
विश्व ओज़ोन दिवस (अंग्रेज़ी:World Ozone Day) या ‘ओज़ोन परत संरक्षण दिवस’ 16 सितम्बर को पूरे विश्व में मनाया जाता है।
23 जनवरी, 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO)की आम सभा में पूरे विश्व में इसके प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए 16 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय ओज़ोन दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। उस समय लक्ष्य रखा गया कि पूरे विश्व में 2010 तक ओज़ोन मित्र वातावरण बनाया जाए। यह लक्ष्य 2010 तक भी पूरी तरह से प्राप्त नही किया जा सका है।
आखिर ओजोन है क्या?

ओजोन एक हल्के नीले रंग की गैस होती है ।ओजोन परत सामान्यत: धरातल से 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की ऊंचाई के बीच पाई जाती है। यह गैस सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों के लिए एक अच्छे फिल्टर का काम करती है।
ओज़ोन (अंग्रेज़ी: Ozone) ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनने वाली एक गैस है जो कि वातावरण में बहुत कम मात्रा में पाई जाती है। जहाँ निचले वातावरण में पृथ्वी के निकट इसकी उपस्थिति प्रदूषण को बढ़ाने वाली और मानव ऊतक के लिए नुकसानदेह है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी उपस्थिति परमावश्यक है। इसकी सघनता 10 लाख में 10वां हिस्सा है। यह गैस प्राकृतिक रूप से बनती है। जब सूर्य की किरणें वायुमंडल से ऊपरी सतह पर ऑक्सीजन से टकराती हैं तो उच्च ऊर्जा विकरण से इसका कुछ हिस्सा ओज़ोन में परिवर्तित हो जाता है। साथ ही विद्युत विकास क्रिया, बादल, आकाशीय विद्युत एवं मोटरों के विद्युत स्पार्क से भी ऑक्सीजन ओज़ोन में बदल जाती है।
ओजोन परत क्या है?

ओज़ोन परत(अंग्रेज़ी: Ozone Layer) पृथ्वी के धरातल से 20-30 किमी की ऊंचाई पर वायुमण्डल के समताप मंडल क्षेत्र में ओज़ोन गैस का एक झीना सा आवरण है। वायुमंडल के आयतन कें संदर्भ में ओज़ोन परत की सांद्रता लगभग 10 पीपीएम है। यह ओज़ोन परत पर्यावरण की रक्षक है। ओज़ोन परत हानिकारक पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है।
यदि सूर्य से आने वाली सभी पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँच जाती तो पृथ्वी पर सभी प्राणी रोग(कैंसर जैसे) से पीड़ित हो जाते। सभी पेड़ पौधे नष्ट हो जाते।लेकिन सूर्य विकिरण के साथ आने वाली पराबैगनी किरणों का लगभग 99% भाग ओजोन मण्डल द्वारा सोख लिया जाता है। जिससे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी वनस्पति तीव्र ताप व विकिरण से सुरक्षित बचे हुए है। इसीलिए ओजोन मण्डल या ओजोन परत को सुरक्षा कवच कहते हैं।
पराबैगनी किरणों से नुकसान
आमतौर पर ये पराबैगनी किरण [अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन] सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली एक किरण है जिसमें ऊर्जा ज्यादा होती है। यह ऊर्जा ओजोन की परत को नष्ट या पतला कर रही है। इन पराबैगनी किरणों को तीन भागों में बांटा गया है और इसमें से सबसे ज्यादा हानिकारक यूवी-सी 200-280 होती है। ओजोन परत हमें उन किरणों से बचाती है, जिनसे कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है। पराबैगनी