मैरी क्यूरी : प्रथम महिला नोबेल पुरस्कार विजेता


पूरी दुनिया में ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे, जिन्होंने मैडम क्यूरी/मैरी क्यूरी का नाम नहीं सुना होगा। मैडम क्यूरी को न केवल अब तक की सबसे महत्वपूर्ण महिला वैज्ञानिक होने का दर्जा दिया जाता है, बल्कि उन्हें आइंस्टाइन, न्यूटन, फैराडे, डार्विन जैसे असाधारण प्रतिभासंपन्न सर्वकालिक वैज्ञानिकों की सूची में भी शामिल किया जाता है। वे डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाली फ्रांस की पहली महिला थीं, और भौतिकी (फिजिक्स) में डॉक्टरेट की डिग्री पाने वाली विश्व की पहली महिला थीं। इसके अलावा पेरिस के सोरबोन यूनिवर्सिटी में लेक्चरर और प्रोफेसर के पद पर नियुक्त होने वाली पहली महिला थीं।



रेडियोएक्टिविटी’ शब्द का इस्तेमाल पहली बार उन्होंने ही किया था। उन्होंने रेडियम की खोज करके नाभिकीय भौतिकी (न्यूक्लियर फिजिक्स) की राह बनाई और बाद में उनकी यह खोज कैंसर के इलाज में वरदान साबित हुई। वे दो बार नोबेल पुरस्कार जीतने वाली दुनिया की पहली शख्सियत थीं एवं रसायन विज्ञान (केमेस्ट्री) और भौतिकी दोनों ही क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाली अब तक इकलौती वैज्ञानिक हैं। वह पहली नोबेल विजेता मांं थीं, जिनकी बेटी को भी नोबेल पुरस्कार मिला।

मैरी क्यूरी

ऊपर दिए गए असाधारण उपलब्धियों के ब्योरे से आपने इस बात का अंदाजा लगा ही लिया होगा कि ‘आधुनिक भौतिकी की मां’ (मदर ऑफ मॉडर्न फिजिक्स) के नाम से जानी जाने वाली मैडम क्यूरी बहुत से मामलों में या तो सबसे पहली या इकलौती रहीं। आज हम मैडम क्यूरी की किस्मत को इन अद्वितीय उपलब्धियों के लिए सराहते हैं, लेकिन अगर हम उनके जीवन पर एक सरसरी निगाह भी डालें तो पता चल जाएगा कि इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें कितनी कठिनाइयों से जूझना पड़ा था। आज इन्हीं मैडम क्यूरी का जन्मदिन है। आइए, इस अवसर पर उनके बारे में संक्षेप में चर्चा करते हैं जो गरीबी, एकाकीपन और लैंगिक भेदभाव से लड़ते-लड़ते अंधेरे से प्रकाश की विरासत बन गईं।

मैडम क्यूरी का वास्तविक नाम मारिया सालोमिया स्कोलोडोव्स्का था। उनका जन्म 7 नवंबर, 1867 को पोलैंड के वारसॉ शहर में हुआ था। उनके पिता व्लादिस्लॉ स्कोलोडोव्स्की गणित और भौतिकी के अध्यापक थे और माँ ब्रोनिस्लावा लड़कियों के एक बोर्डिंग स्कूल में हेड मिस्ट्रेस थीं। वह अपने माता-पिता के पांच बच्चों में से सबसे छोटी थी। मारिया को घर में प्यार से मान्या कहकर बुलाया जाता था। उनकी माँ ब्रोनिस्लावा ने मारिया का सही ढंग से पालन-पोषण करने के लिए बोर्डिंग स्कूल से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही देनी शुरू की। पिता वैज्ञानिक औजारों का इस्तेमाल सिखाने के साथ ही साहित्य और पॉपुलर साइंस की किताबें भी पढ़ कर सुनाए करते थे।

उन दिनों पोलैंड में रूस के शासक जार के अधीन था। जार पोलैंड के लोगों की संस्कृति, इतिहास और पोलिश भाषा को मिटाने की कोशिशों में पूरी शिद्दत से जुटा हुआ था। जार की दहशत इतनी ज्यादा थी कि स्कूल-कालेजों में पोलिश भाषा और पोलैंड का इतिहास भी नहीं पढ़ाया जाता था। यह सब करके जार उन पोल राष्ट्रवादियों और देशभक्तों को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देना चाहता था, जो रूसी शासन के चंगुल से आजाद होना चाहते थे। मान्या के पिता भी इन्हीं देशप्रेमियों में से थे। पोलैंड की आजादी का खुलकर समर्थन करने की वजह से उनके पिता व्लादिस्लॉ स्कोलोडोव्स्की को स्कूल की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मजबूर होकर उन्हें एक के बाद एक निचले दर्जे के शिक्षण संबंधी काम करने पड़े।

