिक शक्तियों से जोड़कर देखा जाता है, जबकि इतिहास वह है जो वास्तव में घटित हुआ है। इतिहास की जगह मिथकीय गाथाओं को पेश करना सही नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक निजी अस्पताल के उद्घाटन समारोह में पौराणिक ज्ञान का महिमामण्डन किया। उन्होंने कहा कि पौराणिक काल में अनुवांशिक विज्ञान का उपयोग किया जाता था। उन्होनें कहा कि-

”महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था। तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा। हम गणेश जी की पूजा करते हैं। कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस ज़माने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख के प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया हो।’’

हम जानते हैं कि प्लास्टिक सर्जरी की खोज भारत में हुई, मगर इसकी खोज सुश्रुत के समय में हुई नाकि पौराणिक काल में। और जिस प्लास्टिक सर्जरी तकनीक का उल्लेख प्रधानमंत्री ने किया है, उतनी विकसित तकनीक की खोज सुश्रुत तो क्या आधुनिक वैज्ञानिक भी नहीं कर पायें हैं। नरेंद्र मोदी जिस गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उसी गुजरात के सरकारी स्कूलों में ‘तेजोमय भारत’ नाम की किताब पढ़ाने को कहा गया जिसमें स्टेम सेल की खोज को कौरवों की पैदाइश से जोड़ दिया गया है, टीवी का श्रेय भी योगविद्या और दिव्यदृष्टि को दिया गया है। दरअसल नरेंद्र मोदी जिस संघी विचारधारा से आते हैं वो न सिर्फ अवैज्ञानिक है बल्कि असलियत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विरोधी भी है।

आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदों-पुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च प्रौद्योगिकियाँ उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहाँ तक इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गाँव-गाँव में बिजली उपलब्ध है। तकनीकी की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भुत कल्पनाशक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति है।

अक्सर ऐसे भी दावे सुनने को मिलते हैं कि वैदिक काल के दीर्घात्मा ऋषि यह जानते थे कि सूर्य की ऊर्जा का स्रोत तापनाभिकीय अभिक्रिया है। जयंत विष्णु नार्लीकर अपने एक आलेख में लिखते हैं कि अगर हम इस वर्णन स्वीकार कर भी लें तो भी इससे यह पता नहीं चलता कि सूर्य की आंतरिक संरचना कैसी है, किस प्रकार से यह संतुलन में रहता है या किस प्रकार इसकी ऊर्जा इसके केंद्र से सतह तक आती है आदि। इन सारी बातों को जानने के लिए वर्तमान में हम गुरुत्वाकर्षण, विद्युत और चुम्बकत्व और द्रवस्थैतिकी का सहारा लेते हैं। क्या वेदों में इसका विवरण मिलता है? संक्षिप्त उत्तर है-नहीं।

रामायण में पुष्पक विमान का बड़ा मनोहर चित्रण है, इसलिए हमारे पूर्वजों के पास वास्तव में विमान प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी, ऐसा दावा किया जाता है। परंतु हमें इसे सिद्ध करने के लिए सम्पूर्ण तकनीकी साहित्य की आवश्यकता है, रामायण जैसी काव्यात्मक विवरण की नहीं। दरअसल, विमान एक जटिल उत्पाद है, इसके निर्माण में अत्यधिक उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। अगर हमें यह सिद्ध करना है कि प्राचीन भारत में विमानन प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी, तो विमान के चित्र, बैठे हुए यात्रियों के तस्वीर दिखाना भ्रामक हो सकता है जबकि सिद्ध करने के लिए हमें यह ढूढऩा पड़ेगा कि क्या उस समय वायुगतिकी का सिद्धांत, विमान बनाने का डिजाईन, विमान की बॉडी बनाने हेतु सम्मिश्र का निर्माण आदि का ज्ञान उपलब्ध था। इन सभी तकनीकी विवरणों के अभाव में यह दावा करना कि रामायण काल के लोगों को विमान प्रौद्योगिकी का ज्ञान था कोरा दाकियानूसीपन है।

