विक्रम लैंडर साफ़्ट लैंडीग

चंद्रयान-2 : विक्रम लैंडर की असफ़लता


भारत शनिवार 7 सितंबर 2019 की सुबह इतिहास रचने से दो क़दम दूर रह गया। अगर सब कुछ ठीक रहता तो भारत विश्व का पहला देश बन जाता जिसका अंतरिक्षयान चन्द्रमा की सतह के दक्षिण ध्रुव के क़रीब उतरता।

978 करोड़ रुपये की लागत वाला चंद्रयान-2 मानवरहित अभियान है। इसमें उपग्रह की कीमत 603 करोड़ रुपये जबकि जीएसएलवी एमके III की 375 करोड़ रुपये है। 3,840 किलो वजनी चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर का वजन 1,471 किलो और प्रज्ञान रोवर का वजन 27 किलो है।

इससे पहले अमरीका, रूस और चीन ने चन्द्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैन्डिंग करवाई थी लेकिन दक्षिण ध्रुव पर नहीं। कहा जा रहा है कि दक्षिण ध्रुव पर जाना बहुत जटिल था इसलिए भी भारत का यह महात्वाकांक्षी अभियान चन्द्रमा की सतह से 2.1 किलोमीटर दूर रह गया। चंद्रयान-2 जब चंद्रमा की सतह पर उतरने ही वाला था कि लैंडर विक्रम से संपर्क टूट गया।

चंद्रयान 2 अभियान का उद्देश्य

चंद्रयान 1 की खोजों को आगे बढ़ाने के लिए चंद्रयान-2 को भेजा जा रहा है। चंद्रयान-1 के खोजे गए पानी के अणुओं के साक्ष्यों के बाद आगे चंद्रमा की सतह पर, सतह के नीचे और बाहरी वातावरण में पानी के अणुओं के वितरण की सीमा का अध्ययन करने की जरूरत है। इस प्रयास का उद्देश्य चंद्रमा को लेकर हमारी समझ को और बेहतर करना और मानवता को लाभान्वित करने वाली खोज करना है।

इस अभियान के लिए भारत के सबसे ताकतवर 640 टन के रॉकेट जीएसएलवी एमके-3 का प्रयोग हुआ है। इस यान ने 3890 किलो के चंद्रयान-2 को पृथ्वी की कक्षा मे स्थापित किया। इस यान मे 13 भारतीय और एक नासा के वैज्ञानिक उपकरण है। इनमें से आठ ऑर्बिटर उपकरण में, तीन लैंडर में और दो रोवर में है।

चंद्रयान 2 अभियान पर भेजे गये अंतरिक्षयान के तीन हिस्से हैं- एक ऑर्बिटर, एक लैंडर (नाम विक्रम, जो भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक कहलाने वाले विक्रम साराभाई के नाम पर है) और एक छह पहियों वाला रोबोट रोवर (प्रज्ञान)। ये सभी इसरो ने बनाए हैं।

चंद्रयान आर्बीटर का इसका उद्देश्य चंद्रमा की सतह का नक्शा तैयार करना, खनिजों की मौजूदगी का पता लगाना, चंद्रमा के बाहरी वातावरण को स्कैन करना और किसी न किसी रूप में पानी की उपस्थिति का पता लगाना है। विक्रम लैंडर अभियान का प्राथमिक उद्देश्य चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित उतरना या कहे कि धीरे-धीरे आराम से उतरना (सॉफ्ट-लैंडिंग) और फिर सतह पर रोबोट रोवर संचालित करना था।

विक्रम लैंडर

ऑर्बिटर और विक्रम लैंडरविक्रम लैंडर की योजना 7 सितंबर को चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र के पास दो ज्वालामुखियों मैनज़ीनस सी और सिमपेलियस एन के बीच में ऊंची सपाट जगह पर उतरने की थी। इस लैंडर मे प्रज्ञान रोवर इस इलाक़े में पृथ्वी के 14 दिनों (एक लुनर डे) तक जांच और प्रयोग करने वाला था। जबकि ऑर्बिटर का अभियान एक साल तक के लिए जारी रहेगा।

इसके अलावा चंद्रयान-2 के रोवर की योजना चंद्रमा पर अशोक चक्र और इसरो के प्रतीक की छाप छोड़ना थी। रोवर के एक पैर पर अशोक चक्र और दूसरे पर इसरो का प्रतीक छपा हुआ है जो उसके चलने के दौरान चंद्रमा पर जाते।

वास्तविकता मे क्या हुआ होगा ?