मान्या की मां अक्सर बीमार रहती थीं। बाद में डॉक्टरों ने बताया की उन्हें टीबी हो गया है। आर्थिक तंगी की वजह से इलाज न करवा पाने और घर की तमाम मुश्किलों से जूझते हुए 1878 में सिर्फ 42 साल की उम्र में उनकी माँ का देहांत हो गया। तब मान्या की उम्र महज 10 साल थी.। माँ का साया सर से उठ जाने के बाद आखिरकार मान्या को औपचारिक पढ़ाई-लिखाई के लिए स्कूल जाना पड़ा। स्कूली पढ़ाई में मान्या ने शानदार प्रदर्शन किया। मारिया जितनी मेहनती और कुशाग्रबुद्धि की छात्रा थी, उतनी ही बड़ी देशभक्त भी। 1881 में जब रूसी जार अलेक्जेंडर द्वितीय की हत्या हुई, तब मान्या और उसकी दोस्त काजिया ने खुशी मनाने के लिए खूब नाचा-गाया।

मान्या हालांकि एक अच्छी छात्रा थीं, लेकिन अपनी पढ़ाई के शुरुआती दिनों में उसने विज्ञान की तरफ ऐसा कुछ खास रुझान नहीं दिखाया था, जिससे इसका अंदाजा लगाया जा सकता की वह भविष्य में दुनिया की सबसे मशहूर महिला वैज्ञानिक बनेगी। मैडम क्यूरी की बेटी ईव क्यूरी अपनी माँ के बारे में लिखती हैं कि,

‘मारिया सालोमिया स्कोलोडोव्स्का का हृदय प्रेम से भरा था. उनके शिक्षकों के मुताबिक उनमें ‘विशेष प्रतिभा’ थीं, लेकिन कुल मिलाकर उनमें अचंभित कर देने वाला ऐसा कोई भी अनूठापन नहीं था, जो उन्हें उनके साथ पले-बढ़े बच्चों से अलग करती हो।’


1883 में मान्या ने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ पास की। उसमें उसे स्वर्ण पदक भी मिला। मगर उसे इससे खुशी नहीं हुई क्योंकि इसके लिए उसे रूसी शिक्षा अधिकारी से हाथ मिलना पड़ा था। कहा जाता है कि हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मान्या अवसाद की शिकार हो गई। पिता ने मान्या को गांव में अपने रिश्तेदारों के पास छुट्टियांं मनाने के लिए भेज दिया ताकि वहाँ वह प्रकृति की छाँव में रहकर मानसिक रूप से स्वास्थ लाभ प्राप्त कर सके। गांव के उन्मुक्त वातावरण एक साल बिताकर पूरी तरह से स्वस्थ्य होकर मान्या वारसॉ लौट आई।

मान्या आगे और पढ़ना चाहती थी, लेकिन उस समय पोलैंड के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता था। मान्या के भाई जोजेफ को तो वारसॉ यूनिवर्सिटी के मेडिकल इंस्टीट्यूट में दाखिला मिल गया लेकिन लड़की होने की वजह से मान्या और उसकी बहन ब्रोन्या को प्रवेश नहीं मिला। मान्या ने सोचा कि पैसे कमाकर वह और उसकी बहन यूरोप के दूसरे विश्वविद्यालयों में उच्च अध्ययन कर सकती हैं। इसलिए उसने वारसॉ से 100 किलोमीटर दूर एक गाँव के एक संपन्न परिवार में गर्वनेंस की नौकरी कर ली और उसी परिवार के एक लड़के से प्यार भी कर बैठी, लेकिन लड़के का परिवार इस रिश्ते के लिए राजी नहीं हुआ।

प्यार में नाकामयाब होने के बाद मान्या वारसॉ लौट आई। वह अपनी बहन ब्रोन्या को इस शर्त के साथ पढ़ने के लिए पेरिस भेज चुकी थी कि वह पैसे कमाकर ब्रोन्या की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा उठाएगी और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ब्रोन्या पेरिस में मान्या के रहने व पढ़ाई का खर्चा उठाएगी। वारसॉ में काफी दौड़-धूप करने के बाद एक धनी व्यापारी के यहां मान्या को गर्वनेंस की दोबारा नौकरी मिल गई। आखिरकार मान्या की मेहनत रंग लाई ब्रोन्या ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और उसने मान्या को चिट्ठी लिखकर पेरिस आने को कहा।

