शीत ऋतु , अमावस की रात, निरभ्र आकाश मे चमकते टिमटिमाते तारे, उत्तर से दक्षिण की ओर तारों से भरा श्वेत जलधारा के रूप मे मंदाकीनी आकाशगंगा का पट्टा! आकाश के निरीक्षण के लिये इससे बेहतर और क्या हो सकता है। अपनी दूरबीन उठाई और आ गये छत पर; ग्रह, तारों और निहारिकाओ को निहारने के लिये। दूरबीन लेकर छत पर जाते देख कर गार्गी, अनुषा और सारी बाल मंडली भी पीछे पीछे छत पर आ गये।
गार्गी: “पापा आज क्या दिखा रहे हो ?”

आज दिखाते है हमारे सौर मंडल के बाहर का सबसे समीप का तारा! वो देखो जो तारा दिख रहा है, वह है अल्फ़ा सेंटारी। लेकिन हम जो एक तारा देखते है ना, वह एक तारा नही है, वह तीन तारो का समूह है, जिनके नाम है अल्फ़ा सेंटारी अ, अल्फ़ा सेंटारी ब और प्राक्सीमा सेंटारी।
हाँ पापा , अभी हाल ही मे इस तारे का एक ग्रह भी खोजा गया था ना!
हाँ, इन तीन तारो मे हमारे सबसे करीब का तारा है प्राक्सीमा सेंटारी। इसी तारे की परिक्रमा करता हुआ एक नया ग्रह खोजा गया है। प्राक्सीमा सेंटारी जोकि एक लाल वामन(Red Dwarf) तारा है और हमारे पड़ोस मे ही सबसे समीप का केवल 4.24 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित तारा है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि प्राक्सीमा सेंटारी तारे के इस इस नये खोजे गये ग्रह की कक्षा ऐसी है कि इस ग्रह की सतह पर द्रव जल की उपस्थिति होना चाहीये।
इसका क्या मतलब है , ताउजी ? अब तक शांत अनुषा ने प्रश्न उछाला।
इसका अर्थ यह है कि यह नया खोजा गया ग्रह गोल्डीलाक झोन मे है। गोल्डीलाक झोन का अर्थ होता है किसी तारे के पास का एक ऐसा क्षेत्र जहाँ पर जीवन संभव हो सकता है। इस क्षेत्र मे ग्रह की अपने मातृ तारे से दूरी इतनी होती है कि वहाँ पर पानी द्रव अवस्था मे रह सकता है। इस दूरी से कम होने पर तारे की उष्णता से पानी भाप बन कर उड़ जायेगा, दूरी इससे ज्यादा होने पर वह बर्फ के रूप मे जम जायेगा। हमारी अब तक की जानकारी के अनुसार द्रव जल जीवन के लिये आवश्यक है, इसके बिना जीवन संभव नही है।
तो इसपर एलियन होंगे ?

अभी तक ऐसा कुछ नही कह सकते है। लेकिन हमारे लिये यह ग्रह बहुत महत्वपूर्ण है। इस तारा प्रणाली का मुख्य तारा अल्फा सेंटारी एक लंबे समय से विज्ञान फतांशी लेखको की पसंद रहा है। यदि कभी मानवो को सौरमंडल से बाहर की यात्रा करनी हो तो यह तारा इस खगोलीय यात्रा का पहला पड़ाव होगा, यही नही किसी कारण से पृथ्वी पर जीवन पर कोई खतरा आये तो इस तारे को भविष्य की मानव सभ्यता के लिये बचाव केंद्र माना जाता रहा है।
तो पापा, क्या पृथ्वी पर जीवन को खतरा है भी है?
तुम्हे याद है, पिछले साल हम नाशिक गये थे। नाशिक के पास एक बड़ी झील देखी थी, लोणार झील। तुमने उसका आकार देखा था, एकदम गोलाकार झील!
हाँ झील देखी तो थी लेकिन उस झील का इस तारे, आकाश या जीवन से क्या संबंध है ? आप तारो से सीधे लोणार झील पर कैसे आ गये?