अमरीका, रूस और चीन को चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैन्डिंग में सफलता मिली है। भारत शुक्रवार की रात इससे चूक गया। सॉफ्ट लैन्डिंग का मतलब होता है कि आप किसी भी सैटलाइट को किसी लैंडर से सुरक्षित उतारें और वो अपना काम सुचारू रूप से कर सके। चंद्रयान-2 को भी इसी तरह चन्द्रमा की सतह पर उतारना था लेकिन आख़िरी क्षणों में सभव नहीं हो पाया।

विश्व भर के 50 फ़ीसदी से भी कम अभियान हैं जो सॉफ्ट लैंडिंग में कामयाब रहे हैं। जो भी अंतरिक्ष विज्ञान को समझते हैं वो ज़रूर भारत के इस प्रयास को प्रोत्साहन देंगे। इसरो का अब बड़ा अभियान गगनयान का है जिसमें अंतरिक्षयात्री को भेजा जाना है।

क्या है हार्ड लैंडिंग?

चंद्रमा पर किसी स्पेसक्राफ्ट की लैंडिंग दो तरीके से होती है- सॉफ्ट लैंडिंग और हार्ड लैंडिंग। जब स्पेसक्राफ्ट की गति को धीरे-धीरे कम करके चंद्रमा की सतह पर उतारा जाता है तो उसे सॉफ्ट लैंडिंग कहते हैं जबकि हार्ड लैंडिंग में स्पेसक्राफ्ट चंद्रमा की सतह पर क्रैश करता है।

सॉफ्ट लैन्डिंग का मतलब होता है कि आप किसी भी सैटलाइट को किसी लैंडर से सुरक्षित उतारें और वो अपना काम सुचारू रूप से कर सके।

इन दोनो के मध्य एक तीसरा उपाय भी होता है , जिसमे पैराशुट और गुब्बारो का प्रयोग होता है। इस उपाय मे पैराशुट से यान की गति कम की जाती है। लैंडर के चारो ओर गुब्बारे लगे होते है जो लैंडर के सतह पर पहुंचने से पहले फ़ुलाये जाते है। सतह से टकराने पर होने वाले झटके को ये गुब्बारे झेल जाते है। लेकिन इस उपाय के साथ बहुत सी जटिलताये है। प्रथम : यह पृथ्वी या मंगल जैसे ग्रह पर ही प्रयोग किया जा सकता है जहाँ पर वायुमंडल है। चंद्रमा पर वायुमंडल ना होने से पैराशुट गति कम नही कर पायेंगे। दूसरा पैराशुट और गुब्बारे यान का द्रव्यमान बढ़ा देते है, अधिक जटिल यांत्रिकी प्रयोग करनी होती है। नासा के रोवर इसी तकनीक का प्रयोग कर मंगल पर उतरे है।

साफ़्ट लैंडीग कैसे होती है?

विक्रम लैंडर साफ़्ट लैंडीग
विक्रम लैंडर साफ़्ट लैंडीग

अंतरिक्ष मे राकेट, लैंडर या कोई भी अंतरिक्ष यान न्यूटन के तीसरे नियम पर ही कार्य करते है। ये यान इंधन जला कर राकेट नोजल से उष्ण गैस का उत्सर्जन करते है, जो यान को उत्सर्जन की विपरित दिशा मे धकेलता है। गति कम करने , अधिक करने , दिशा बदलने हर तरह के कार्य मे इन्ही राकेट इंजन का प्रयोग होता है। गति बढ़ाना हो तो जिस दिशा मे यान जा रहा है उसके विपरित दिशा मे राकेट उत्सर्जन करेगा। गति कम करना हो अर्थात ब्रेक लगाना हो तो राकेट की गति कि दिशा मे राकेट उत्सर्जन करेगा। बायें मुड़ना हो तो दायें दिशा वाला राकेट उत्सर्जन करेगा, दायें मुड़ना हो तो बायें दिशा वाला राकेट उत्सर्जन करेगा।

