परग्रही जीवन श्रंखला भाग 04 : कहां है वे ?


सेटी प्रोजेक्ट ने अभी तक परग्रही जीवन का कोई भी संकेत नही पकड़ा है। विज्ञानीयो को अब फ्रैंक ड्रेक के बुद्धिमान परग्रही सभ्यता समीकरण के कारक पूर्वानुमानो पर पुनर्विचार करने आवश्यकता महसूस हुयी। हाल मे प्राप्त हुयी खगोल विज्ञान की नयी जानकारीयो के अनुसार बुद्धिमान परग्रही सभ्यता की संभावना, 1960 मे फ्रेंक ड्रेक द्वारा गणना की गयी संभावना से कहीं अलग है। बुद्धिमान परग्रही जीवन की नयी संभावना मूल संभावना से ज्यादा आशावादी और ज्यादा निराशावादी दोनो है।

गोल्डीलाक क्षेत्र

गोल्डीलाक क्षेत्र का एक ग्रह "हमारी धरती"।
गोल्डीलाक क्षेत्र का एक ग्रह “हमारी धरती”।

गोल्डीलाक क्षेत्र तारे से उस दूरी वाले क्षेत्र को कहा जाता है जहां पर कोई ग्रह अपनी सतह पर द्रव जल रख सकता है तथा पृथ्वी जैसे जीवन का भरण पोषण कर सकता है। यह निवास योग्य क्षेत्र दो क्षेत्रो का प्रतिच्छेदन(intersection) क्षेत्र है जिन्हे जीवन के लिये सहायक होना चाहिये; इनमे से एक क्षेत्र ग्रहीय प्रणाली का है तथा दूसरा क्षेत्र आकाशगंगा का है। इस क्षेत्र के ग्रह और उनके चन्द्रमा जीवन की सम्भावना के उपयुक्त है और पृथ्वी के जैसे जीवन के लिये सहायक हो सकते है। सामान्यत: यह सिद्धांत चन्द्रमाओ पर लागू नही होता क्योंकि चन्द्रमाओ पर जीवन उसके मातृ ग्रह से दूरी पर भी निर्भर करता है तथा हमारे पास इस बारे मे ज्यादा सैद्धांतिक जानकारी नही है।

गोल्शेनिवासयोग्य क्षेत्र (गोल्डीलाक क्षेत्र) ग्रहीय जीवन क्षमता से अलग है। किसी ग्रह के  जीवन के सहायक होने की परिस्थितियों को ग्रहीय जीवन क्षमता कहा जाता है। ग्रहीय जीवन क्षमता मे उस ग्रह के कार्बन आधारित जीवन के सहायक होने के गुण का समावेश होता है; जबकि निवासयोग्य क्षेत्र (गोल्डीलाक क्षेत्र) मे अंतरिक्ष के उस क्षेत्र के कार्बन आधारित जीवन के सहायक होने के गुण का। यह दोनो अलग अलग है। उदाहरण के लिये हमारे सौर मंडल के गोल्डीलाक क्षेत्र मे शुक्र, पृथ्वी और मंगल तीनो ग्रह आते है लेकिन पृथ्वी के अलावा दोनो ग्रह(शुक्र और मंगल) मे जीवन के सहायक परिस्थितियां अर्थात ग्रहीय जीवन क्षमता नही है।

जीवन के लिये सहायक इस क्षेत्र को निवासयोग्य क्षेत्र , गोल्डीलाक क्षेत्र या जीवन क्षेत्र भी कहा जाता है।

गोल्डीलाक क्षेत्र के बाहर जीवन

नयी जानकारीयो के अनुसार जीवन फ़्रैक ड्रेक द्वारा अनुमानित परिस्थितियो के अतिरिक्त भी पनप सकता है। पहले यह माना जाता था कि द्रव जल सिर्फ सूर्य के आसपास ’गोल्डीलाक क्षेत्र’ मे ही पाया जा सकता है। पृथ्वी की सूर्य से दूरी ’एकदम ठीक’ है, यह दूरी थोड़ी कम होने पर जल उबल कर उड़ जायेगा, दूरी थोड़ी ज्यादा होने पर जल जमकर बर्फ बन जायेगा।