किरणों [अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन] की बढ़ती मात्रा से चर्म कैंसर, मोतियाबिंद के अलावा शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। यही नहीं, इसका असर जैविक विविधता पर भी पड़ता है और कई फसलें नष्ट हो सकती हैं। इनका असर सूक्ष्म जीवाणुओं पर होता है। इसके अलावा यह समुद्र में छोटे-छोटे पौधों को भी प्रभावित करती जिससे मछलियों व अन्य प्राणियों की मात्रा कम हो सकती है।
ओजोन-क्षरण के प्रभाव
मनुष्य तथा जीव-जंतु – यह त्वचा-कैंसर की दर बढ़ाकर त्वचा को रूखा, झुर्रियों भरा और असमय बूढ़ा भी कर सकता है। यह मनुष्य तथा जंतुओं में नेत्र-विकार विशेष कर मोतियाबिंद को बढ़ा सकती है। यह मनुष्य तथा जंतुओं की रोगों की लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकता है।
वनस्पतियां-पराबैंगनी विकिरण वृद्धि पत्तियों का आकार छोटा कर सकती है अंकुरण का समय बढ़ा सकती हैं। यह मक्का, चावल, सोयाबीन, मटर गेहूं, जैसी पसलों से प्राप्त अनाज की मात्रा कम कर सकती है।
खाद्य-शृंखला- पराबैंगनी किरणों के समुद्र सतह के भीतर तक प्रवेश कर जाने से सूक्ष्म जलीय पौधे (फाइटोप्लैकटॉन्स) की वृद्धि धीमी हो सकती है। ये छोटे तैरने वाले उत्पादक समुद्र तथा गीली भूमि की खाद्य-शृंखलाओं की प्रथम कड़ी हैं, साथ ही ये वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को दूर करने में भी योगदान देते हैं। इससे स्थलीय खाद्य-शृंखला भी प्रभावित होगी।
पदार्थ – बढ़ा हुआ पराबैंगनी विकिरण पेंट, कपड़ों को हानि पहुंचाएगा, उनके रंग उड़ जाएंगे। प्लास्टिक का फर्नीचर, पाइप तेजी से खराब होंगे।
ओज़ोन परत का क्षरण

बढ़ते औद्योगीकरण के परिणामस्वरू वायुमंडल में कुछ ऐसे रसायनों की मात्रा बढ़ गयी, जिनके दुष्प्रभाव से ओज़ोन परत को ख़तरा उत्पन्न हो गया है। ऐसे रसायनों में ‘क्लोरों फ्लोरो कार्बन’ (सी.एफ.सी), क्लोरीन एवं नाइट्रस ऑक्साइड गैसें प्रमुख है। ये रसायन ओज़ोन गैस को ऑक्सीजन में विघटित कर देते हैं, जिसकी वजह से ओज़ोन परत पतली हो जाती है और उसमें छिद्र हो जाता है। यहाँ तक कि ओज़ोन परत में छिद्र का आकार यूरोप के आकार के बराबर हो गया है। ओज़ोन परत में छिद्र हो जाने के कारण सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें और रेडियो विकिरण धरती तक पहुंच जाते हैं तथा जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों पर अपना कुप्रभाव छोड़ते हैं।

रेफ्रीजरेशन उद्योग में प्रमुख रूप से प्रयुक्त होने वाली क्लोरा फलोरा कार्बन (सी.एफ.सी।), क्लोरीन, फ्लोरीन तथा कार्बन का यौगिक है। सूर्य की पराबैंगनी किरणें वायुमंडल में विद्यमान सी.एफ.सी. को तोड़ देती है तथा अलग हुई क्लोरीन एवं फ्लोरीन ओज़ोन गैस के अणुओं को ऑक्सीजन में विघटित कर देती है। ध्यातव्य है कि क्लोरीन का एक परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है। ओज़ोन परत को भेदने में नाइट्रस ऑक्साइड गैस भी प्रमुख भूमिका निभाती है। यह गैस मुख्य रूप से नायलान-66 एवं नायलान-612 के उत्पादन के दौरान उत्पन्न होती है क्योंकि उपरोक्त नायलान के उत्पादन में एडियिक अम्ल प्रयुक्त होता है।
ओजोन कैसे नष्ट होती है?