लैंडर यान मे इन सारे कार्यो के लिये कम से कम पांच राकेट लगे होते है। चार छोटे राकेट दिशा नियंत्रित करने और पांचवा राकेट गति निंयत्रण के लिये। विक्रम लैंडर मे ऐसे पांच राकेट लगे हुये है। चार इंजन प्रत्येक दिशा मे और मुख्य इंजन बीच मे। मुख्य इंजन का काम लैंडर की गति को कम करना था, जबकि अन्य इंजन दिशा नियंत्रित कर रहे थे।

लैंडर के चंद्रमा पर उतरने से पहले वह आर्बिटर से जुड़ा हुआ था। लैंडींग से कुछ दिन पहले 2 सितंबर को वह चंद्रयान 2 आर्बीटर से अलग हुआ। 3 सितंबर को उसके मुख्य इंजन को दो बार जला कर उसे चंद्रमा की सतह से दूरी कम कर 101×35 किमी की कक्षा मे लाया गया।

विक्रम लैंडर को भारतीय समयानुसार 6 सितंबर को रात के 1 बजकर 53 मिनट पर चंद्रमा की सतह पर उतरना था। विक्रम रोवर को 1 बजकर 35 मिनट पर ऑर्बिटर से चंद्रमा की सतह पर लैंड करने जाना था। यह सतह से करीब 35 किलोमीटर ऊपर चक्कर लगा रहा था। 1 बजकर 37 मिनट पर विक्रम लैंडर चंद्रमा की सतह पर उतरने के लिए आगे बढ़ता है। उस समय इसकी रफ्तार करीब 21,600 किलोमीटर प्रति घंटा थी। लैंडिंग के समय इसे कम होकर 7 किलोमीटर प्रति घंटा तक आना था, जिससे यह आराम से लैंड हो सके।

6 सितंबर को उसके मुख्य इंजन को एक बार फ़िर से जलाया गया और इस प्रज्वलन ने लैंडर को चंद्रमा की ओर धकेला और लैंडर ने चंद्रमा की सतह पर लैंडीग आरंभ की। अब उसकी दिशा और गति पर नियंत्रण कंप्युटर प्रोग्राम द्वारा संचालित पांचो इंजन कर रहे थे। 30 किमी की दूरी से चंद्रमा की सतह पर उतरने के दौरान विक्रम ने पहले 10 मिनट का कठीन गति कम करने का चरण(Rough breaking phase)सफलतापूर्वक पार कर लिया था। इस चरण में उसकी गति को 1680 मीटर प्रति सेकंड से 146 मीटर प्रति सेकंड पर लाया गया था। शेष पांच किलोमीटर के गति कम करने के (Fine breaking phase) के दौरान हुई गड़बड़ी के चलते नियंत्रण कक्ष से ने लैंडर से संपर्क खो दिया।

योजना के मुताबिक इसकी रफ्तार कम होने लगी थी, चंद्रमा की सतह से करीब पांच किलोमीटर ऊपर इसने रफ ब्रेकिंग फेज को सफलतापूर्वक पार किया। लेकिन इसके बाद स्थिति बिगड़ गई। चंद्रमा की सतह से 2.1 किलोमीटर पहले विक्रम से संपर्क टूट गया। जिसके बाद यह पता नहीं लग सका कि यह किस रफ्तार से चंद्रमा की सतह पर उतरा। विक्रम लैंडर को 7 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चंद्रमा की सतह पर उतरना था। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह 18 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित उतर सकता है। लेकिन इस बारे में जानकारी नहीं है कि विक्रम की सेफ लैंडिंग हुई या क्रैश लैंडिंग।

