डॉक्टर विश्वेश्वरय्या

महान इंजीनियर : मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या


डॉक्टर विश्वेश्वरय्या
डॉक्टर विश्वेश्वरय्या

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या (15 सितम्बर 1860 – 14 अप्रैल 1962) (कन्नड में: ಶ್ರೀ ಮೋಕ್ಷಗುಂಡಂ ವಿಶ್ವೇಶ್ವರಯ್ಯ ; अंग्रेजी में : Visvesvaraya, Visweswaraiah, Vishweshwariah;) भारत के महान अभियन्ता एवं राजनयिक थे। उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया गया था। भारत में उनका जन्मदिन अभियन्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संक्षिप्त जीवन परिचय

विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्मस्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।

दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में विश्वेश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां विश्वेश्वरैया ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए विश्वेश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।

उस समय राज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।

डाक टिकट
डाक टिकट

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।

वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।

वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।

कार्यक्षेत्र

अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। इसी सफलता के आधार पर उन्हें मुम्बई में असिस्टैंट इंजीनियर के पद पर नियुक्ति मिली। उस समय ब्रिटिश शासन था। अधिकांश उच्च पदों पर अंग्रेज़ों की ही नियुक्ति होती थी। ऐसे में उच्च पद पर नियुक्त विश्वेश्वरैया ने अपनी योग्यता और सूझबूझ द्वारा बड़े बड़े अंग्रेज़ इंजीनियरों को अपनी योग्यता और प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। अपने इस पद पर रहते हुए उन्होंने सबसे पहली सफलता प्राकृतिक जल स्रोत्रों से घर घर में पानी पहुँचाने की व्यवस्था करना और गंदे पानी की निकासी के लिए नाली – नालों की समुचित व्यवस्था करके प्राप्त की। प्रथम चरण में ही उन्होंने बैंगलोर, पूना, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़ सहित अनेक नगरों को प्रत्येक प्रकार के जल संकट से मुक्त करा दिया। सन् 1884 में विश्वेश्वरैया ने अपना सरकारी जीवन शुरू किया। यह वह समय था, जब राष्ट्रीयता की भावना बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। महादेव गोविंद पाण्डे रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीयता की भावना को फैलाने में अग्रणी थे। वे सरकारी पदों पर भारतीयों को ज़्यादा स्थान दिलाने के लिए दवाब डाल रहे थे। वे जोश से भारतीय स्वतंत्रता की बात करते। विश्वेश्वरैया अपना कार्य करते रहे। लेकिन उनकी सहानुभूति स्वतंत्रता के कार्य के साथ थी। उन्हें लगा कि अनेक कार्य जो उन्हें सौंपे गये हैं, वे लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए आवश्यक हैं। उनके रास्ते में अनेक मुश्किलें और चुनौतियाँ आईं।

इंजीनियर का पद

बम्बई प्रेसीडेन्सी की नौकरी विश्वेश्वरैया ने छोड़ी ही थी कि उन्हें अपने राज्यों में विकास गतिविधियों को देखने के लिए हैदराबाद के निज़ाम और मैसूर महाराजा के प्रस्ताव मिले। नवम्बर सन् 1909 में उन्होंने अपने जन्मस्थान मैसूर में चीफ़ इंजीनियर बनना पसन्द किया। तब भी हैदराबाद को बार-बार आने वाली बाढ़ से बचाने के लिए उन्होंने योजनाएँ बनाई। मैसूर राज्य में चीफ़ इंजीनियर की नौकरी उन्हें बहुत पसन्द थी। क्योंकि यहाँ उन्हें उन परियोजनाओं पर काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी, जिससे जनता के ग़रीब वर्ग को लाभ मिलता था। उन्होंने जल वितरण, सड़कों, संचार व सिंचाई के लिए परियोजनाएँ बनाईं। प्रत्येक योजना की प्रगति पर कड़ी निगरानी रखी गई। समय की पाबन्दी को पूर्णतया बनाये रखे गया। कीमत पर भी नियमित जांच चलती रही। विश्वेश्वरैया कार्य स्थल पर जाते, लोगों से मिलते, उनकी प्रतिक्रिया सुनते, और जब लोग उनका धन्यवाद करते तो उन्हें बहुत खुशी होती। लोगों के चेहरों पर छाई खुशी ही उनका पुरस्कार था, जिसे उन्होंने सबसे ज़्यादा संजोकर रखा।