- बाहरी वायुमंडल की पराबैंगनी किरणें सी.एफ.सी. से क्लोरीन परमाणु को अलग कर देती हैं।
- मुक्त क्लोरीन परमाणु ओजोन के अणु पर आक्रमण करता है और इसे तोड़ देता है। इसके फलस्वरूप ऑक्सीजन अणु तथा क्लोरीन मोनोऑक्साइड बनती है-
Cl+O3=ClO+O2 - वायुमंडल का एक मुक्त ऑक्सीजन परमाणु क्लोरीन मोनोऑक्साइड पर आक्रमण करता है तथा एक मुक्त क्लोरीन परमाणु और एक ऑक्सीजन अणु का निर्माण करता है।
ClO+O=Cl+O2 - क्लोरीन इस क्रिया को 100 वर्षों तक दोहराने के लिए मुक्त है।
ओजोन-क्षरक पदार्थ
ये सभी मानव-निर्मित हैं-
सी.एफ.सी. क्लोरोफ्लोरोकार्बन, क्लोरीन, फ्लोरीन एवं ऑक्सीजन से बनी गैसें या द्रव पदार्थ हैं। ये मानव-निर्मित हैं, जो रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलित यंत्रों में शीतकारक रूप में प्रयोग होते हैं। साथ ही इसका प्रयोग कम्प्यूटर, फोन में प्रयुक्त इलेक्ट्रॉनिक सर्किट बोर्ड्स को साफ करने में भी होता है। गद्दों के कुशन, फोम बनाने, स्टायरोफोम के रूप में एवं पैकिंग सामग्री में भी इसका प्रयोग होता है।
हैलोन्स – ये भी एक सी.एफ.सी. हैं, किंतु यह क्लोरीन के स्थान पर ब्रोमीन का परमाणु होता है। ये ओजोन परत के लिए सी.एफ.सी. से ज्यादा खतरनाक है। यह अग्निशामक तत्वों के रूप में प्रयोग होते हैं। ये ब्रोमिन, परमाणु क्लोरीन की तुलना में सौ गुना अधिक ओजोन अणु नष्ट करते हैं।
कार्बन टेट्राक्लोराइड- यह सफाई करने में प्रयुक्त होने वाले विलयों में पाया जाता है। 160 से अधिक उपभोक्ता उत्पादों में यह उत्प्रेरक के रूप में प्रयुक्त होता है। यह भी ओजोन परत को हानि पहुंचाता है।

गर्मी के महीनों में ओज़ोन का ह्रास अपेक्षाकृत तेज़ी से होता है। ओज़ोन परत के ह्रास की दर प्रति दशक उत्तरी और दक्षिणी मध्य अक्षांश में लगभग 5 प्रतिशत है। यदि ओज़ोन परत के ह्रास की गति यही रही तो अगले 70 से 100 वर्षो में ओज़ोन परत को 11 प्रतिशत से 16 प्रतिशत नष्ट हो जाएगा।
फ्रिज, एयरकंडीशनर, इलेक्ट्रॉनिक कलपुर्जों की सफाई, अग्निशमन यंत्र आदि में क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स के उपयोग में लगातार वृद्धि होने से ओजोन परत के क्षरण की दर बढ़ रही है। सी।एफ।सी। का एक कण ओजोन एक लाख कणों को नष्ट कर देता है। वायुमंडल के ध्रुवीय भागों में ओजोन का निर्माण अपेक्षाकृत धीमी गति से होता है। अत: ओजोन के क्षरण का सर्वाधिक प्रभाव ध्रुवों के ऊपर दिखाई देता है।
सितम्बर 2006 तक अन्टार्कटिका के उपर ओजोन की परत में 40% की कमी पायी गयी थी, जिसे ओजोन छिद्र का नाम दिया गया था।
विश्व ओजोन दिवस का इतिहास
ओजोन परत के इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए पिछले दो दशक से इसे बचाने के लिए कार्य किए जा रहे हैं। लेकिन 23 जनवरी, 1995 को संयुक्त राष्ट्रसंघ(UNO) की आम सभा में पूरे विश्व में इसके प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए 16 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय ओजोन दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। उस समय लक्ष्य रखा गया कि पूरे विश्व में 2010 तक ओजोन मित्र वातावरण बनाया जाए। हालांकि अभी भी लक्ष्य दूर है लेकिन ओजोन परत बचाने की दिशा में विश्व ने उल्लेखनीय कार्य किया है।
रसायन और उनसे छुटकारा पाने का कार्यक्रम
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत फिलहाल 96 रसायनों पर नियंत्रण लगाया गया है जिसमें शामिल हैं-