एक संभावना के अनुसार गति कम करने के प्रथम चरण( (Rough breaking phase) के दौरान विक्रम के पैर क्षैतिज (Horizontal)अवस्था में थे। गति कम करने के अंतिम चरण (Fine breaking phase) से पहले यान कि दिशा को 90 डिग्री मोड़कर उर्ध्वाधर (vertical) करना था। संभवत : इस दौरान तेजी से ब्रेक लगने से ही लैंडर की अवस्था बदल गई थी। इस अंतिम चरण मे ब्रेक के अधिक तेजी से लगने से यान का दिशा से नियंत्रण हट गया और वह रोल होते हुये, चंद्रमा की सतह से जा टकराया।

विक्रम लैंडर को चंद्रमा पर एक ऐसी जगह पर उतरना था जो दो बड़े गड्ढों के बीच में थी। जब विक्रम लैंडर अनुमानित रफ्तार से चंद्रमा की सतह से 100 मीटर ऊपर पहुंचता तो तकनीक के माध्यम से इसे अनुमान लगाना था कि जो जगह इसके उतरने के लिए तय की गई है वह उतरने के अनुकूल है या नहीं। मसलन यह जगह अपेक्षित समतल हो, यहां कोई बड़ा पत्थर ना हो और यहां सफलतापूर्वक उतरा जा सके। क्योंकि पृथ्वी से चंद्रमा की सतह के बारे में इतना सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता, इसके लिए चंद्रमा की सतह से 100 मीटर ऊपर यह निर्वात में स्थिर हो जाता।

इन सारी जानकारियों को जुटाने के बाद वह उस जगह उतरता। अगर वह जगह ठीक नहीं होती तो आसपास मौजूद सबसे अनुकूल जगह पर विक्रम लैंड होता। लैंड होने के तीन घंटे बाद प्रज्ञान रोवर इसमें से निकलता और चंद्रमा की जानकारी इकट्ठा करना शुरू करता। ये दोनों 14 दिन तक काम करते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

लैंड करने से 13 मिनट पहले ही इसरो का संपर्क टूट गया। संपर्क टूटने से पहले भी जो आंकड़े इसरो के पास आए उनमें भी विक्रम अनुमानित गति से तेज गति से लैंड कर रहा था। ऐसे में यह आशंका ज्यादा प्रबल होती है कि विक्रम की क्रैश लैंडिंग हुई होगी। यह कहां उतरा, कैसे उतरा इसकी जानकारी आने में समय लगेगा।

क्या हो सकती है संपर्क टूटने की वजह?

संपर्क टूटने का मतलब यह नहीं कि विक्रम की क्रैश लैंडिंग ही हुई हो। संपर्क टूटने की वजह कोई तकनीकी खराबी या रोवर को मिल रही ऊर्जा में कोई दिक्कत भी हो सकती है। अगर रोवर तय रफ्तार से बहुत ज्यादा तेजी से चंद्रमा की सतह पर उतरा होगा तो यह क्रैश हो गया होगा। ऐसे में इससे संपर्क नहीं हो सकेगा।

ऐसा नहीं है कि अंतरिक्ष में भेजे गए किसी ऑब्जेक्ट से पहली बार संपर्क टूटा हो और फिर स्थापित ना हो सका हो। कुछ साल पहले इसरो का अपने एक सैटेलाइट से संपर्क टूट गया था। लेकिन बाद में कई प्रयासों के बाद इससे संपर्क स्थापित हो गया था। इन दोनों परिस्थितियों में बड़ा अंतर यह है कि वह सैटेलाइट किसी सतह पर उतरने नहीं जा रहा था। ऐसे में उसकी क्रैश लैंडिंग जैसी कोई संभावना ही नहीं थी।

आगे क्या ?

