
आधुनिक काल को हम वैज्ञानिक युग की संज्ञा देते हैं। विज्ञान ने मानव के सामर्थ्य एवं सीमाओं का विस्तार किया है। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच गहरा संबंध होता है। आज अनगिनत उपकरण व डिवाइस हमारे दैनिक जीवन के अंग बन चुके हैं। लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब सा विरोधाभास दिखाई देता है। एक तरफ तो हम विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली खोजों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। मगर दूसरी तरफ कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों ने भी हमारे जीवन और समाज में जगह बनाए हुए हैं। हमारे समाज की शिक्षित व अशिक्षित दोनों ही वर्गों की बहुसंख्य आबादी निर्मूल एवं रूढ़िगत मान्यताओं की कट्टर समर्थक है। आज का प्रत्येक शिक्षित मनुष्य वैज्ञानिक खोजों को जानना, समझना चाहता है। वह प्रतिदिन टीवी, समाचार पत्रों एवं जनसंचार के अन्य माध्यमों से नई खबरों को जानने का प्रयास करता है। तो दूसरी तरफ यही शिक्षित लोग कुरीतियों, मिथकों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं पाखंडों के भी शिकार बन जाते हैं।
वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रमक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कशीलता, धर्मनिरपेक्षता, मानवता और समाजवाद की बजाय अवैज्ञानिकता, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास और असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा रहा है। शिक्षित लोगों से लेकर अशिक्षित लोगों तक अंधविश्वासों और पाखंडों के समर्थक हैं, यहाँ तक हमारे देश के कई वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी इसके अपवाद नहीं हैं ; जो चकित करता है।
हमारी इन तमाम बुराइयों और कुरीतियों की जड़ में है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर यकीन करने की प्रवृत्ति अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पूर्णतया अभाव। सचमुच हमारे देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की इतनी भारी कमी है कि हम भौंचक्के रह जाते हैं, फिर चाहें वह फलित ज्योतिष का समर्थन हो, पाखंडी बाबाओं का अनुसरण हो या फिर पुनर्जन्म और भूत-प्रेत में यकीन करनेवालों की संख्या हो!
यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण या सोच क्या है?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण मूलतः एक ऐसी मनोवृत्ति या सोच है जिसका मूल आधार किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित कार्य-कारण को जानने की प्रवृत्ति है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे अंदर अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित करती है तथा विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायता करती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शर्त है बिना किसी प्रमाण के किसी भी बात पर विश्वास न करना या उपस्थित प्रमाण के अनुसार ही किसी बात पर विश्वास करना।

प्राकृतिक घटनाओं, क्रियाओं और उनके पीछे के कारण ढूढ़ने की मानवीय जिज्ञासा ने एक सुव्यवस्थित विधि को जन्म दिया जिसे हम ‘वैज्ञानिक विधि’ या ‘वैज्ञानिक पद्धति’ के नाम से जानते हैं। सरल शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक जिस विधि का उपयोग विज्ञान से संबंधित कार्यों में करते हैं, उसे वैज्ञानिक विधि कहते हैं। वैज्ञानिक विधि के प्रमुख पद या इकाईयां हैं : जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान। विज्ञान के किसी भी सिद्धांत में इन पदों या इकाईयों की उपस्थिति अनिवार्य है। विज्ञान का कोई भी सिद्धांत, चाहे वह आज कितना भी सही लगता हो, जब इन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता है तो उस सिद्धांत का परित्याग कर दिया जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हैं। आप सोच रहे होगें कि इस वैज्ञानिक विधि का उपयोग केवल विज्ञान से संबंधित कार्यों में ही होता होगा, जैसाकि मैंने ऊपर परिभाषित किया है। परंतु ऐसा नहीं है, यह हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है। दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है। इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

इसलिए प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए प्रयास करे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किये। इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा वर्ष 1958 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना। उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था।
हमारे संविधान निर्माताओं ने यही सोचकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मौलिक कर्तव्यों की सूची में शामिल किया होगा कि भविष्य में वैज्ञानिक सूचना एवं ज्ञान में वृद्धि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त चेतनासम्पन्न समाज का निर्माण होगा, परंतु वर्तमान सत्य इससे परे है। जब अपने कार्यक्षेत्र में विज्ञान की आराधना करने वाले वैज्ञानिकों का प्रत्यक्ष सामाजिक व्यवहार ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत हो, तो बाकी बुद्धिजीवियों तथा आम शिक्षित-अशिक्षित लोगों के बारे में क्या अपेक्षा कर सकते हैं!