नवंबर 1891 में मान्या पेरिस पहुंची। पेरिस में वह ब्रोन्या के घर रहने लगी। ब्रोन्या ने एक पोल राष्ट्रवादी काशीमीर डलुस्की से शादी कर ली थी। मान्या ने पेरिस के सोरबोन यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। साथ ही उसने अपना नाम भी बदलकर ‘मैरी स्कोलोडोव्स्का’ रख लिया। चूंकि मैरी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद करीब 6 साल तक औपचारिक अध्ययन से दूर रहीं थीं इसलिए उनको पढ़ाई के लिए अन्य विद्यार्थियों से ज्यादा मेहनत करना पड़ रहा था। घोड़ागाड़ी से घर से यूनिवर्सिटी पहुँचने में मैरी को एक घंटा लग जाता था और ब्रोन्या-काशीमीर का घर उन पोल राष्ट्रवादियों का अड्डा बन चुका था, जो रात-दिन राजनीतिक बहस में मशगूल रहते थे. इससे मैरी की पढ़ाई में खलल पड़ती थी, इसलिए मैरी ने बहन का घर छोड़कर यूनिवर्सिटी के पास एक सस्ता, गंदा और खस्ताहाल कमरा किराए पर ले लिया, जिसमें छत की ढलान से सटा हुआ एक छेद ही रोशनी और हवा का जरिया थी।

मैरी इसी कमरे में एकाग्र होकर दिनभर पढ़ती और रात होते ही ठंड से बचने और रोशनी के लिए सेंट जेनेविए लाइब्रेरी की शरण ले लेतीं। आर्थिक तंगी के बीच मैरी ने अपने सपनों का पीछा करते हुए ब्रेड-बटर, चाय, फल, अंडे वगैरह से गुजारा करते हुए रात-दिन परिश्रम किया। 1893 में मैरी ने न सिर्फ भौतिकी में मास्टर की डिग्री हासिल की, बल्कि कक्षा में प्रथम स्थान भी हासिल किया. पोलैंड के दूरदराज़ इलाके से आई एक गरीब लड़की के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद जब मैरी वारसॉ लौटीं तो उन्हें आशा थी कि उन्हें अपनी योग्यता के अनुसार कोई बढ़िया काम मिल जाएगा। लेकिन मैरी की उम्मीदें धरीं-की-धरीं रह गई जब वारसॉ यूनिवर्सिटी ने उन्हें स्त्री होने की वजह से अध्यापन कार्य देने से इंकार कर दिया। इससे मैरी निराश हो गईं, लेकिन उन्हें जब उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाने के इच्छुक पोल छात्रों को मिलने वाली 600 रूबल की स्कॉलरशिप मिली, तो मानो उनके सपनों को नए पर लग गए। इस स्कॉलरशिप की मदद से मैरी ने पेरिस में दोबारा गहन अध्ययन शुरू किया और 1894 में उन्होंने गणित में मास्टर की डिग्री हासिल की। नौकरी मिलते ही मैरी ने स्कॉलरशिप स्वरूप मिली 600 रूबल की राशि को इस उद्देश्य से पोलैंड स्थित एनजीओ को वापस कर दी ताकि किसी अन्य पोल छात्र को उन्हीं की तरह उच्च अध्ययन का मौका मिल सके।

मैरी को पहला काम सोसाइटी फॉर एंकरेजमेंट ऑफ नेशनल इंडस्ट्री से अलग-अलग तरह के इस्पात की रासायनिक संरचना और चुम्बकीय गुणों का पता लगाने का मिला। इसी काम के सिलसिले में मैरी की मुलाक़ात प्रतिभाशाली भौतिक विज्ञानी पियरे क्यूरी से हुई। पियरे क्यूरी ‘द सिटी ऑफ पेरिस इंडस्ट्रियल फिजिक्स एंड केमिस्ट्री हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन’ की प्रयोगशाला के प्रमुख थे। पियरे और मैरी इसी प्रयोगशाला में एक साथ काम करने लगे. विज्ञान के प्रति दोनों के आपसी जुनून ने उन्हें करीब ला दिया और उनमें एक-दूसरे के लिए भावनाएँ विकसित होने लगीं। आखिरकार, पियरे ने शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन मैरी अपने देश, अपने पिता के पास पोलैंड वापस जाना चाहती थीं। मगर पियरे का प्यार मैरी को खींच लाया और उन दोनों ने जुलाई 1895 में शादी कर ली।