इंजीनियर और पदत्याग

अभिनव क्षमता और कठिन परिश्रम ने मिलकर उन्हें जल्दी ही तरक्कियों की ओर बढ़ा दिया। अन्तत: वह चीफ़ इंजीनियर के पद के निकट तक पहुँच गये। चीफ़ इंजीनियर का पद ब्रिटिशवासियों के लिए आरक्षित था। यह पक्षपात था। जाति व रंग का भेदभाव किये बिना पद सबके लिए खुला होना चाहिए। योग्य व्यक्ति को स्थान मिलना चाहिए। यद्यपि, विश्वेश्वरैया को आभास हो गया था कि शासन इस आरक्षण को ख़त्म नहीं करेगा। इसलिए उन्होंने सन्। 1908 में त्यागपत्र देने का फ़ैसला किया। सरकार ने उन्हें रोकने की कोशिश की। पर वह अपने निश्चय पर अटल रहे। वर्षों तक वह विभिन्न पदों पर काम करते रहे थे। हालाँकि उन्हें नौकरी करते हुए अभी पूरे 25 वर्ष नहीं हुए थे। जिसके बाद में पेंशन मिलती है। तब भी सरकार ने उन्हें पेंशन देने का फ़ैसला किया। विश्वेश्वरैया द्वारा किये गये कार्यों की प्रशंसा में सरकार द्वारा किया गया यह एक प्रतीक था।

राष्ट्रीयता की भावना

यह भारतीय राष्ट्रीयता का ही प्रभाव था, जिसने उन्हें दरबार में आने का मैसूर के महाराजा का निमंत्रण ठुकराने को प्रेरित किया। सरकारी रूप से यह माना जाता था कि महाराजा के निमंत्रण को आदेश माना जाये। फिर भी विश्वेश्वरैया ने आमंत्रण को ठुकरा दिया। यह विरोध था, दरबार में बैठने की व्यवस्था में भेदभाव के विरुद्ध। अंग्रेज़ों को कुर्सियों पर बैठाया जाता था। भारतीयों से आशा की जाती थी कि वह ज़मीन पर सिमट कर बैठें। विश्वेश्वरैया से दरबार में न आने का कारण पूछा गया। उन्होंने भेदभाव का ज़िक्र करते हुए जवाब लिखा। उनका तर्क महाराजा का सही नज़र आया। उन्होंने आदेश दिया कि प्रत्येक निमन्त्रित वयक्ति को कुर्सी पर बैठाया जाए। विश्वेश्वरैया के लिए ये क्षण गर्वपूर्ण थे। अपनी दृढ़ता के द्वारा उन्होंने राष्ट्रीय गर्व को बढ़ावा दिया था। जब उन्हें ‘गाड सेव द किंग’ (ईश्वर राजा को सुरक्षित रखे) वाला गीत गाने को कहा गया, तो उन्हें पता चला भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश है। अपने मामलों में भी भारतीयों को कुछ कहने का अधिकार नहीं था। भारत की अधिकांश सम्पत्ति विदेशियों ने हड़प ली थी। क्या उनके घर में काम करने वाली नौकरानी विदेशी शासन के कारण ग़रीब है? यह प्रश्न विश्वेश्वरैया के मस्तिष्क में उमड़ता रहा। राष्ट्रीयता की चिंगारी जल उठी थी और उनके जीवन में यह अन्त तक जलती रही।

मैसूर के दीवान

चीफ़ इंजीनियर बनने के तीन साल बाद नवम्बर, 1912 में मैसूर के महाराजा ने विश्वेश्वरैया को वहाँ का दीवान (प्रधानमंत्री) बना दिया। आख़िरकार, अब उन्हें योजना बनाने, विकास का बढ़ाने व प्रोत्साहित करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। मुख्यतया शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य और लोक निर्माण में और लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कि वे ठीक ढंग से काम करें, खूब कमायें व अच्छे ढंग से रहें। पद सम्भालने से पहले उन्होंने अपने रिश्तेदारों व घनिष्ट मित्रों को रात्रि भोज पर बुलाया। वह भव्य समारोह था। मेज़बान ने अतिथियों का स्वागत किया, उन्हें अच्छे से खिलाया। उनकी बधाइयाँ व शुभकामनाएँ स्वीकार कीं। फिर उन्होंने उन सबको पास बैठकार कहा कि वह तभी इस नौकरी को स्वीकार करेंगे, अगर वे उनकी शर्तों को मान लेंगे। मेहमानों ने एक दूसरे की ओर देखा। वे जानते थे कि उनके मेज़बान की टिप्पणी में कुछ सार है। विश्वेश्वरैया के शब्दों को समझने के लिए तैयार होने लगे। उन्होंने कहा कि उनमें से कोई भी उनसे किसी भी किस्म के पक्षपात की अपेक्षा नहीं करेगा। न ही वे कोई सरकारी संरक्षण मांगेंगे। कुछ मेहमानों के मुँह लटक गये। फिर भी, विश्वेश्वरैया ने अपनी बात स्पष्ट कर दी थी। किसी भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी। दीवान के पद रहते हुए उन्होंने उन्होंने प्रजातंत्र को बढ़ावा दिया। वैधानिक मंच के विचार विमर्श को क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया। ग्राम समितियों को ज़्यादा अधिकार सौंपे गयें इसलिए उन्होंने ऐसे मंच बनाये जो आम जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे।