गोल्डीलाक क्षेत्र के बाहर युरोपा जैसे चन्द्रमाओ पर जीवन संभव है।
गोल्डीलाक क्षेत्र के बाहर युरोपा जैसे चन्द्रमाओ पर जीवन संभव है।

वैज्ञानिक यह देख कर आश्चर्यचकित रह गये  कि बृहस्पति के चन्द्रमा युरोपा की बर्फीली सतह के निचे द्रव जल हो सकता है। युरोपा गोल्डीलाक क्षेत्र से काफी बाहर है, इसलिये वह फ्रैंक ड्रेक के समीकरण मे नही आयेगा। लेकिन युरोपा पर ज्वारिय बल(tidal force) बर्फीली सतह को पिघला कर एक द्रव जल के सागर बनाने मे समर्थ है। युरोपा जब बृहस्पति की परिक्रमा करता है, बृहस्पति का विशालकाय गुरुत्वाकर्षण बल युरोपा को एक रबर की गेंद जैसे संपिडित करता है जिससे युरोपा के केन्द्रक(core) तक घर्षण पैदा होता है जो इसकी बर्फीली सतह को पिघला देता है। हमारे सौर मंडल मे ही लगभग सौ से ज्यादा चन्द्रमा है, इसका अर्थ यह है कि गोल्डीलाक क्षेत्र के बाहर हमारे सौर मंडल मे जीवन के लिये सक्षम चन्द्रमाओ की संख्या पूराने अनुमानो से कहीं ज्यादा है। सौर मंडल के बाहर अब तक 250 से ज्यादा महाकाय गैस ग्रह खोजे जा चूके है जिनके बर्फीले चन्द्रमा हो सकते है जीनपर जीवन संभव हो सकता है।

इसके अतिरिक्त ब्रम्हांड मे कुछ आवारा ग्रह(rouge) हो सकते है जो अब किसी तारे की परिक्रमा नही करते है। इन ग्रहो के चन्द्रमा ज्वारीय प्रभाव के कारण बर्फीली सतह के नीचे द्रव जल के सागर लिये हो सकते है, जोकि जीवन का संकेत है। लेकिन ऐसे चन्द्रमाओ को खोज पाना हमारे लिये लगभग असंभव है क्योंकि हमारे उपकरण मातृ तारे की रोशनी से ग्रहो और उनके चन्द्रमाओ को देख पाते है।

सौरमंडल मे चन्द्रमाओ की संख्या ग्रहो की संख्या से कहीं ज्यादा होती है तथा आकाशगंगा मे लाखो भटकते आवारा ग्रह हो सकते है, इसलिये जीवन की संभावना वाले पिंड पूर्वानुमानो से कहीं ज्यादा है।

पृथ्वी पर जीवन के लिये “गोल्डीलाक क्षेत्र” के अतिरिक्त सहायक परिस्थितीयां

दूसरी तरफ खगोलविज्ञानीयो के अनुसार ’गोल्डीलाक क्षेत्र’ के ग्रहो मे विभिन्न कारणो से  जीवन की संभावना ड्रेक के अनुमानो से कही कम है। उनके अनुसार पृथ्वी के गोल्डीलाक क्षेत्र मे होने के अतिरिक्त जीवन के पनपने के लिये कुछ अन्य कारक भी है।