1896 में मैरी ने इस्पात पर अपना शोध पूरा कर लिया। उसके बाद मैरी ने भौतिकी में डॉक्टरेट करने का फैसला किया। वे अपने शोध के लिए एक ऐसे विषय की तलाश में थीं, जो एकदम नया हो क्योंकि विज्ञान में शोध करने के लिए यह जरूरी होता है कि शोधकर्ता उसी विषय में अन्य शोधकर्ताओं द्वारा किए गए शोधों को भी उद्धारित करे। जाहिर है कि मैरी इस मामले में काफी सजग थीं। 1896 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक हेनरी बैकेरल ने भौतिकी के क्षेत्र में एक बेहद अप्रत्याशित खोज की थी, जिसे बाद में रेडियोएक्टिविटी कहा गया। इस खोज के माध्यम से बैकेरल ने यह बताया कि अंधरे में रखे यूरेनियम लवण (साल्ट्स) भी फोटोग्राफिक प्लेटों को कुहासा कर देने वाली किरणें छोड़ते हैं. इसे एक्स-रे की तर्ज पर ‘यूरेनियम-रे’ का नाम दिया गया। मैरी क्यूरी ने अपनी थीसिस के विषय के लिए यूरेनियम-रे को चुना। चूंकि विषय नया था, इसलिए पुराने शोधों को उद्धरित करने की झंझट से उन्हें छुटकारा मिल गया। लिहाजा, वे तुरंत प्रयोग शुरू करने की स्थिति में थीं।

पियरे और मैरी

अपने प्रयोगों के जरिए मैरी ने जल्दी ही पता लगा लिया कि यूरेनियम के साथ-साथ थोरियम से भी ऐसी ही अदृश्य किरणें निकलती है। किसी पदार्थ से अदृश्य किरणें निकलने की इस विशेषता को उन्होंने ‘रेडियोएक्टिविटी’ नाम दिया। कुछ और प्रयोगों के बाद मैरी इस नतीजे पर पहुंची कि यूरेनियम की कच्ची धातु पिचब्लेंड और चाल्कोसाइट से यूरेनियम और थोरियम से भी ज्यादा ताकतवर किरणें निकलती है। अब उनके पति पियरे क्यूरी को भी मैरी के शोधकार्यों में गहरी दिलचस्पी पैदा हो गई थी, इसलिए उन्होंने अपने बाकी सारे काम छोड़कर रेडियोएक्टिविटी पर मैरी के साथ शोध शुरू कर दिया। आखिरकार, क्यूरी दंपति ने बेहद कठिन परिस्थितियों में, बगैर सर्दी-गर्मी की परवाह किए, रात-दिन एक करके दो नए तत्वों की खोज कर डाली। पहले तत्व का नाम उन्होंने अपने मूल देश पोलैंड के नाम पर ‘पोलोनियम’ और दूसरे का नाम ‘रेडियम’ रखा।

दोनों के सामने अगली चुनौती थी पिचब्लेंड से पोलोनियम व रेडियम को शुद्ध रूप में प्राप्त करना। लगभग तीन साल की कड़ी मशक्कत और कई टन पिचब्लेंड अयस्क को संसाधित करने के बाद क्यूरी दंपति ने आखिरकार 0.1 मिलीग्राम रेडियम निकालकर उसके परमाणु भार का पता लगाया और यह साबित कर दिया कि रेडियम एक नया तत्व है। मैरी ने अपनी डॉक्टरेट थीसिस इसी विषय पर लिखकर 1903 में पीएचडी की डिग्री हासिल की और विश्व की पहली ऐसी महिला बन गईं जिसे यह गौरव प्राप्त हुआ था। मैरी की थीसिस के परीक्षकों के मुताबिक डॉक्टरेट पाने के लिए लिखे गए किसी थीसिस के जरिए विज्ञान के क्षेत्र में इतना बड़ा योगदान पहली बार दिया गया था। इसके कुछ महीने बाद रॉयल इंस्टीट्यूशन के बुलावे पर क्यूरी दंपति इंग्लैंड गई। उस समय इंग्लैंड में महिलाओं को वैज्ञानिक के रूप में बिलकुल भी तवज्जो नहीं दिया जाता था। इसी वजह से मैरी क्यूरी को किसी भी कान्फ्रेंस में बोलने की इजाजत नहीं दी गई। सभी व्याख्यान पियरे क्यूरी को ही देने पड़े।