हेलो कार्बन जो क्लोरोफ्लोरोकार्बन और हेलॅन्स के रूप में उल्लेखनीय है। 1928 में क्लोरोफ्लोरो कार्बन की खोज हुई और इन्हें आश्चर्यजनक गैस माना गया, क्योंकि ये लम्बे समय तक रहती है, और विषैली नहीं होती हैं। इनसे जंग नहीं लगता (असंक्षारक) और ये अज्वलनशील होती हैं। ये परिवर्तनशील है और 1960 के दशक से रेफ्रिजरेटरों, एयरकंडीशनरों, स्प्रे केंस, विलायकों, फोम और अन्य अनुप्रयोगों में इनका उपयोग बढ़ता जा रहा है। सीएफसी-11 पचास वर्षों तक वायुमंडल में रहती है, सीएफसी-12 एक सौ दो वर्षों तक और सीएफसी-115 सत्रह सौ वर्षों तक वायुमंडल में रहती है। हेलॅन-1301 प्राथमिक रूप से आग बुझाने में उपयोग की जाती है और यह वायुमंडल में 65 साल तक रहती है।
कार्बन टेट्राक्लोराइड विलायक के रूप में उपयोग की जाती है और वायुमंडल में विघटित होने में करीब 42 वर्ष लेती है। मिथाइल क्लोरोफोर्म (1,1,1-ट्राईक्लोरोइथेन) भी विलायक के रूप में इस्तेमाल की जाती है और विघटित होने में करीब 5.4 वर्ष लेती है। हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन (एचबीएफसी) का अधिक इस्तेमाल नहीं किया जाता है, परंतु किसी नये इस्तेमाल से बचने के लिए इनको भी प्रोटोकॉल के तहत शामिल किया गया है।
हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) सीएफसी के स्थान पर प्रयुक्त करने के लिए पहले प्रमुख विस्थापक के रूप में इसका विकास किया गया था। यह क्लोरोफ्लोरोकार्बन की तुलना में बहुत कम विनाशक है। एचसीएफसी भी ओजोन की क्षय में योगदान देती है और वायुमंडल में करीब 1.4 से 19.5 वर्ष तक विद्यमान रहती है।
मिथाइल ब्रोमोइड (सीएच-3 बीआर) बहुमूल्य फसलों, कीट नियत्रंण और निर्यात के लिये प्रतीक्षित कृषि जिंसों के क्वेरेन्टाइन उपचार के लिये धूम्रक (फ्यूमिगैन्ट) के रूप में इस्तेमाल की जाती है। वायुमंडल में विघटित होने में इसे करीब 0.7 वर्ष लगते हैं।
ब्रोमोक्लोरोमीथेन (बीसीएम) ओजोन को क्षति पहुंचाने वाला नया तत्व है जिसे कुछ कम्पनियों ने 1998 में बाजार में उतारने की अनुमति मांगी थी। इसको इस्तेमाल से बाहर करने के लिये 1999 के संशोधन में शामिल किया गया।
भारत को चार प्रमुख रसायन-क्लोरोफ्लोरा कार्बन, सीटीसी, हेलॅन्स और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन इस्तेमाल से बाहर करने थे जिनमें से 2003 के प्रारंभ में हेलेन्स को इस्तेमाल से बाहर किया गया। 1 अगस्त 2008 तक सीएफसी को भी इस्तेमाल से बाहर कर दिया गया है। सीटीसी का इस्तेमाल 2009 के आखिर तक बंद करने की बात थी और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन को बाहर करने की प्रक्रिया अभी जारी है। सभी पक्ष ओजोन को क्षति पहुंचाने वाले ऐसे नये तत्वों के विपणन से बचने के उपायों पर विचार कर रहे हैं जो अब तक प्रोटोकॉल में शामिल नहीं है।
विकसित देशों में हेलॅन्स और क्लोरोफ्लोरोकार्बन, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफार्म और हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन को इस्तेमाल से बाहर करने की प्रक्रिया क्रमश: 1994 और 1996 में पूरी कर ली गई है 1999 तक मिथाइलब्रोमोइड के इस्तेमाल में 25 प्रतिशत कमी की गयी। 2001 में 50 प्रतिशत और 2003 में 70 प्रतिशत कमी की गई। 2005 तक इसे इस्तेमाल से पूरी तरह बाहर कर दिया गया।