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है। गौरतलब है कि निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आरम्भ तब से माना जाता है, जब एंथेस के धर्म न्यायाधिकरण ने सुकरात पर मुकदमा चलाया था। सुकरात का कहना था कि ‘सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए भलीभांति प्रयत्न किया जाए ; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सच्चाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।’ रूढ़िवादी परम्पराओं पर प्रहार करने के कारण एथेंस के शासक की नजरों में सुकरात खटकने लगे थे। उन्होंने सुकरात को जहर पीने या अपने मत को त्याग कर राज्य छोड़ देने का दंड सुनाया। अपने विचारों से समझौता न करते हुए सुकरात ने खुशी-ख़ुशी जहर का प्याला पीकर अपनी जान दे दी। उसके बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण व बौद्धिकता के सफल प्रवक्ताओं का उदय यूरोप में नवजागरण काल के दौरान हुआ। रोजर बेकन ने अपनी छात्रावस्था में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आधारशिला रखी। उन्होंने अरस्तु के सिद्धांतों को प्रयोगों द्वारा जाँच-पड़ताल की वकालत की, जिसके कारण बेकन को आजीवन कारावास की सजा मिली। लेकिन विज्ञान की आधुनिक विधि की खोज फ्रांसिस बेकन ने की कि प्रयोग करना, सामान्य निष्कर्ष निकालना और आगे और प्रयोग करना। रोजर बेकन, ब्रूनों, गैलीलियो के साथ ही धर्मगुरुओं द्वारा वैज्ञानिकों के उत्पीड़न का सिलसिला शुरू हुआ था। जब डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, तब उन्हें भी चर्च के प्रकोप का सामना करना पड़ा था, लेकिन आख़िरकार सत्य की ही विजय हुई और चर्च ने भी विकासवाद के सामने सिर झुका दिया।
यूरोप में वैज्ञानिक जागृति की जो हवा चली, भारत में अंग्रेजी राज के कारण हमें वहां की विज्ञान एवं तकनीकी उन्नति को समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और वहां की अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो हमारे मन में रच-बस गई मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हमने खिड़की से बाहर फेंक दिया। हमारे समाज ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को तो अपनाया मगर उसने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला!
हमारे देश में आधुनिक विज्ञान अंग्रेजों के जरिए पहुंचा, इसलिए सूर्यकेंद्री सिद्धांत और विकासवाद जैसे सिद्धांतों पर हमारे देश में उतनी खलबली नहीं मची, जितनी यूरोप में मची थी। यहाँ पर विज्ञान जीवन का दृष्टिकोण नहीं बल्कि भौतिक उन्नति का प्रभावशाली साधन बना। यूरोप में वैज्ञानिक अपने सिद्धांतों के प्रति इतने समर्पित थे कि अपने जान की बाजी लगाने से भी नहीं हिचकते थे। यानी उन वैज्ञानिकों के अंदर निडरता थी। भारत में अंग्रजों के जरिये अनुसंधानात्मक विज्ञान तो आ गया मगर उनकी निडर प्रवृत्ति नहीं आ सकी। वैज्ञानिकों के अवैज्ञानिक व्यवहार के पीछे यही कारण है कि हमारे वैज्ञानिक निरर्थक भय से ग्रसित हैं।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बड़े प्रवक्ता स्व. पुष्प मित्र भार्गव ने द हिंदू समाचारपत्र में लिखे अपने एक लेख में बताया था कि ‘भारत ने पिछले 85 वर्षों में एक भी विज्ञान नोबेल पुरस्कार जीता है, इसका सबसे बड़ा कारण भारत के वैज्ञानिकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अनुपस्थिति है।’ उन्होंने वैज्ञानिकों के अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक उदाहरण यह प्रस्तुत किया कि किस प्रकार से वैज्ञानिकों ने ही उस व्यक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मूल भावना को ही व्यक्त किया गया था। उस वक्तव्य में लिखा था कि ‘मैं विश्वास करता हूं कि ज्ञान एकमात्र मानव प्रयासों से ही प्राप्त किया जा सकता है, न कि किसी किस्म के दैवीय प्रकाश (इलहाम) से। और सभी तरह की समस्याओं का निराकरण मनुष्य के नैतिक व बौद्धिक मूल्यों से सुलझाया जा सकता है, और इसके लिए किसी अलौकिक शक्ति के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है।’ जब एक के बाद एक वैज्ञानिक उक्त व्यक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से मना करते चले गये, तब इस बात की पुष्टि हो गई कि वैज्ञानिक समुदाय में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भारी कमी है! यह घटना भले ही पुरानी हो मगर आज भी वैज्ञानिक समुदाय की यही स्थिति है।
रत्न-जड़ित अंगूठियाँ और गंडे-ताबीज पहनना, मुहूर्त्त निकालकर अपने महत्वपूर्ण कार्यों को करना यहाँ तक अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह तथाकथित ब्रह्ममुहूर्त में सम्पन्न करवाना, बाबाओं के डेरे पर उनके प्रवचन सुनने जाना, पत्र-पत्रिकाओं में अपना राशिफल देखना आदि अधिकांश वैज्ञानिकों के रोजमर्रा के क्रियाकलापों का एक हिस्सा है। तभी तो अगर किसी वैज्ञानिक का बच्चा बीमार पड़ जाता है, तो वह सबसे पहले आयुर्विज्ञान द्वारा खोजे गये दवाओं द्वारा उसका किसी चिकित्सक से इलाज करवायेगा। मगर साथ में बच्चा जल्दी रोगमुक्त हो जाए इसलिए किसी बाबा के मजार पर घुटने टेकना, भगवान से मन्नत मांगना नहीं भूलता। इससे एक कदम और आगे जाकर बच्चे पर भूत-प्रेत की बाधा की आशंका तथा अमंगल के भय से किसी मौलवी या बाबा से गंडे-ताबीज बनवाकर बच्चे के गले में पहनाने के लिए निस्संकोच तैयार रहता है। यहाँ तक कोई वैज्ञानिक नया घर ले रहा होता है तो घर में किसी पंडित से वास्तुशांति करवाना नहीं भूलता और यदि घर में वास्तुदोष निकलता है तो कमरे में घुसने के द्वारों को भी बदलने से नहीं चूकता। यहाँ तक बड़े-बड़े सरकारी पदों पर आसीन वैज्ञानिक भी अवैज्ञानिकता को प्रोत्साहित करने से नहीं कतराते। सत्तर के दशक में एक केन्द्रीय मंत्रालय के वैज्ञानिक सलाहकार ने अपने पुत्र के विवाह के निमंत्रण पत्र में एक बाबा (सत्य साईं बाबा) का बड़ा चित्र छपवाया था और उनकी पावन उपस्थिति में विवाह संस्कार होने की घोषणा की गई थी।

मैं समझता हूँ डॉक्टर भी एक प्रकार के विज्ञानकर्मी हैं, मगर उनमें भी अधिकांश का व्यवहार वैज्ञानिक दृष्टिकोण विरोधी ही होता है। एक बेहद सक्षम और अनुभवी डॉक्टर के क्लिनिक पर इस आशय का बोर्ड भी कभीकभार पढ़ने को मिल जाता है कि ‘हम तो केवल माध्यम हैं, आपका ठीक होना न होना ईश्वर पर निर्भर करता है’ मानो कि मरीज की बीमारी डॉक्टरी ईलाज से नहीं बल्कि किसी दैवीय शक्ति के आशीर्वाद से ठीक होगा। डॉक्टरों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता कि उनके मरीज रोगमुक्ति के लिए मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं, बल्कि वे खुद ऐसे कर्मकाण्ड करने से परहेज नहीं करते।
हमारे देश के अंतरिक्ष वैज्ञानिक किसी भी मिशन का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण करने से पहले इसकी सफलता के लिए आंध्रप्रदेश के तिरुपति बालाजी मंदिर में पूजा-अर्चना करना नहीं भूलते बल्कि यदि बड़ा मिशन होता है तो उसके प्रक्षेपण से पहले उपग्रह के पुतले को बालाजी ले जाकर आशीर्वाद प्राप्त करवाते हैं। मंगलयान की शानदार सफलता हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों की काबिलियत का ही कमाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण से पहले इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने इसकी सफलता के लिए तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की थी। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते है कि चूँकि 13 नंबर अशुभ होता है, इसलिए इसरो ने रॉकेट पीएसएलवी-सी 12 भेजने के बाद अशुभ 13 नंबर को छोड़ते हुए सीधे पीएसएलवी-सी 14 अन्तरिक्ष में भेजा।