उसी साल, मैरी व पियरे क्यूरी और हेनरी बैकेरल को संयुक्त रूप से भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया। लेकिन मैरी लिए विश्व की पहली महिला नोबेल विजेता बनने की राह कतई आसान नहीं रही थी। गौरतलब है कि महिला होने की वजह से 1903 में भौतिकी के नोबल के लिए नोमिनेटेड लोगों की लिस्ट में मैरी का नाम नहीं था। सिर्फ बैकेरल और पियरे क्यूरी को ही नोमिनेट किया गया था। जब स्वीडिश गणितज्ञ और वैज्ञानिक गोस्टा मिट्टाग-लेफ्लर ने मैरी और उनके योगदान का समर्थन करते हुए नोबेल कमेटी को चिट्ठी लिखी, तब कहीं जाकर नोमिनेटेड लोगों की लिस्ट में मैरी का नाम जोड़ा गया!

नोबेल मिलने के बाद न केवल क्यूरी दंपति की आर्थिक स्थिति सुधरी बल्कि उन्हें काफी लोकप्रियता भी हासिल हुई। अब मैरी क्यूरी को सम्मान से ‘मैडम क्यूरी’ कहकर संबोधित किया जाने लगा था। हालांकि यह खुशी ज्यादा दिनों तक न टिकी नहीं और 1906 में एक सड़क दुर्घटना में पियरे क्यूरी की मौत हो गई। मैरी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था. लेकिन साहसी मैरी ने हार न मानते हुए अपना और अपने पति के अधूरे शोध को आगे बढ़ाने का निश्चय किया।

सोरबोन यूनिवर्सिटी (पेरिस) के प्रशासकों ने सभी परम्पराओं को ताक पर रखते हुए पियरे की मौत से खाली हुए प्रोफेसर पद पर मैरी क्यूरी को नियुक्त कर दिया। कुछ लोगों को एक महिला को प्रोफेसर के पद पर बैठाने की बात रास नहीं आई और उन्होंने इसकी कड़वी आलोचना की। लेकिन पियरे की मौत के बाद अकेली पड़ गई मैरी अपने शोध में तन-मन से लगी रहीं। अथक परिश्रम की बदौलत उन्हें कई डेसीग्राम शुद्धतम रेडियम तैयार करने में सफलता मिली। रेडियोएक्टिविटी पर तमाम मौलिक अनुसंधानों के लिए मैडम क्यूरी को 1911 में रसायन विज्ञान के क्षेत्र में दूसरी बार नोबेल पुरस्कार दिया गया।

लेकिन वो कहते हैं न कि शोहरत के कुछ अँधेरे पहलू भी होते हैं। एक महिला को दूसरी बार नोबेल देने पर कुछ लोगों ने नोबेल कमेटी के फैसले पर सवाल खड़े कर दिए। इसके अलावा पेरिस में वैज्ञानिक पॉल लैंगेवीन से कथित प्रेम प्रसंग को लेकर मैरी क्यूरी पर तरह-तरह के लांछन भी लगाए जा रहे थे। पेरिस में उनके परिवार का रहना दूभर हो गया था. यहां तक कि नोबेल कमेटी के एक सदस्य ने भी उन्हें कह दिया था कि वे पुरस्कार लेने के लिए स्वयं स्वीडन न आएं। लेकिन मैरी पुरस्कार ग्रहण करने स्वीडन गईं और अपने भाषण में इस नोबेल पुरस्कार को ‘पियरे क्यूरी की यादों के प्रति एक श्रद्धांजलि कहा’।

दो बार नोबेल पुरस्कार जीतने के बावजूद कभी भी उन्हें एकेडमी ऑफ साइंसेज का सदस्य नहीं चुना गया। मैडम क्यूरी ने अपने वैज्ञानिक खोजों का कभी भी पेटेंट नहीं करवाया और उनको मानव जाति की भलाई, विशेषकर चिकित्सकीय इस्तेमाल के लिए समर्पित कर दिया। लेकिन मैडम क्यूरी रेडियम के विकिरण (रेडिएशन) की मार से बच न सकीं। लंबे समय तक रेडिएशन के बीच काम करते रहने से मैरी को कैंसर हो गया। आखिरकार, कैंसर से लड़ते-लड़ते 4 जुलाई 1934 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज मैडम क्यूरी हमारे बीच न होकर भी उन लाखों महिलाओं की प्रेरणा की सबसे बड़ी स्रोत हैं, जो अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर पुरुषों के वर्चस्व वाली विज्ञान की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहती हैं।

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