  • प्रथम: कम्प्युटर प्रोग्रामो के अनुसार जीवन के लिये बृहस्पति जैसे ग्रहो की उपस्थिती अनिवार्य है जो अंदरूनी ग्रहो को धूमकेतु और उल्काओ से बचाते है। ये ग्रह अपने गुरुत्वाकर्षण से उल्काओ और धूमकेतुओ सूदूर अंतरिक्ष मे धकेल कर सौर मंडल को साफ रखते है जिससे अंदरूनी ग्रहो पर जीवन संभव होता है। यदि हमारे सौर मंडल मे बृहस्पति नही होता तब पृथ्वी पर उल्काओ, धूमकेतुओ की ऐसी बारीश होती जिससे जीवन असंभव हो जाता । कार्नेगी संस्थान वाशींगटन के खगोलशास्त्री डाक्टर जार्ज वेदरील के अनुसार बृहस्पति और शनि की अनुपस्थिती मे पृथ्वी की क्षुद्रग्रहो से जीवन नष्ट करनेवाली टक्कर हजारो गुणा ज्यादा संख्या मे अर्थात हर 10,000 वर्ष मे होती। ध्यान रहे आज से 6.5 करोड़ वर्ष पहले हुयी एक ऐसी ही टक्कर मे पृथ्वी से डायनोसोर का नामोनिशान मिट गया था। जार्ज के अनुसार ऐसी स्थिती मे जीवन कैसे बचता अनुमान लगाना मुश्किल है।
  • द्वितिय: पृथ्वी का एक बड़ा चन्द्रमा है जो पृथ्वी के घुर्णन की गति को नियंत्रित करता है। न्युटन के गति के नियमो के अनुसार चन्द्रमा के न होने पर पृथ्वी का घुर्णन अक्ष अस्थिर होता और पृथ्वी के घुर्णन अक्ष से लुड़कने की संभावना बढ जाती। यह स्थिती भी जीवन को असंभव बनाती है। फ्रेंच खगोल शास्त्री डाक्टर जेक्स लास्केर के अनुसार चन्द्रमा के न होने पर पृथ्वी का अक्ष 0 से 54 डीग्री तक दोलन करता, जिससे जीवन को असंभव बनाने वाली विषम मौसमी स्थिती बनती। जीवन की संभावना के लिये ग्रह के पास तुलनात्मक रूप से बड़ा उपग्रह भी आवश्यक है। इस कारक को भी ड्रेक के समीकरण मे शामील किया जाना चाहीये। (मंगल के दो नन्हे चन्द्रमा है, वे इतने छोटे है  कि वे मंगल के अक्ष को स्थिर करने मे अक्षम है, मंगल भूतकाल मे अपने अक्ष से लुढ़क चूका है और भविष्य मे भी लुढ़क सकता है।)
  • तृतिय: हालही के भूगर्भीय सबूत बताते है कि भूतकाल मे पृथ्वी पर से जीवन कई बार नष्ट हो चूका है। लगभग 2 अरब वर्ष पहले पृथ्वी पूरी तरह से बर्फ से ढंकी थी, यह हिमयुग था और इसमे जीवन संभव नही था। कुछ अन्य अवसरो पर ज्वालामुखी विस्फोट और उल्कापातो ने पृथ्वी पर जीवन लगभग नष्ट किया है। जीवन का निर्माण और विनाश हमारे अनुमान से ज्यादा नाजुक है।
  • चतुर्थ: भूतकाल मे बुद्धिमान जीवन भी कई बार लगभग पूरी तरह नष्ट हो चूका है। नये DNA सबुतो के अनुसार लगभग 100,000 वर्ष पहले शायद कुछ सौ से कुछ हजार मनुष्य ही बचे थे। अन्य प्राणीयो जहां विभिन्न प्रजातियो मे बहुत ज्यादा जीनेटीक अंतर होता है,लेकिन आश्चर्यजनक  रूप से सभी मनुष्य जीनेटीक रूप से एक जैसे ही है। प्राणीजगत की तुलना मे हम सभी एक दूसरे के क्लोन है। यह उसी स्थिती मे संभव है जब अधिकतर मानव प्रजाति किसी दूर्घटना मे नष्ट हो जाये और कुछ ही मनुष्यो से मानव जीवन आगे बढे। जैसे किसी ज्वालामुखी विस्फोट से मौसम अचानक ठंडा हो जाये और लगभग सारी मानव प्रजाति नष्ट हो जाये।