प्राचीन भारत में विमान प्रौद्योगिकी के होने के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि यदि हम महर्षि भारद्वाज की रचना ‘वृहद विमानशास्त्र’ तथा राजा भोज की रचना ‘समरांगण सूत्रधार’ की सही ढंग से व्याख्या करना सीख लें तो तत्कालीन विमान प्रौद्योगिकी का विस्तृत वर्णन प्राप्त हो सकता है। परंतु इन दोनों रचनाओं में भी संतोषजनक विवरण प्राप्त नहीं होता है। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री जयंत विष्णु नार्लीकर अपनी पुस्तक ‘साइंटिफिक एज : फ्रॉम वैदिक टू मॉडर्न साइंटिस्ट’ में इन दोनों पुस्तकों की प्रमाणिकता का खंडन कर चुके हैं। उनका कहना है कि यहाँ पर विमान शब्द के बारे में भी भ्रम उत्पन्न हुआ है। ‘विमान हवाई जहाज को भी कहते हैं और बड़े मकानों में सुंदर वास्तुकला का उपयोग करते हुए ऊपरी मंजिल पर निकलनेवाली खिड़कियों को भी विमान कहते हैं। राजा भोज की रचना में खिड़की का अनेक स्थानों पर वर्णन है।’ यह ग्रंथ वैमानिक शास्त्र से अधिक वास्तुशास्त्र से संबंधित है।

विलक्षण प्रतिभा के धनी महान वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा अपने प्रखर विचारों के लिए जाने जाते थे। वे पुराणपंथी विचारों के कटु आलोचक थे। उनके जीवन के एक प्रसंग का विद्वान लेखक स्व. गुणाकर मुले अपनी पुस्तक ‘भारत : इतिहास, संस्कृति और विज्ञान’ में कुछ इस प्रकार करते हैं :

एक बार डॉ. साहा ढाका गए, तो वहां के एक वकील ने उनकी खोज (तापीय आयनीकरण) के बारे में उनसे जानकारी चाही। साहा उन्हें विस्तार से तारों की संरचना और अपनी नई खोज के बारे में समझाते चले गए। मगर वकील महाशय बीच-बीच में टिप्पणी करते रहे कि, ”लेकिन इसमें तो कुछ नया नहीं है, यह सब तो हमारे वेदों में है।’’

अंत में साहा ने उनसे पूछा : बताइए कि वेदों में ठीक-ठीक कहाँ पर तारों के आयनीकरण के बारे में लिखा है?

”मैंने स्वयं वेद नहीं पढ़े हैं, किन्तु मुझे पूरा विश्वास है कि जिसे आप नए वैज्ञानिक आविष्कार बताते हैं वे सभी वेदों में विद्यमान हैं।’’ वकील का जवाब था।

डॉ. साहा ने आगे कई सालों तक वेदों, उपनिषदों, पुराणों और रामायण-महाभारत का अध्ययन किया। उनकी आलोचना करने वालो को उनका उत्तर था : क्यों वह (आलोचक) नहीं जानता कि बौद्ध और जैन धर्मों के उदय के साथ भारतीय संस्कृति के सबसे गौरवशाली युग का आरंभ हुआ था, और दोनों ने ही वेदों को भ्रांतियों का पिटारा कहकर पूर्णतया अस्वीकृत कर दिया था। क्या वह यह नहीं जानता की लोकायत मत के अनुसार, ‘तीनों वेदों के रचयिता भंड, धूर्त और निशाचर थे’ (त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचरा:) इन सारी बातों का अर्थ यह है कि ईसा के कुछ समय पहले देश में बुद्धिवादियों का ऐसा एक वर्ग मौजूद था जिसने अनुभव किया था कि वेदों के मन्त्रों का वास्तविक अर्थ जानना अत्यंत कठिन है; केवल कुछ ढोंगी लोग ही वेदों को प्रमाण मानकर गलत विचारों का प्रचार करते हैं।