रूको ना, बताते है। लोणार झील, मानव निर्मित नही है। यह आकाश से आई एक विशालकाय चट्टान की पृथ्वी से टक्कर से बनी झील है। आज से लगभग 50,000 वर्ष पहले अंतरिक्ष से एक चट्टान जिसे उल्का पिंड भी कहते है, पृथ्वी से टकराया था था, इस टकराव से एक विशाल गोलाकार गढ्ढा बना जो कि वर्तमान मे इस झील के रूप मे है। पृथ्वी पर इस तरह के उल्का पिंडो से टकराव होते रहते है। इसी तरह की एक और घटना मे 6.5 करोड़ वर्ष पहले एक विशाल उल्का पिंड या क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भयावह थी कि पृथ्वी पर उपस्थित अधिकांश जीवन समाप्त हो गया था।
हाँ, इस घटना मे ही सारे डायनोसोर भी समाप्त हो गये थे ना! मैने टीवी पर देखा था।
एकदम सही कहा। जिस तरह आज पृथ्वी के हर चप्पे चप्पे पर मानव बस्तीयाँ है, उस समय पृथ्वी के चप्पे चप्पे पर डायनोसोर का राज था। लाखों वर्षो तक पृथ्वी पर राज कर रहे सारे डायनोसोर एक ही घटना मे समाप्त हो गये थे। जब कोई उल्का पिंड पूरी गति से पृथ्वी जैसे ग्रह से टकराता है तो टक्कर से भीषण ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो कि टक्कर के स्थान और उसके आसपास सैकड़ो किलोमीटर के दायरे मे सब कुछ नष्ट कर देती है। जीवन पर सबसे पहला प्रहार इस प्राथमिक ऊर्जा का होता है। यदि टक्कर सागर मे टक्कर हो तो प्रचंड सुनामी आती है। लेकिन जीवल को हानि इसके बाद के कुछ माह या वर्षो मे होती है। ये अगले कुछ वर्ष शीत युग या हीमयुग के होते है। होता यह है कि उल्कापिंड के पृथ्वी से टकराव से बड़ी मात्रा मे धूल मिट्टी, धुंआ उछलकर आकाश मे उंचाई तक पहुंच जाता है और घने गहरे बादलो का रूप ले लेता है। इन बादलो के छंटने मे कई महिने, साल भी लग जाते है। यह बादल इतने घने होते है कि इनसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने वाला अधिकांश प्रकाश रूक जाता है। प्रकाश के ना होने से तापमान कम होगा, तापमान के कम होने से एक लंबी शीत ऋतु आ जाती है, सब कुछ हिम के रू जम जाता है। प्रकाश के ना होने तथा तापमान के कम हो जाने से सारी वनस्पति नष्ट हो जाती है। वनस्पति ना होने से उसपर निर्भर प्राथमिक जीवन समाप्त हो जायेगा। अगली बारी इन प्राथमिक जीवो पर निर्भर मांसाहारी जीवो की होती है। खाद्य चक्र के नष्ट होने से लगभग समस्त जीवन समाप्त हो जाता है!
तो क्या ऐसा अब भी हो सकता है? किसी उल्का की टक्कर मे हम भी मर जायेंगे ?
हाँ! ऐसा अब भी हो सकता है। पृथ्वी से उल्का पिंड अब भी टकरा सकते है। लेकिन वर्तमान मे हमारी पास तकनीक है। हमारी दूरबीने और उपग्रह इस तरह की टक्कर का पुर्वानुमान लगा लेते है, वे ऐसी घटना से बचने के लिये कुछ दिन, कुछ माह या कुछ वर्ष पहले ही चेतावनी दे सकते है।
चिंटु बोल उठा, तो क्या अंकल ऐसी चट्टानो को हम मिसाईल या बम से अंतरिक्ष मे नष्ट नही कर सकते? मैने एक फ़िल्म मे देखा था!
यह इतना आसान नही है। अंतरिक्ष मे उल्का को किसी मिसाईल या बम से नष्ट करने के प्रयास मे संभव है कि उसके कई टूकड़े हो जाये और पृथ्वी के कई क्षेत्रो से टकराकर अधिक तबाही फ़ैला दे!
तब हम क्या कर सकते है ?
अच्छा यह बताओ कि गर्मियों की छूट्टी मे आप क्या कर करते हो ?