इनके अलावा पृथ्वी पर जीवन के कुछ और कारण है जैसे

  • मजबूत चुंबकिय क्षेत्र : यह ब्रम्हाण्डीय और सौर विकिरण से जीवन की रक्षा के लिये अनिवार्य है। इसके न होने पर पृथ्वी के वातावरण का सौर वायू के प्रवाह से क्षरण होता रहेगा।
  • पृथ्वी के घुर्णन की औसत गति : यदि पृथ्वी की घुर्णन गति कम हो तो दिन वाले क्षेत्र मे अत्याधिक गर्मी होगी वही रात वाले क्षेत्र मे अत्याधिक ठंड। यदि घुर्णन गति ज्यादा हो तब प्रचण्ड मौसम स्थिती उत्पन्न होगी जैसे अत्यंत तेज हवाये और तुफान ।
  • आकाशगंगा के केन्द्र से सही दूरी: यदि पृथ्वी आकाशगंगा के केन्द्र के ज्यादा पास हो तो खतरनाक मात्रा मे विकिरण प्राप्त होगा, वहीं ज्यादा दूरी पर DNA अणु बनाने के लिये आवश्यक तत्व नही होंगे।

वर्तमान मे परग्रही जीवन की संभावना का आकलन

इन सभी कारको से खगोलशास्त्री मानते है कि जीवन गोल्डीलाक क्षेत्र से बाहर चंद्रमाओ पर या भटकते ग्रहो पर संभव है, लेकिन गोल्डीलाक क्षेत्र मे स्थित पृथ्वी जैसे ग्रहो पर इसकी संभावना पूर्वानुमानो से कम है। लेकिन कुल मिलाकर ड्रेक के समिकरण से प्राप्त नये आकलन जीवन की खोज की संभावना को पूर्व मे किये आकलनो से कम दर्शाते है।

प्रोफ़ेसर पीटर वार्ड और डोनाल्ड ब्राउन ली ने लिखा है

” हम मानते है कि जीवाणु और बीवाणु के रूप मे जीवन ब्रम्हाण्ड मे सामान्य है, शायद ड्रेक और कार्ल सागन की गणना से कहीं ज्यादा। लेकिन जटिल जीवन जैसे प्राणी और वनस्पति पूर्वानुमानो से कहीं ज्यादा दूर्लभ है।”

वार्ड और ली पृथ्वी को आकाशगंगा मे जीवन के लिये अद्वितिय होने की संभावना को हवा देते है। यह सिद्धांत हमारी आकाशगंगा मे जीवन की खोज की उम्मीद को मंद करता है लेकिन दूसरी आकाशगंगाओ मे जीवन की संभावना को नकारता नही है।

क्रमश:…(अगला भाग: पृथ्वी जैसे ग्रह की खोज)

11 विचार “परग्रही जीवन श्रंखला भाग 04 : कहां है वे ?&rdquo पर;

  1. Brahmand me dusre graho per jivan ki khoj kabhi safal nahi hogi. Shayad prakirti aisa hone ki anumati nahi dena chahti. Tabhi to space me do saurmandalo kei aapas me distence itna bada hai.aur space me lambe samay bitana bhi manav ke liye muskil hai. Aur sabse badi bat koi bhi matter jo apna mash rakhta ho light ki speed ke barabari nahi kar sakta. To clear hai ki prakirti sirf aur sirf hame bus ek matra apne isi prithvi grah tak hi simit rakhna chahti hai.but hum manushyo ki gyan ki pipasa kabhi shant nahi hogi. To prayas kArte rahe.

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  2. हमारी आकाशगंगा जिसका नाम मंदाकिनी है , इसे हमारे महर्षियो ने मंदाकिनी नाम इसलिये दिया कारण कि तुलनात्मक रूप से यह मंद गति से घूर्णन कर रही है यह गति जीवन के लिये सहायक परिस्थितियॉ निर्मित करती हैं

    हमारे महर्षियो ने बहुत सूक्ष्म विज्ञान को इतने सहज ढंग से वर्णित किया है कि अविश्वसनिय लगता है

    हम आकाशगंगा की बात कर रहे है

    आकागंगा को वास्तविक रूप में हब्बल द्वारा देखे हुए अधिक समय नही बीता है

    अब जरा आकाश गंगा के स्वरूप पर विचार कीजिये जिसका वर्णन हमारे ऋषियो ने पुराणों मे किया है

    हमारे ऋषियो ने आकाशगंगा को
    चतुर्भुज विष्णु के स्वरूप में वर्णन किया है
    जिनके हाथ मे चक्र , गदा , कमल और शंख है