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होनें इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था। मगर, हमारे देश ये क्या हो रहा है, यहाँ तो हम, हमारे वैज्ञानिक और हमारे नेता वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर कोरी बात करके ही अपना फर्ज पूरा हुआ मानते हैं। और तो और यही बुद्धिजीवी अपने दैनिक क्रियाकलापों में नितांत अवैज्ञानिक व्यवहार करते हुए देखे जा सकते हैं।

पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिकी तकनीकी ज्ञान तो रच-बस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रमक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है। पौराणिक कहानियां पढऩे-सुनने में बहुत दिलचस्प लग सकती हैं परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे कपोलकल्पित हैं। उन्हें सच मानना वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञान की आत्मा के खिलाफ है।

आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को ‘अवैज्ञानिक’ कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारनेवाले छल-कपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज जो प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवा-हवाई दावे किये जा रहें हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए। परंतु यह मानना कि हज़ारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है। दरअसल ऐसी पोगापंथियों के चलते हमारे प्राचीन भारत के वास्तविक योगदान भी छुप से जा रहे हैं क्योंकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढिय़ों का होता है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया होगा कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतना सम्पन्न समाज का निर्माण होगा, परंतु वर्तमान सत्य इससे परे है। जब अपने कार्यक्षेत्र में विज्ञान की आराधना करने वाले वैज्ञानिकों का प्रत्यक्ष सामाजिक व्यवहार ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत हो, तो बाकी बुद्धिजीवियों तथा आम शिक्षित-अशिक्षित लोगों के बारे में क्या अपेक्षा कर सकते हैं!

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है। गौरतलब है कि निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आरम्भ तब से माना जाता है, जब एंथेस के धर्म न्यायाधिकरण ने सुकरात पर मुकदमा चलाया था। सुकरात का कहना था कि ‘सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए भलीभांति प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सच्चाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।’ रूढि़वादी परम्पराओं पर प्रहार करने के कारण एथेंस के शासक की नजरों में सुकरात खटकने लगे थे। उन्होंने सुकरात को जहर पीने या अपने मत को त्याग कर राज्य छोड़ देने का दंड सुनाया। अपने विचारों से समझौता न करते हुए सुकरात ने खुशी-ख़ुशी जहर का प्याला पीकर अपनी जान दे दी। उसके बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण व बौद्धिकता के सफल प्रवक्ताओं का उदय यूरोप में नवजागरण काल के दौरान हुआ। रोजर बेकन ने अपनी छात्रावस्था में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आधारशिला रखी। उन्होंने अरस्तु के सिद्धांतों को प्रयोगों द्वारा जाँच-पड़ताल की वकालत की, जिसके कारण बेकन को आजीवन कारावास की सजा मिली। लेकिन विज्ञान की आधुनिक विधि की खोज फ्रांसिस बेकन ने की कि प्रयोग करना, सामान्य निष्कर्ष निकालना और आगे और प्रयोग करना। रोजर बेकन, ब्रूनों, गैलीलियो के साथ ही धर्मगुरुओं द्वारा वैज्ञानिकों के उत्पीडऩ का सिलसिला शुरू हुआ था। जब डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, तब उन्हें भी चर्च के प्रकोप का सामना करना पड़ा था, लेकिन आख़िरकार सत्य की ही विजय हुई और चर्च ने भी विकासवाद के सामने सिर झुका दिया।

यूरोप में वैज्ञानिक जागृति की जो हवा चली, भारत में अंग्रेजी राज के कारण हमें वहां की विज्ञान एवं तकनीकी उन्नति को समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और वहां की अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो हमारे मन में रच-बस गई मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हमने खिड़की से बाहर फेंक दिया। हमारे समाज ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को तो अपनाया मगर उसने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला!