विश्वेश्वरैया का एक स्वप्न पूरा हो गया था। विश्वेश्वरैया ने निष्ठा की भावना से कार्य किया। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रीयता के विचार पर अड़े रहने के किसी भी मौके को उन्होंने नहीं गंवाया। उन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व था। वह मानते थे कि अगर अवसर दिया जाये तो भारतीय ब्रिटिशवासियों से कहीं पर भी कम नहीं हैं।

असाधारण कार्य

  1. उनके इंजीनियरिंग के असाधारण कार्यों में मैसूर शहर में कन्नमबाडी या कृष्णराज सागर बांध बनाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। उसकी योजना सन् 1909 में बनाई गई थी और सन् 1932 में यह पूरा हुआ।
  2. बम्बई प्रेसीडेन्सी में कई जलाशय बनाने के बाद, सिंचाई व विद्युत शक्ति के लिए उन्होंने कावेरी नदी को काम में लाने के लिए योजना बनाई। विशेषकर कोलार स्वर्ण खदानों के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण थे।
  3. बांध 124 फुट ऊँचा था, जिसमें 48,000 मिलियन घन फुट पानी का संचय किया जा सकता था। जिसका उपयोग 150,000 एकड़ भूमि की सिंचाई और 60,000 किलो वाट्स ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए होना था।
  4. तब तक कृष्णराज सागर बांध भारत में बना सबसे बड़ा जलाशय था। इस बहुउद्देशीय परियोजना के कारण अनेक उद्योग विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम चीनी मिल, मैसूर चीनी मिल भी शामिल है। अपनी दूरदृष्टि के कारण, विश्वेश्वरैया ने परिस्थिति विज्ञान के पहलू पर भी पूरा ध्यान दिया।
  5. मैसूर शहर में आने वाला प्रत्येक यात्री कृष्णराज सागर बांध और उसके पास ही स्थित प्रसिद्ध वृन्दावन गार्डन देखना एक आवश्यक कार्य मानता था। वहाँ फव्वारों का जल प्रपात, मर्मर पक्षी और आकर्षक फूलों की बहुतायत देखते ही बनती थी।

उपलब्धियाँ

चीफ़ इंजीनियर और दीवान के पद पर कार्य करते हुए विश्वेश्वरैया ने मैसूर राज्य को जिन संस्थाओं व योजनाओं का उपहार दिया, वे हैं-

  • मैसूर बैंक (1913),
  • मलनाद सुधार योजना (1914),
  • इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916),
  • मैसूर विश्वविद्यालय और ऊर्जा बनाने के लिए पावर स्टेशन (1918)।

लेखक के रूप में

जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तब उनकी आयु 58 वर्ष से अधिक थी। कोई और व्यक्ति होता तो लम्बी व सार्थक नौकरी के बाद अपने अवकाश पर आनन्द उठाता, पर विश्वेश्वरैया ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने ‘भारत का पुनर्निर्माण’ (1920), ‘भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था’ (1934) नामक पुस्तकें लिखीं और भारत के आर्थिक विकास का मार्गदर्शन किया।

गोलमेज सम्मेलन का समर्थन

  • विश्वेश्वरैया सन् 1921 में राष्ट्रवादियों में सम्मिलित हो गये और वाइसराय से विचार-विमर्श किया। स्वराज की मांग पर विचार करने के लिए उन्होंने ‘गोलमेज सम्मेलन’ पर ज़ोर दिया।
  • विकास योजनाओं में उत्साहपूर्वक भाग लेते हुए, वह गतिविधियों के बीच रहे।
  • भद्रावती इस्पात योजना के पीछे इन्हीं का हाथ था।
  • बंगलौर में ‘हिन्दुस्तान हवाई जहाज़ संयंत्र’ की स्थापना में इन्होंने दिलचस्पी दिखाई।
  • उन्होंने विजाग पोत-कारख़ाना बनाने पर ज़ोर दिया और निर्माण के समय कई अच्छे सुझाव भी दिये।