गार्गी : हम तो नाना नानी के घर जाते है।
अनुषा : हम तो गर्मीयों मे हिल स्टेशन जाते है! बड़ा मजा आता है।
इसका अर्थ यह है कि गर्मीयों से बचने के लिये आप लोगो के पास वैकल्पिक रहने की व्यवस्था है। कितना अच्छा हो कि मानव के पास भी पृथ्वी के अतिरिक्त एक वैकल्पिक निवास के लिये ग्रह हो ? तब छुट्टीयों मे आप नाना नानी के घर की बजाये किसी अन्य ग्रह पर जाओगे।
तब तो बड़ा मजा आयेगा। लेकिन पापा यदि कोई उल्का पिंड नही टकराया तो हमे किसी अन्य ग्रह पर रहने की जगह खोजने की आवश्यकता तो नही है ना!
ऐसा भी नही है। बीसवी सदी के आरंभ मे मानव जनसंख्या 1.5 अरब थी। वर्तमान मे मानव जनसंख्या साढे सात अरब है। बढ़ती जनसंख्यासे पृथ्वी के संसाधनो पर प्रभाव पड़ रहा है। पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन सिमीत है, वे एक क्षमता तक ही जनसंख्या का बोझ सह सकते है। कुछ समय बाद ऐसा समय आना तय है कि पृथ्वी पर खाद्यान, पीने योग्य जल की कमी हो जायेगी। बढ़ती जनसंख्या से अन्य समस्याये भी बढ़ रही है। अधिक जनसंख्या के लिये रहने के लिये अधिक जगह चाहिये, जिससे वनो की कटाई हो रही है। बढती जनसंख्या और अधिक सुख सुविधाओं के लिये अधिक ऊर्जा चाहिये और वर्तमान मे हम ऊर्जा के लिये हम जीवाश्म इंधन जैसे पेट्रोल, कोयले पर निर्भर है। इन इंधनो के ज्वलन से प्रदुषण बढ़ रहा है, पृथ्वी हर वर्ष अधिक गर्म होते जा रही है। इसे ही ग्लोबल वार्मींग कहते है जिसके प्रभाव मे ध्रुवो पर, ग्लेशियरो की बर्फ़ पिघल रही है, सागर का जल स्तर बढ़ रहा है। इन सब कारको से जलवायु मे सतत परिवर्तन आ रहे है, कहीं बाढ़, कहीं सूखा पड़ रहा है, बेमौसम बरसात, चक्रवात, तूफ़ान आ रहे है। यदि इस गति से पर्यावरण नष्ट होता रहा तो हमे निकट भविष्य मे ही रहने के लिये कोई अन्य ग्रह खोजना होगा।

तो ताउजी, हमे रहने के लिये कैसा ग्रह चाहीये?
हमारे जीवन के लिये सबसे आवश्यक है, पानी वह भी द्रव अवस्था मे। इसके लिये हमे ऐसा ग्रह चाहिये जिसमे द्रव अवस्था मे जल मिले अर्थात वह ग्र्ह गोल्डीलाक झोन मे हो।
लेकिन हमारे सौर मंडल मे तो ऐसा कोई ग्रह नही है ? तो क्या हमे सौर मंडल से बाहर ही जाना होगा ?
हमारे सौर मंडल मे कुछ ऐसे स्थान है जहाँ द्रव जल की उपस्तिथी है, जैसे बृहस्पति का चंद्रमा युरोपा। यह एक बर्फ़िला पिंड है, लेकिन इसकी सतह के नीचे द्रव जल के सागरो के होने के प्रमाण है।
ताउजी, मैने टीवी मे देखा था कि हम मंगल पर भी तो रह सकते है ना ? अनुषा ने पूछा!
मंगल पर द्रव जल के प्रमाण तो है। लेकिन प्रचुर मात्रा मे जल की उपस्तिथि नही दिखी है। लेकिन मंगल के ध्रुवो पर बर्फ़ उपलब्ध है। दूसरी समस्या मंगल का वातावरण है जो कि काफ़ी विरल है, आक्सीजन कम है और कार्बनडाय आक्साईड की मात्रा जानलेवा है, जिससे मंगल पर पृथ्वी के जैसे सांस नही ले सकते है।
तो हम मंगल पर कैसे रहेंगे ?