चंद्रयान के आर्बिटर ने विक्रम को खोज लिया है। लेकिन उससे संपर्क स्थापित नही हो पाया है। अंतरिक्ष विशेषज्ञों ने कहा है कि हार्ड-लैंडिंग के दौरान लैंडर विक्रम को नुकसान पहुंचने की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। एक विशेषज्ञ ने बताया कि जिस गति से उसे सॉफ्ट-लैंडिंग करनी थी, उस गति से उसने नहीं किया है। हो सकता है कि वह (लैंडर) अपने चारों पैरों पर न हो। झटकों (हार्ड-लैंडिंग की वजह से) से लैंडर को नुकसान पहुंचा होगा। न्यूज एजेंसी आईएएनएस ने एक अधिकारी के हवाले से बताया है कि ऐसा लगता है कि लैंडर चांद की सतह से तेजी से टकराया है और इस कारण वह पलट गया है। अब उसकी स्थिति ऊपर की ओर बताई जा रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी संभावना भी है कि इससे लैंडर टूट गया हो। इसरो के वैज्ञानिक डेटा का विश्लेषण कर यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि हार्ड-लैंडिंग से लैंडर को नुकसान पहुंचा है या नहीं, अगर हां तो कितना नुकसान हुआ है।

विक्रम लैंडर से भले निराशा मिली है लेकिन यह अभियान नाकाम नहीं रहा है, क्योंकि चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर चंद्रमा की कक्षा में अपना काम कर रहा है। इस ऑर्बिटर में कई वैज्ञानिक उपकरण हैं और अच्छे से काम कर रहे हैं। विक्रम लैन्डर और प्रज्ञान रोवर का प्रयोग था और इसमें ज़रूर झटका लगा है। इस हार में जीत भी है। चंद्रमा पर चंद्रयान 1 ऑर्बिटर भारत ने पहले भी पहुंचाया था लेकिन इस बार का ऑर्बिटर ज़्यादा आधुनिक है। चंद्रयान-1 के ऑर्बिटर से चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर ज़्यादा आधुनिक और वैज्ञानिक उपकरणों से लैस है।

विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर का प्रयोग भारत के लिए पहली बार था और यह ज्ञात था कि इसके आख़िरी 15 मिनट दहशत के होंगे। यह एक प्रयोग था और इसमें झटका लगा है। ज़ाहिर है हर प्रयोग कामयाब नहीं होते। जैसा कि अनुमान है कि शुक्रवार की रात 1.40 बजे विक्रम लैंडर ने चंद्रमा की सतह पर उतरना शुरू किया था और क़रीब 2.51 के आसपास संपर्क टूट गया।

दक्षिणी धुव्र पर ही लैंडिंग क्यों?

यह सही बात है कि चंद्रमा सतह के दक्षिणी ध्रुव पर कोई भी रोबोटिक लैंडर नहीं उतर पाया है। कोई यह पूछ सकता है कि जोखिम होने पर भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास ही चंद्रयान क्यों उतरा जा रहा है और चंद्रमा में खोज के लिए जाने वाले अभियान के लिए ये ध्रुव महत्वपूर्ण क्यों बन गए हैं।

दरअसल, चंद्रमा का दक्षिणी धुव्र एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी अभी तक जांच नहीं की गई। यहां कुछ नया मिलने की संभावना हैं। इस इलाके का अधिकतर हिस्सा छाया में रहता है और सूरज की किरणें न पड़ने से यहां बहुत ज़्यादा ठंड रहती है। वैज्ञानिकों का अंदाजा है कि हमेशा छाया में रहने वाले इन क्षेत्रों में पानी और खनिज होने की संभावना हो सकती है। हाल में किए गए कुछ ऑर्बिट अभियान में भी इसकी पुष्टि हुई है।

पानी की मौजूदगी चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र पर भविष्य में इंसान की उपस्थिति के लिए फायदेमंद हो सकती है। यहां की सतह की जांच ग्रह के निर्माण को और गहराई से समझने में भी मदद कर सकती है। साथ ही भविष्य के अभियानों के लिए संसाधन के रूप में इसके इस्तेमाल की क्षमता का पता चल सकता है।

इसरो के अनुसार दक्षिणी ध्रुव पर उतरना हो या विषुवत पर उतरना हो या उत्तरी क्षेत्र मे उतरना हो सबमें जटिलतायें एक जैसी ही हैं। इसरो के चेयरमैन ने साफ़ कहा था कि दक्षिणी ध्रुव हो या कोई और ध्रुव सबमें उतनी ही चुनौतियां थीं।

ये बिल्कुल सही बात है कि चंद्रयान-2 को बिल्कुल नई जगह पर भेजा गया था ताकि नई चीज़ें सामने आएं। पुरानी जगह पर जाने का कोई फ़ायदा नहीं था इसलिए नई जगह चुनी गई थी। चंद्रयान 2 ऑर्बिटर तो काम कर रहा है। चंद्रमा पर पानी की खोज भारत का मुख्य लक्ष्य था और वो काम ऑर्बिटर कर रहा है। भविष्य में इसका डेटा ज़रूर आएगा।

इसके नतीजे क्या होंगे ?