    अब जरा इसे उत्कीलित (Decode) करके इसका मतलब समझना चाहे तो वो इस प्रकार है :-

    चतुर्भुज विष्णु अर्थात चार भुजाओ वाली आकाशगंगा जहा जीवन मौजूद है (जीवित मानव जैसी आकृति और उसके चार हाथ)

    एक हाथ में चक्र अर्थात यह आकाशगंगा चक्र की तरह अपने अक्ष पर घूर्णन करती है

    एक हाथ में गदा (ग+दा=गदा …जहॉ ……ग > गति — दा >. देने वाला ..)अर्थात वह सिस्टम या तंत्र जो इस आकाशगंगा को गतिमान बनाये हुए है जिससे यह अपने केन्द्र पर घूर्णन करते हुए केन्द्र से बाहर की ओर गति कर रही है

    जिसकी आकृति कमल के पुष्प के समान है जिसके केन्द्र से नयी पंखुडियॉ निकलती रहती है व बाहर की ओर फैल कर परिपक्व होकर विसर्जित होती रहती है
    इसी प्रकार आकाशगंगा के केन्द्र से नये तारे निकलते व परिधि पर विसर्जित होते रहते है
    और शंख की आकृति की तरह आकाॉशगंगा के केन्द्र और परिधि का अनुपात है तथा इस प्रक्रिया से नाद (sound) की उत्पत्ति हो रही है

    ये चतुर्भुज विष्णु जगत (जो गतिमान है) का पालन करते है

    हमरी आकाश गंगा की इन चार विशाल भुजाओ
    मे से एक भुजा के किसी भाग में तारे के रूप मे हमारा सूर्य सौरमण्डल के साथ स्थित है

    तो यह तो विज्ञान के नियमो से ही सुनिश्चित हो गया कि हमारा सूर्य आकाशगंगा के केन्द्र से जितनी दूरी पर मौजूद है
    हमारी आकाशगंगा के केन्द्र से उतनी ही दूरी पर शेष तीनो भुजाओ पर भी हमारे जैसे सौरमंडल निश्चित रूप से मौजूद है क्योकि परिस्थितिया ( time -space)
    समान है

    यद्यपि आधूनिक वैज्ञानिको ने मंदाकिनि को यथार्थ स्वरूप मे अपने उपकरणो से देखने मे सफलता पायी नहीं है तथापि अाईन्टाइन के गणीतिय समीकरण समानान्तर ब्रह्माण्ड की उपस्थिति को स्वीकार करते है

    और हमारा वैदिक ज्ञान भी इसकी उद्घोषणा करता है

    जिसे आइन्सटाइन ने अपने समीकरणो से खोजा है ब्रह्माण्ड के इस ज्ञान को हंमारे महर्षियो ने कीलित कथाओ(Coded stories) में लिख कर रखा है जबतक समझ न आये …सब बकवास है
    किन्तु

    अर्थ ज्ञात हो आये तो यह विज्ञान है

    सबकी विधि प्रक्रियाऐ उपलब्ध हैं I

    धन्यवाद आशीश जी ,

    B.s

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  3. बहुत अच्छा लिखा है आपने. क्या आपने इस विषय पर निल बोस्ट्रम (Nick Bostrom) का शानदार निबंध पढ़ा है? उसकी लिंक ये हैः http://www.nickbostrom.com/extraterrestrial.pdf

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    1. निशांत जी,
      निक बोस्ट्रम का यह निबण्ध मैने नही पढ़ा था। इसका लिंक उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद!

      निक बोस्ट्रम अपने इस निबंध मे निराशावादी दृष्टिकोण अपनाया है जो कि अब तक उपलब्ध वैज्ञानिक खोजो/प्रमाणो पर आधारित है। निक बोस्ट्रम द्वारा उठाये गये कुछ मुद्दे इस लेख श्रंखला के अगले लेख मे आयेंगे।

      लार्ड केल्विन की एक दिलस्प टिप्पणी

      “Heavier-than-air flying machines are impossible.”

      😀

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