इस दौरान 2004 तक हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन के इस्तेमाल में 35 प्रतिशत कमी की गई जिसके इस्तेमाल में 2010 तक 65 प्रतिशत, 2015 तक 90 प्रतिशत और 2020 तक 99.5 प्रतिशत कमी की जानी है। 2030 तक सिर्फ रख-रखाव के उद्देश्यों में ही इसके 0.5 प्रतिशत इस्तेमाल की अनुमति होगी। 1996 तक हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन और बीसीएम को तुरंत इस्तेमाल से बाहर करने का कार्यक्रम बनाया गया। विकासशील देशों को इन गैसों को इस्तेमाल से बाहर करने का कार्यक्रम शुरू करने से पहले कुछ समय की छूट दी गई। इससे इस बात का पता चलता है कि विकसित देश वायुमंडल में कुल उत्सर्जन के अधिकांश के लिए उत्तरदायी है और उनके पास इनके विस्थापकों को अपनाने के लिये अधिक वित्तीय और प्रौद्योगिकी संसाधन है। विकासशील देशों का कार्यक्रम इस प्रकार था-
- 1996 तक हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन और बीसीएम को तुरंत इस्तेमाल से बाहर करना।
- क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हेलेन्स और कार्बनटेट्राक्लोरोइड को 1 जुलाई 1999 तक 1995 से 97 के औसत पर लाना, 2005 तक 50 प्रतिशत कमी, 2007 तक 85 प्रतिशत कमी और 2010 तक पूरी तरह इस्तेमाल से बाहर करना।
- 2003 तक मिथाइल क्लोरोफार्म के इस्तेमाल को 1998-2000 के औसत स्तर पर लाना, 2005 तक 30 प्रतिशत कमी और 2010 तक 70 प्रतिशत कमी और 2015 तक पूरी तरह इस्तेमाल से बाहर करना।
- मिथाइलब्रोमोइड के इस्तेमाल को 2002 तक 1995 से 98 के औसत स्तर पर लाना, 2005 तक इस्तेमाल में 20 प्रतिशत कमी और 2015 तक इस्तेमाल से पूरी तरह बाहर करना।
- 2016 तक हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन को 2015 के स्तर पर और 2040 तक इस्तेमाल से बाहर करना।
इस्तेमाल से बाहर करने के कार्यक्रम में लक्षित पदार्थों के उत्पादन और खपत दोनों शामिल है। हालांकि इसके बाद भी विकसित और विकासशील देशों में लक्षित पदार्थों के आवश्यक इस्तेमाल को पूरा करने के लिए सीमित मात्रा में इनके उत्पादन की अनुमति है जिसके लिए अब तक किसी विकल्प की पहचान नहीं की गई है!
प्रोटोकॉल के बिना, वर्ष 2050 तक ओजोन का अवक्षय उत्तरी गोलार्ध के मध्य अक्षांश में कम से कम 50% और दक्षिणी मध्य अक्षांश में 70% बढ़ जाएगा जो मौजूदा स्तर से 10 गुणा अधिक बुरा होगा। इसका परिणाम उत्तरी मध्य अक्षांश में धरती पर दुगुनी तथा दक्षिण में चौगुनी अल्ट्रावायलेट-बी (पराबैंगनी) विकिरण के रूप में दिखाई देगा। वायुमंडल में ओजोन के अवक्षय के लिए जिम्मेदार रसायनों की मात्रा पांच गुना अधिक होगी। इसके निहितार्थ और भी डरावने यानी नॉन-मैलेनोमा कैंसर के 19 मिलियन अधिक मामले, मैलेनोमा कैंसर के 1.5 मिलियन मामले और आंख के मोतियाबिंद के 130 मिलियन अधिक मामलों के रूप में सामने आएंगे।
विश्व समुदाय ने ओजोन के अवक्षय, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और अंतर्राष्ट्रीय पानी जैसी चुनौतियों से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) की स्थापना की थी। जीईएफ परिवर्तनशील अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में ओजोन के अवक्षय के लिए जिम्मेदार पदार्थों को इस्तेमाल से बाहर करने की परियोजनाओं और क्रियाकलापों को बढ़ावा देती है! जीईएफ ने इन परियोजनाओं और कार्यकलापों के अंतर्गत 1996 और 2000 के बीच निम्नलिखित 17 देशों की सहायता के लिए 160 मिलियन डालर से अधिक की मंजूरी दी है।
अज़रबैजान, बेलारूस, बुलगारिया, चैक गणराज्य, इस्टोनिया, हंगरी, कज़ाख्स्तान, लातविया, लिथुआनिया, पोलैण्ड, रूसी संघ, स्लोवाकिया, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान। जीईएफ ने हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन और मिथाइल ब्रोमाइड को इस्तेमाल से बाहर करने में इन देशों की मदद करने के लिए 60 मिलियन डालर का अतिरिक्त कोष चिह्नित किया है।