निष्पक्ष विश्वेश्वरैया

उस समय वह क़रीब 92 वर्ष के थे, जब पंडित नेहरू ने यह सुझाव दिया कि गंगा पर पुल बनाने के लिए वह विभिन्न राज्य सरकारों के प्रस्तावों की जांच करें। उन्हें बिहार में मोकामेह, राजमहल, सकरीगली घाट, और पश्चिम बंगाल में फ़रक्का में से दो स्थलों को चुनना था। नेहरू ने यह कहकर उन्हें चुना कि ‘वह ईमानदार, चरित्रवान व उदार राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले इंजीनियर हैं, जो पक्षपातरहित निर्णय ले सकते हैं। स्थानीय दवाबों से ऊपर उठ कर कार्य कर सकते हैं और उनके विचारों का सब लोग सम्मान करते हैं, एवं वे सब उनको स्वीकार करते हैं।’ विश्वेश्वरैया उन स्थलों पर गये। उन्होंने सह पायलट की सीट पर, कॉकपिट में बैठकर, नदी और नदी के तटों का बारीकी से जांच करने के लिये हवाई सर्वेक्षण किया। ताकि पुल बनाने के लिए सही स्थल को चुना जा सके। इस दौरे के दौरान वह पटना में रुके। राज्यपाल एम. एस. आणे ने उन्हें राजभवन में रहने का निमंत्रण दिया। विश्वेश्वरैया ने यह कहते हुए अस्वीकार किया कि यह उनके लिए अनुचित होगा कि वह राज्यपाल की मेहमानवाज़ी का आनन्द उठायें। जबकि समिति के अन्य सदस्य होटलों में रहेंगे। राज्यपाल ने तब समिति के सारे सदस्यों को आमंत्रित किया। बाद में एम. एस. आणे ने कहा, ‘सुविधा से पहले कर्तव्य विश्वेश्वरैया का आदर्श है।’ अन्तत: विश्वेश्वरैया ने पुल बनाने के लिए मोकामेह और फ़रक्का नामक स्थानों का सुझाव दिया।

भारत रत्न

अपनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, ‘अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।’ नेहरू ने उनकी बात की प्रशंसा की। उन्होंने विश्वेश्वरैया को आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय घटनाओं व विकास पर टिप्पणी करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। यह सम्मान उन्हें उनके कार्यों के लिये दिया गया है। इसका मतलब उन्हें चुप कराना नहीं है।

अंतिम समय

102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, “जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।” जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन वह अपने कार्यों के द्वारा अमर हो गये। अन्त समय तक भी उनका ज्ञान पाने का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह एकाग्रचित्त होकर ज्ञान की तलाश करते रहे। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उससे उन्हें प्रकृति और प्रकृति में निहित शक्ति व ऊर्जा को जन कल्याण के लिए काम में लगाने में सहायता मिली। विश्वेश्वरैया महान व्यक्ति के रूप में नहीं जन्मे थे। न ही महानता उन पर जबरदस्ती थोपी गई थी। कठिन परिश्रम, ज्ञान को प्राप्त करने के अथक प्रयास, परियोजनाओं व योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए ज्ञान का उपयोग, जिसके द्वारा जनसमुदाय की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारने के अधिक अवसर मिले, द्वारा महानता प्राप्त की। विश्वेश्वरैया में बहुमूर्तिदर्शी जैसा कुछ था। जितनी बार भी हम उन्हें देखते हैं, उनकी महानता का एक नया उदाहरण सामने आता है। चाहे उन्होंने किसी भी दृष्टिकोण से सोचा हो, उनकी महानता का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। उनकी गहन राष्ट्रीयता की भावना ही है जो हमारा ध्यान आज भी उनकी ओर आकर्षित करती है। दूसरी ओर हम उनके काम के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हैं, और आगे देखें तो ग़रीबों के प्रति उनके स्थाई प्रेम को देखते हैं, और फिर देखें तो हम उनके अच्छे स्वास्थ्य में झांकते हैं। उनकी महानता के पहलू असीमित हैं।

स्रोत : भारत डिस्कवरी

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