हमारे कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक भी तथाकथित अवतारों के उत्कट अनुयायी रहे हैं। इसके एक उदाहरण हमारे देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ई. सी. जी. सुदर्शन रहे हैं। वे तथाकथित भावातीत ध्यान के आविष्कारक महर्षि महेश योगी के कट्टर समर्थक माने जाते थे। वे अपनी समस्त खोजों का श्रेय किसी अज्ञात शक्ति या भगवान को देते हैं। हमारे देश में भौतिकी के एक वैज्ञानिक डॉ. मुरली मनोहर जोशी जी भी रहे हैं, जिनको इस बात पर बड़ा गर्व था कि उनके सरनेम ‘जोशी’ की उत्पत्ति ‘ज्योतिष’ शब्द से हुई थी। उन्होंने केंद्र में मंत्री रहते हुए अंधविश्वास और ठग विद्या फलित ज्योतिष को एक वैज्ञानिक धारणा के रूप में स्थापित करने का बड़ा प्रयास किया।
हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने एक निजी अस्पताल के उद्घाटन समारोह में पौराणिक ज्ञान का महिमामण्डन किया। उन्होंने कहा कि पौराणिक काल में अनुवांशिक विज्ञान का उपयोग किया जाता था। उन्होनें कहा कि ‘महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था। तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा। हम गणेश जी की पूजा करते हैं। कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस ज़माने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सिर रख कर प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया हो।’
प्रधानमंत्री के उक्त व्यक्तव्य पर हमारे वैज्ञानिकों की चुप्पी छाई रही, किसी भी वैज्ञानिक ने सामने आकर इन मिथकीय दावों का खंडन करना आवश्यक नहीं समझा। वास्तव में, हमारे देश के कुछ वैज्ञानिक एक कदम और आगे जाकर स्टेम सेल की खोज को कौरवों की पैदाइश से जोड़ देते हैं, टीवी का श्रेय भी योगविद्या और संजय की दिव्यदृष्टि को दे देते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के गलत वैज्ञानिक नीतियों का अमेरिकी वैज्ञानिक उन्मुक्त होकर विरोध कर रहें हैं। हमारे वैज्ञानिकों को उनसे कुछ सीख लेनी चाहिए। मगर हमारे देश में सरकार की गलत वैज्ञानिक गतिविधियों पर वैज्ञानिक मौन व्रत रखे रहतें है क्योंकि उनको भी तो अपने अनुसंधान के लिए सरकारी फण्ड निर्बाध रूप से चाहिए न!
आज अनेक वैज्ञानिक ऐसे भी मिल जाएंगे जो यह कहने से नहीं चूकते कि सुपर स्ट्रिंग थ्योरी में दस आयामों की बात की गई है, इसलिए आधुनिक विज्ञान का यह सिद्धांत वेदों की उस मान्यता का समर्थन करते हैं, जिसके अनुसार भूत-प्रेत आदि अदृश्य शक्तियाँ इन अतिरिक्त आयामों में निवास करती हैं। आज डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त ऐसे भी तथाकथित वैज्ञानिक भी मिल जाएंगे जो आपको रामराज्य की सटीक तिथि भी बता देंगे!
इसलिए चाहें वैज्ञानिक हों या सामान्य जनमानस सबमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भारी कमी है। मगर क्यों वैज्ञानिक ही अवैज्ञानिक व्यवहार करते नज़र आते हैं? इसका उत्तर है उस वैज्ञानिक व्यक्ति को भी आम लोगों की तरह बचपन में जो संस्कार सिखाएं जाते हैं, उसके विरुद्ध खड़े होने की उनकी हिम्मत नहीं होती है तथा किसी अदृश्य शक्ति या अलौकिक सत्ता का भय तो बना ही रहता है। आज हमें उन्हीं लोगों को बुद्धिजीवी या वैज्ञानिक कहलाने का अधिकार देना चाहिए जो वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न हो। इसका आधार न सिर्फ ज्ञान बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी हो!