हमारे देश में आधुनिक विज्ञान अंग्रेजों के जरिए पहुंचा, इसलिए सूर्यकेंद्री सिद्धांत और विकासवाद जैसे सिद्धांतों पर हमारे देश में उतनी खलबली नहीं मची, जितनी यूरोप में मची थी। यहाँ पर विज्ञान जीवन का दृष्टिकोण नहीं बल्कि भौतिक उन्नति का प्रभावशाली साधन बना। यूरोप में वैज्ञानिक अपने सिद्धांतों के प्रति इतने समर्पित थे कि अपने जान की बाजी लगाने से भी नहीं हिचकते थे। यानी उन वैज्ञानिकों के अंदर निडरता थी। भारत में अंग्रजों के जरिये अनुसंधानात्मक विज्ञान तो आ गया मगर उनकी निडर प्रवृत्ति नहीं आ सकी। वैज्ञानिकों के अवैज्ञानिक व्यवहार के पीछे यही कारण है कि हमारे वैज्ञानिक निरर्थक भय से ग्रसित हैं। तभी तो पं. नेहरु ने अपनी पुस्तक ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखा है कि : ‘आजकल विज्ञान का दम भरने वाले वैज्ञानिक तो बहुत हैं, मगर जैसे ही वे अपने क्षेत्र से बाहर की दुनिया में आते हैं, सारा विज्ञान भूल जाते हैं…. हम एक वैज्ञानिक युग में रह रहे हैं, कम से कम ऐसा ही बताया जाता है, लेकिन यह जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण है वह जनता में या उसके नेताओं में ही कहीं पाया जाता हो, इसके प्रमाण हैं भी, तो बहुत कम।’ नेहरु जी का उक्त कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि उस समय (वर्ष 1946 में) था।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बड़े प्रवक्ता स्व. पुष्प मित्र भार्गव ने द हिंदू समाचारपत्र में लिखे अपने एक लेख में बताया था कि ‘भारत ने पिछले 85 वर्षों में एक भी विज्ञान नोबेल पुरस्कार नहीं जीता है, इसका सबसे बड़ा कारण भारत के वैज्ञानिकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अनुपस्थिति है।’ उन्होंने वैज्ञानिकों के अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक उदाहरण यह प्रस्तुत किया कि किस प्रकार से वैज्ञानिकों ने ही उस व्यक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मूल भावना को ही व्यक्त किया गया था। उस वक्तव्य में लिखा था कि ‘मैं विश्वास करता हूं कि ज्ञान एकमात्र मानव प्रयासों से ही प्राप्त किया जा सकता है, न कि किसी किस्म के दैवीय प्रकाश (इलहाम) से। और सभी तरह की समस्याओं का निराकरण मनुष्य के नैतिक व बौद्धिक मूल्यों से सुलझाया जा सकता है, और इसके लिए किसी अलौकिक शक्ति के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है।’ जब एक के बाद एक वैज्ञानिक उक्त व्यक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से मना करते चले गये, तब इस बात की पुष्टि हो गई कि वैज्ञानिक समुदाय में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भारी कमी है! यह घटना भले ही पुरानी हो मगर आज भी वैज्ञानिक समुदाय की यही स्थिति है, विज्ञान कांग्रेस के चार-पाँचअधिवेशन इसकी पुष्टि करते हैं।

रत्न-जडि़त अंगूठियाँ और गंडे-ताबीज पहनना, मुहूर्त निकालकर अपने महत्वपूर्ण कार्यों को करना यहाँ तक अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह तथाकथित ब्रह्ममुहूर्त में सम्पन्न करवाना, बाबाओं के डेरे पर उनके प्रवचन सुनने जाना, पत्र-पत्रिकाओं में अपना राशिफल देखना आदि अधिकांश वैज्ञानिकों के रोजमर्रा के क्रियाकलापों का एक हिस्सा है। तभी तो अगर किसी वैज्ञानिक का बच्चा बीमार पड़ जाता है, तो वह सबसे पहले आयुर्विज्ञान द्वारा खोजे गये दवाओं द्वारा उसका किसी चिकित्सक से इलाज करवायेगा। मगर साथ में बच्चा जल्दी रोगमुक्त हो जाए इसलिए किसी बाबा के मजार पर घुटने टेकना, भगवान से मन्नत मांगना नहीं भूलता। इससे एक कदम और आगे जाकर बच्चे पर भूत-प्रेत की बाधा की आशंका तथा अमंगल के भय से किसी मौलवी या बाबा से गंडे-ताबीज बनवाकर बच्चे के गले में पहनाने के लिए निस्संकोच तैयार रहता है। यहाँ तक कोई वैज्ञानिक नया घर ले रहा होता है तो घर में किसी पंडित से वास्तुशांति करवाना नहीं भूलता और यदि घर में वास्तुदोष निकलता है तो कमरे में घुसने के द्वारों को भी बदलने से नहीं चूकता। यहाँ तक बड़े-बड़े सरकारी पदों पर आसीन वैज्ञानिक भी अवैज्ञानिकता को प्रोत्साहित करने से नहीं कतराते। सत्तर के दशक में एक केन्द्रीय मंत्रालय के वैज्ञानिक सलाहकार ने अपने पुत्र के विवाह के निमंत्रण पत्र में एक बाबा (सत्य साईं बाबा) का बड़ा चित्र छपवाया था और उनकी पावन उपस्थिति में विवाह संस्कार होने की घोषणा की गई थी।