वैज्ञानिकों ने अनुमान व्यक्त किया है कि अगले पांच वर्षों के दौरान ओजोन क्षय अपने सबसे बुरे स्तर पर पहुंच जाएगा और फिर धीरे-धीरे इसमें विपरीत रूझान आना शुरू होगा एवं करीब 2050 तक ओजोन परत सामान्य स्तर पर आ जाएगी। यह अनुमान इस आधार पर व्यक्त किया गया है कि माँट्रियल प्रोटोकोल को पूरी तरह लागू किया जाएगा। ओजोन परत फिलहाल बेहद संवेदनशील अवस्था में है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन उत्सर्जन में कमी के बावजूद, समतापमंडलीय सांद्रण अब भी बढ़ रहा है (तथापि निचले वायुमंडल में वे कम हो रहे हैं) क्योंकि लम्बे समय तक बने रहने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन का जो उत्सर्जन हो चुका है वह समताप मंडल में अब भी बढ़ना जारी है। कुछ निश्चित क्लोरोफ्लोरोकार्बन (जैसे सीएफसी-11 और सीएफसी-113), कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफार्म की प्रचुरता घट रही है। ज्यादातर हैलॅन्स की प्रचुरता में वृद्धि जारी है। वस्तुतः हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन और हाइड्रोफ्लोरोकार्बन बढ़ रहे हैं, क्योंकि वे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (जो इस्तेमाल से बाहर किए जा रहे हैं) के विकल्पों के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ओजोन सुरक्षा की सफलता संभव हुई है क्योंकि विज्ञान और उद्योग ओजोन का क्षय करने वाले रसायनों के विकल्पों को विकसित करने और उनका व्यावसायीकरण करने में सफल रहे हैं।
ओजोन परत को बचाने की कवायद का ही परिणाम है कि आज बाजार में ओजोन मित्र फ्रिज, कूलर आदि आ गए हैं। इस परत को बचाने के लिए जरूरी है कि फोम के गद्दों का इस्तेमाल न किया जाए। प्लास्टिक का इस्तेमाल कम से कम हो। रूम फ्रेशनर्स व केमिकल परफ्यूम का उपयोग न किया जाए और ओजोन मित्र रेफ्रीजरेटर, एयर कंडीशन का ही इस्तेमाल किया जाए। इसके अलावा अपने घर की बनावट ओजोन मित्र तरीके से किया जाए, जिसमें रोशनी, हवा व ऊर्जा के लिए प्राकृतिक स्त्रोतों का प्रयोग हो।
यह धरती हमें एक विरासत के तौर पर मिली है जिसे हमें आने वाली पीढ़ी को भी देना है। हमें ऐसे रास्ते अपनाने चाहिए जिनसे ना सिर्फ हमारा फायदा हो बल्कि उससे हमारी आने वाली पीढ़ी भी इस बेहद खूबसूरत धरती का आनंद ले सके।
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save ozone lyyer
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ओजोन परत छिद्र का कौन दोषी है ?
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मानव, विशेषकर विकसीत देश।
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गुरूजी,
ओजोन परत सिर्फ पराबैँगनी किरणोँ को ही क्योँ अवशोषित करती है किसी और किरण को क्योँ नहीँ और इसका कारण क्या हैँ?
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ओज़ोन और पराबैंगनी किरणो का अजीब रिश्ता है। पराबैंगनी किरणे O2(आक्सीजन) के अणु को आक्सीजन के दो नवजात परमाणु मे तोड़ देती है। यह अत्यंत क्रियाशील नवजात आक्सीजन परमाणू(O) अन्य आक्सीजन के अणु(O2) से प्रक्रिया कर ओजोन (O3) बनाता है। ओजोन अस्थिर होता है, जिससे वह पराबैंगनी किरणो के टकराव से टूट जाता है और आक्सीजन(O2) बनाता है। यह एक चक्रिय प्रक्रिया होती है जिसमे पराबैंगनी किरणो का अवशोषण होते रहता है।
O2 + UV light —> O + O
O + O2 -> O3
O3 + UV Light -> O + O2
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