यदि हम तथा हमारे वैज्ञानिक अपने दैनिक जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखेंगे तो हम व्यक्तिगत एवं सामाजिक घटनाओं के तर्कसंगत कारणों को जान सकेंगे जिससे असुरक्षा की भावना और निरर्थक भय से छुटकारा प्राप्त हो सकेगा।
लेखक के बारे मे

श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।
aashish ji,,,,क्या आप मुझे इस चीज का उत्तर दे सकते हैं कि, इस दुनिया को इतना व्यवस्थित ढंग से किसने बनाया,, ऐसा क्या है इस ब्रह्मांड में,जिससे हर चीज नियमपूर्वक चलती है,,हम इंसान तो सिर्फ उस नियम को जानने का प्रयास करते हैं जिससे हम है और ये ब्रह्मांड है, किंतु ये नियम बने या बनाया किसने उसे नहीं जानते, आप के इस पर क्या विचार हैं,,अगर विज्ञान है तो उस विज्ञान के नियम बनाने वाला भी तो होना चाहिये ना, क्योंकि की किसी चीज को चलाने के लिये energy की आवश्यकता होती है तो उस energy को देने वाला कौन है,,क्योंकि अगर जो कुछ भी विज्ञान के द्वारा समझ रहे हैं तो ये दुनिया बनाने वाला कोई वैज्ञानिक भी तो होगा तभी तो आज के विज्ञान का जन्म हुआ होगा,जैसे की जब कोई car बनती है तो उसको बनाने वाला भी तो होता है ना, तब हम उसके काम करने के तरीके को अपने ज्ञान से समझते हैं जिसे हम विज्ञान कहते हैं,,
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Bahut hi achcha lekh padkar bahut sukun mila is tarah ki thinking ki society ko zarurat he
me bhi is baat ko bahut dino se soch raha tha ki hamare well educated log bhi in andhvishvaso se nahi bachte
yahi karan he ki hamari society me is tarah ki buraiya aam he aor zinadsgi ka ek part ban gayi he hame is chiz ko rokna hoga mene bahut se bachcho bado ko tabeez babaon andhvidhvas ke changul se bachaya he aor unme vegyanic drishtikod peda kya he aor aage bhi ye kaam jari he
Bahut dhanyavad
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bahot khub..
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सर कृपया ये बतायें की कृत्रिम उपग्रह को इतनी स्पीड स्पेस मे कैसे मिलती है जैसे की वयेजर 1 की स्पीड 17km/s है।
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इन यानो को आरंभिक गति राकेट देते है, उसके बाद इन यानो की गति को त्वरण देने के लिये ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण का प्रयोग करते है।
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बहुत अच्छे भाई
आप के भारतीय होने पर गर्व है।
आप मानव जीवन को एक वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रहे है।
लगे रहो बस। आभार।
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वाह बहुत खूब बेहतरीन विजान और वैज्ञानिक के बीच का बढ़िया रचनात्मक विश्लेषण
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aasheesh sir jahan tak bhoot pret ki baat hai to mai bhi kattar virodhi rah chuka Hun ,, lakin apne do relation me aisi ghatana k baad mai apni soch aur nazariya badalne se khud ko nahi rok paya,, hakeekat jante hue bhi vigyan jante hue bhi,,,, sir mere relation me ek 9 sal ki bacchi hai jo pichhale teen sal 5 September k teachers day aate aate pareshan ho jati hai ,, pagalo ki taraf badbadana ,, Lambi Lambi saans Lena ,, uncontrol ho Jana ,,,,. aur iske baad behosh ho Jana,, usne bekabu me aake ye bhi bataya ki usko teachers day k din kisi ne iske uper koi jadu ya is type ka naam kiya hai….
khair ab baat aati hai doctor ki to sare check up k bad bhi koi fayda na hua aur na hua … agar kuchh fayda hota hai to kuchh logo k bataye hue nushkho se,, bacche ko teen school badalna pada kiske karan,,
haan ek bat aur baccha padhane me bahut achha bhi hai aur jaanbujh kar aisi harkat to nahi kar raha hai aisa agar ap sochate hain to galat hai qki Maine khud us dahsat ko mahsoos kiya hai .. oh apna sir patakane lagti hai …….aisa dekh kar baccha k parents bahut same me hain
aisi haalat me ek padha likha samjhdar aadmi ko us parents ko kya salaah deni chahiye… kya karna chahiye aisi condition me …… ?
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अमित, उस बच्ची को किसी अच्छे मनोचिकित्सक से मिलवाये। मनोचिकित्सक उस बच्ची से कई दिनो तक बातें कर सही कारण पता करेगा। इस तरह के व्यवहार किसी ऐसी घटना से होते है जो वह बच्ची किसी और से बता नही पा रही है। किसी निकट संबधी, किसी मित्र या किसी शिक्षक का कोई व्यवहार उस बच्ची के ऐसे व्यवहार के पीछे है। मनोचिकित्सक बच्चो या व्यक्ति से ऐसी बाते उगलवाने की तकनिक जानते है, वो उस बच्ची का सलाह या दवाईयों से चिकित्सा कर लेंगे।
भूत प्रेत नही होते है, इस तरह की घटनाओं के पिछे मनोवैज्ञानिक कारण ही होते है।
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kic-8462852 इस ग्रह के बारे में क्या अपडेट्स है?
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कोई संतोषजनक व्याख्या अभी तक सामने नही आई है।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : काका हाथरसी, श्रीकांत शर्मा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
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Reblogged this on oshriradhekrishnabole.
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Ashe aapne sahi bataye ho her ake insaan ku kuchhu naya sochona chahiye or ushuku pura karane ki lakhaya banana chahiye. Really great think about your
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