लैंडर विक्रम मुख्य रूप से चंद्रमा की सतह पर जाकर वहाँ का विश्लेषण करने वाला था। वो अब नहीं हो पाएगा। वहाँ की चट्टान का विश्लेषण करना था वो अब नहीं हो पाएगा। विक्रम और प्रज्ञान से चंद्रमा की सतह की सेल्फी आती और विश्व देखती, अब वो संभव नहीं है। विक्रम और प्रज्ञान एक दूसरे की सेल्फी भेजते, अब वो नहीं हो पाएगा।

यह एक वैज्ञानिक अभियान था और इसे बनने में 11 साल लगे थे। इसका ऑर्बिटर सफल रहा और लैंडर, रोवर असफल रहे। इस असफलता से इसरो पीछे नहीं जाएगा । इसरो पहले समझने की कोशिश करेगा कि क्या हुआ है, उसके बाद अगले क़दम पर फ़ैसला करेगा।

क्या अभियान चंद्रयान-2 विफल हुआ?

विक्रम लैंडर के संपर्क टूटने के बाद यह आम धारणा बनी कि भारत का अभियान चंद्रयान-2 विफल हो गया। अंतरिक्ष अभियान सिर्फ किसी एक चीज पर निर्भर नहीं करते हैं। इनके अलग अलग चरण होते हैं। हर चरण के पूरा होने पर नई जानकारियां मिलती हैं। चंद्रयान-2 के साथ भी ऐसा ही है। इसरो के अनुसार विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर चंद्रयान अभियान का पांच प्रतिशत हिस्सा थे। 95 प्रतिशत हिस्सा चंद्रयान-2 ऑर्बिटर का है जो अभी भी सुरक्षित है और चंद्रमा का चक्कर लगा रहा है। चंद्रयान-2 ऑर्बिटर चंद्रमा की सतह की तस्वीरों की मदद से जानकारी भेजता रहेगा। यह एक साल के लिए सक्रिय रहेगा। प्रज्ञान रोवर का काम जीवनसमय सिर्फ 14 दिन का था। लेकिन चंद्रयान-2 ऑर्बिटर एक साल तक के लिए है जो अपना काम करता रहेगा। यह चंद्रमा का एक नक्शा तैयार करेगा जो आगे के अभियानों में बहुत काम आएगा।”

भले ही विक्रम लैंडर सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर उतरने में कामयाब नहीं रहा लेकिन ऑर्बिटर चंद्रमा की कक्षा में अपना काम कर रहा है। 2,379 किलो वजन के ऑर्बिटर की अभियान लाइफ एक साल की है और यह 100 किलोमीटर की दूरी से चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा है।

चंद्रयान-1 की तुलना में चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर ज़्यादा आधुनिक और वैज्ञानिक उपकरणों से लैस है और ये अच्छे से काम कर रहे हैं

जीएसएलवी मार्क 3 लॉन्च व्हीकल से भेजे गए चंद्रयान-2 ऑर्बिटर का चंद्रमा की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित होना भी भारत के लिए एक बड़ी कामयाबी है। विक्रम लैंडर और प्रज्ञान लैंडर का काम चंद्रमा की सतह के बारे में जानकारी लेना, उसके वातावरण का पता लगाना, तापमान और ताप चालकता के बारे में पता करना और चंद्रमा पर होने वाली सीस्मिक गतिविधियों यानी भूकंप से जुड़ी हुई गतिविधियों की जानकारी इकट्ठा करना था। चंद्रमा पर पानी होने का पता लगाने सहित ज्यादा महत्वपूर्ण काम चंद्रयान ऑर्बिटर के हैं जो अभी भी काम कर रहा है।