मैं समझता हूँ डॉक्टर भी एक प्रकार के विज्ञानकर्मी हैं, मगर उनमें भी अधिकांश का व्यवहार वैज्ञानिक दृष्टिकोण विरोधी ही होता है। एक बेहद सक्षम और अनुभवी डॉक्टर के क्लिनिक पर इस आशय का बोर्ड भी कभीकभार पढऩे को मिल जाता है कि ‘हम तो केवल माध्यम हैं, आपका ठीक होना न होना ईश्वर पर निर्भर करता है’ मानोकि मरीज की बीमारी डॉक्टरी ईलाज से नहीं बल्कि किसी दैवीय शक्ति के आशीर्वाद से ठीक होगा। डॉक्टरों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता कि उनके मरीज रोगमुक्ति के लिए मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं, बल्कि वे खुद ऐसे कर्मकाण्ड करने से परहेज नहीं करते।

हमारे देश के अंतरिक्ष वैज्ञानिक किसी भी मिशन का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण करने से पहले इसकी सफलता के लिए आंध्रप्रदेश के तिरुपति बालाजी मंदिर में पूजा-अर्चना करना नहीं भूलते बल्कि यदि बड़ा मिशन होता है तो उसके प्रक्षेपण से पहले उपग्रह के पुतले को बालाजी ले जाकर आशीर्वाद प्राप्त करवाते हैं। मंगलयान की शानदार सफलता हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों की काबिलियत का ही कमाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण से पहले इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने इसकी सफलता के लिए तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की थी। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते है कि चूँकि 13 नंबर अशुभ होता है, इसलिए इसरो ने रॉकेट पीएसएलवी-सी 12 भेजने के बाद अशुभ 13 नंबर को छोड़ते हुए सीधे पीएसएलवी-सी 14 अन्तरिक्ष में भेजा।

हमारे कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक भी तथाकथित अवतारों के उत्कट अनुयायी रहे हैं। इसके एक उदाहरण हमारे देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ई. सी. जी. सुदर्शन रहे हैं। वे तथाकथित भावातीत ध्यान के आविष्कारक महर्षि महेश योगी के कट्टर समर्थक माने जाते थे। वे अपनी समस्त खोजों का श्रेय किसी अज्ञात शक्ति या भगवान को देते हैं। हमारे देश में भौतिकी के एक वैज्ञानिक डॉ. मुरली मनोहर जोशी जी भी रहे हैं, जिनको इस बात पर बड़ा गर्व था कि उनके सरनेम ‘जोशी’ की उत्पत्ति ‘ज्योतिष’ शब्द से हुई थी। उन्होंने केंद्र में मंत्री रहते हुए अंधविश्वास और ठग विद्या फलित ज्योतिष को एक वैज्ञानिक धारणा के रूप में स्थापित करने का बड़ा प्रयास किया। आज अनेक वैज्ञानिक ऐसे भी मिल जाएंगे जो यह कहने से नहीं चूकते कि सुपर स्ट्रिंग थ्योरी में दस आयामों की बात की गई है, इसलिए आधुनिक विज्ञान का यह सिद्धांत वेदों की उस मान्यता का समर्थन करते हैं, जिसके अनुसार भूत-प्रेत आदि अदृश्य शक्तियाँ इन अतिरिक्त आयामों में निवास करती हैं। आज डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त ऐसे भी तथाकथित वैज्ञानिक भी मिल जाएंगे जो आपको रामराज्य की सटीक तिथि भी बता देंगे!