हमारे पास दो उपाय है , सबसे पहला तो यह है कि कांच के बड़े बड़े गुंबदो का निर्माण कर उसके अंदर जीवन योग्य वातावरण बनाया जाये। दूसरा उपाय है मंगल को पृथ्वी के जैसा बनाया जाये, इस उपाय को टेराफ़ार्मिंग कहते है जिसमे मंगल पर पृथ्वी के जैसे चुंबकीय क्षेत्र, सागर और वायुंमंडल को बनाया जा सकेगा। लेकिन यह उपाय अभी विज्ञान फ़ंतांशी मे ही है, हमारा विज्ञान अभी इतना उन्नत नही हुआ है कि किसी ग्रह को कृत्रिम रूप से बदल कर पृथ्वी जैसे बना सके।
लेकिन अंकल यदि सूर्य ही नष्ट हो गया तो ?
तब तो हमे सौर मंडल के बाहर ही जाना होगा। किसी अन्य तारे की परिक्रमा करते किसी पृथ्वी जैसे ग्रह की तलाश मे।
क्या यह संभव है, अंकल ?

हाँ क्यों नही! बस उसके लिये हमे तैयारी करनी होगी। सबसे पहले अंतरिक्ष की दूरीयों को समझो। अंतरिक्ष की दूरीयाँ कल्पना से अधिक है। इस दूरी को मापने हम किलोमीटर, मील जैसी ईकाई की जगह प्रकाश वर्ष का प्रयोग करते है। एक सेकंड मे तीन लाख किमी चलने वाला प्रकाश एक वर्ष मे जितनी दूरी तय करता हौ उसे एक प्रकाश वर्ष कहते है। हमारे सबसे निकट का तारा भी हमसे चार प्रकाश वर्ष दूर है। ये दूरी इतनी अधिक है कि वर्तमान के सबसे तेज यान को भी इस तारे तक पहुंचने मे सैकडो वर्ष ले लेंगे। यदि हम किसी तरह से प्रकाशगति के आधी गति से चलने वाला यान भी बना लें तो उसे इस तारे तक जाने मे ही आठ वर्ष लग जायेंगे। इस गति से तेज यात्रा करने मे बहुत सी समस्याये है, उस पर चर्चा किसी अन्य दिन करेंगे।
तो पापा यह बताओ कि हम किसी अन्य तारे तक कैसे जायेंगे ?
तुम नाना नानी के घर जाने से पहले क्या करते हो ? अपना सारा सामान पैक करते हो, रास्ते के लिये खाना पानी पैक करते हो। वैसी ही तैयारी इस यात्राओं के लिये करनी होगी। इतनी लंबी यात्रा के लिये खाना पानी पैक करना ही काफ़ी नही होगा, ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि यान मे ही खाना उगाया जा सके, अर्थात खेती की व्यवस्था, जल की व्यवस्था, आक्सीजन पुन:निर्माण की व्यवस्था, ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था करनी होगी। इन सब के लिये कार्यो के लिये अंतरिक्ष यान भी विशालकाय बनाना होगा। यह यान एक तरह से पूर्णरूप से आत्मनिर्भर एक छोटा शहर होगा जोकि कुछ वर्षो की नही कुछ दशको या शताब्दि की यात्रा करने मे सक्षम होगा। पूरी संभावना है कि इस यात्रा का आरंभ यात्रीयों की एक पीढ़ी करेगी और समाप्ति दूसरी या तीसरी पीढी मे होगी। और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात , इस तरह की यात्रा एक तरफ़ा होगी, अंतरिक्षीय दूरीयों के कारण पृथ्वी पर फ़िर कभी वापिस ना लौटने के लिये…..
मानव जाति ने पृथ्वी पर जन्म तो लिया है लेकिन वह पृथ्वी पर समाप्त नही होगी!
बहुत ही अच्छी लेख है आपकी श्रीमानजी, आपकी पोस्ट को पढ़ के ऐसे लग रहा है जैसे किसी से face to face बात कर रहा हुँ, आप यु ही अच्छा लेख लिखते रहे
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i can do it.may aeese planet ki khoj karuga ya aeesa shahar wala yan banau ga.mere tarike se budh pe chaye to jiban sambhw ho sakta hai.mujhe kisi tarah aek chans mil jaye reshearch karne ka to may kardu apne tarike se.
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Good information sir
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुलशेर ख़ाँ शानी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
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Reblogged this on oshriradhekrishnabole.
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interesting informative post sharing
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