चंद्रयान-2 चंद्रमा पर भेजे गए दुनिया के किसी भी ऑर्बिटर की तुलना में सबसे कम खर्च में भेजा गया ऑर्बिटर है। भारत ने चंद्रयान-2 पर करीब 950 करोड़ रुपये खर्च किए। यह खर्च किसी और देश द्वारा चंद्रमा पर भेजे गए किसी भी अभियान से कम है। अगर विज्ञान की नजर से देखें तो यह अभियान तयशुदा तरीके से नहीं हुआ लेकिन अभी काम कर रहा है। इसका 95 फीसदी हिस्सा सही है और इससे बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकेंगी।

चंद्रयान-1

चंद्रयान-1 चंद्रमा पर जाने वाला भारत का पहला अभियान था। ये अभियान लगभग एक साल (अक्टूबर 2008 से सितंबर 2009 तक) था। चंद्रयान-1 को 22 अक्टूबर 2008 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से अंतरिक्ष में भेजा गया था।

ये आठ नवंबर 2008 को चंद्रमा पर पहुंच गया था। इस चंद्रयान ने चंद्रमा की कक्षा में 312 दिन बिताए थे। चंद्रयान 1 को चंद्रमा के कक्ष में जाना था, कुछ मशीनरी स्थापित करनी थी। भारत का झंडा लगाना था और आंकड़े भेजने थे और चंद्रयान ने इसमें से सारे काम लगभग पूरे कर लिए हैं।

चंद्रयान-1 का उद्देश्य न केवल अंतरिक्ष में भारत की तकनीक का प्रदर्शन करना था बल्कि इसका उद्देश्य चंद्रमा के बारे में वैज्ञानिक जानकारी जुटाना भी था। इसका लक्ष्य चंद्रमा के भूविज्ञान, खनिज विज्ञान और ज़मीन के बारे में डेटा इकट्ठा करना था।

“हमारे पहले के अभियान यानी चंद्रयान-1 और मंगलयान से बहुत से युवाओं को प्रेरणा मिली है। इससे भारत की कम पैसे और कम समय में स्पेस अभियान बनाने वाले देश की छवि बनती है। इससे हमें उन देशों के अंतरिक्ष अभियान भेजने का मौक़ा मिलता है, जिनके पास ख़ुद की तकनीक और सुविधाएं नहीं हैं।”

चंद्रयान-1 अभियान ने चंद्रमा के ध्रुवीय इलाक़े में मून इम्पैक्ट प्रोब को उतारा था। पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम का सुझाव था कि इस पर भारत का तिरंगा लगा होना चाहिए। चंद्रयान-1 अभियान के दौरान 15 किलो का मून इम्पैक्ट प्रोब ऑर्बिटर से अलग होकर चंद्रमा की सतह पर गिरा था। इस प्रोब में नासा का एम-3 नाम का एक यंत्र था, जिसका पूरा नाम द मून मिनरोलॉजी मैपर था। इसी की मदद से इस बात की पुष्टि हुई थी कि चंद्रमा की मिट्टी पर पानी है।

पानी होने के सबूत
सितंबर 2009 में नासा ने ऐलान किया था कि चंद्रयान -1 के डेटा ने चंद्रमा पर बर्फ़ होने के सबूत पाए गए हैं। अन्य अंतरिक्ष यानों की टिप्पणियों ने भी चंद्रमा पर पानी होने के संकेत दिए हैं। नासा ने नवंबर 2009 में घोषणा की थी कि नासा के LCROSS (लूनर क्रेटर ऑब्जर्वेशन एंड सेंसिंग सैटेलाइट) ने चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में पानी की मात्रा के संकेत दिए है।

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3 विचार “चंद्रयान-2 : विक्रम लैंडर की असफ़लता&rdquo पर;

  1. मुझे ििइसरो चीफ द्वारा विज्ञान के छेत्र में पूजा पाठ के अड़ंगे इस्तेमाल करने पर आपत्ति है , ये देश के आत्मविश्वास को कम करता है ।

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