इसलिए चाहें वैज्ञानिक हों, राजनेता हों या सामान्य जनमानस सबमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भारी कमी है। मगर क्यों वैज्ञानिक ही अवैज्ञानिक व्यवहार करते नजऱ आते हैं? इसका उत्तर है उस वैज्ञानिक व्यक्ति को भी आम लोगों की तरह बचपन में जो संस्कार सिखाएं जाते हैं, उसके विरुद्ध खड़े होने की उनकी हिम्मत नहीं होती है तथा किसी अदृश्य शक्ति या अलौकिक सत्ता का भय तो बना ही रहता है। आज हमें उन्हीं लोगों को बुद्धिजीवी या वैज्ञानिक कहलाने का अधिकार देना चाहिए जो वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न हो। इसका आधार न सिर्फ ज्ञान बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी हो! यह हमारा दुर्भाग्य है कि 2014 के बाद से, बहुत से दक्षिणपंथी वैज्ञानिक वक्ता विज्ञान कांग्रेस जैसे प्रमुख मंचों पर बोल रहे हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा करने का मौका मिल रहा है। भारत में अवैज्ञानिकता और रूढि़वादिता को सत्ता का भरपूर समर्थन प्राप्त हो रहा है। देखने वाली तो बात यह है कि क्या वैज्ञानिक समुदाय इन सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने के प्रयासों का विरोध कर पाएगा? क्या हमारी आने वाली पीढिय़ां तार्किक ढंग से सोच सकेंगी और वैज्ञानिक शोध को आगे ले जा पाएंगी?

(त्रैमासिक चिंतनपरक पत्रिका ‘पहल’ के 116वे अंक में पूर्व प्रकाशित)

लेखक परिचय

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प्रदीप कुमार एक साइंस ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लिखने में आपकी  रूचि है। विज्ञान से संबंधित आपके लेख-आलेख राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमे – नवभारत टाइम्स, दिल्ली की सेलफ़ी, सोनमाटी, टेक्निकल टुडे, स्रोत, विज्ञान आपके लिए, समयांतर, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, अक्षय्यम, साइंटिफिक वर्ल्ड, विज्ञान विश्व, शैक्षणिक संदर्भ आदि पत्रिकाएँ सम्मिलित हैं। संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर के विद्यार्थी हैं। आपसे इस ई-मेल पते पर संपर्क किया जा सकता है : pk110043@gmail.com

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3 विचार “विज्ञान का मिथकीकरण&rdquo पर;

  1. बहुत सुंदर लेख ये बात सत्य है कि अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण खत्म होता जा रहा है क्योंकि ऐसा लग रहा भारत का प्रधानमंत्री ही कपोल कल्पित छद्म विज्ञान का अंगरक्षक बन बैठा हैं भाई।

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    1. आप के विचार एकदम सटीक और सराहनीय है…और सरकार तो लगता है जानबूझ कर रूढ़िवादिता को बढ़ावा दे रही है , ताकि उसकी सत्ता बरकरार रहें….

      मुझे बस आपकी एक बात पर आपत्ति है कि जिस प्रयोग की कसौटी पर विज्ञान को कसा जाता है , और स्वीकार किया जाता है , उसी प्रकार आध्यत्म को भी प्रयोगों द्वारा जांचा जाएं और फिर स्वीकार या अस्वीकार किया जाए…अगर बिना जाचें स्वीकार करना गलत है तो बिना जांचे एकदम से अस्वीकार करना भी उतना ही गलत है…

      बाकी आपका लेख और आपके लेखन को अक्षरशः स्वीकार करता हूं….👍

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