12 फरवरी महान वैज्ञानीक चार्ल्स डार्विन का जन्मदिन है। यह उस महामानव का जन्मदिन है जिसने अपने समय की जैव विकास संबधित समस्त धारणाओं का झुठलाते हुये क्रमिक विकासवाद(Theory of Evolution) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था।
जीवों में वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार या अनुकूल कार्य करने के लिए क्रमिक परिवर्तन तथा इसके फलस्वरूप नई जाति के जीवों की उत्पत्ति को क्रम-विकास या विकासवाद (Evolution) कहते हैं। क्रम-विकास एक मन्द एवं गतिशील प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप आदि युग के सरल रचना वाले जीवों से अधिक विकसित जटिल रचना वाले नये जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव विज्ञान में क्रम-विकास किसी जीव की आबादी की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के दौरान जीन में आया परिवर्तन है। हालांकि किसी एक पीढ़ी में आये यह परिवर्तन बहुत छोटे होते हैं लेकिन हर गुजरती पीढ़ी के साथ यह परिवर्तन संचित हो सकते हैं और समय के साथ उस जीव की आबादी में काफी परिवर्तन ला सकते हैं। यह प्रक्रिया नई प्रजातियों के उद्भव में परिणित हो सकती है। दरअसल, विभिन्न प्रजातियों के बीच समानता इस बात का द्योतक है कि सभी ज्ञात प्रजातियाँ एक ही आम पूर्वज (या पुश्तैनी जीन पूल) की वंशज हैं और क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने इन्हें विभिन्न प्रजातियों मे विकसित किया है।
दुनिया के सभी धर्मग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मानव सहित सृष्टि के हर चर और अचर प्राणी की रचना ईश्वर ने अपनी इच्छा के अनुसार की। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध वर्णन से भी स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में मनुष्य लगभग उतना ही सुंदर व बुद्धिमान था जितना कि आज है। पश्चिम की अवधारणा के अनुसार यह सृष्टि लगभग छह हजार वर्ष पुरानी है। यह विधाता द्वारा एक बार में रची गई है और पूर्ण है।
ऐसी स्थिति में किसी प्रकृति विज्ञानी (औपचारिक शिक्षा से वंचित) द्वारा यह प्रमाणित करने का साहस करना कि यह सृष्टि लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी है, अपूर्ण है और परिवर्तनीय है-कितनी बड़ी बात होगी। इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। ईश्वर की संतान या ईश्वर के अंश मानेजाने वाले मनुष्य के पूर्वज वानर और वनमानुष के पूर्वज समान ही रहे होंगे, यह प्रमाणित करनेवाले को अवश्य यह अंदेशा रहा होगा कि उसका हश्र भी कहीं ब्रूनो और गैलीलियो जैसा न हो जाए।
अनादि माने जानेवाले सनातन धर्म, जिसे हिंदू धर्म के नाम से भी जाना जाता है, में कल्पना की गई है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और मनु व श्रद्धा को रचा। आदिपुरुष व आदिस्त्री माने जाने वाले मनु और श्रद्धा को आज भी पूरे श्रद्धा व आदर से पूजा जाता है, क्योंकि हम सब इन्हीं की संतान माने जाते हैं। उसी तरह अति प्राचीन यहूदी धर्म, लगभग दो हजार वर्ष पुराने ईसाई धर्म और लगभग तेरह वर्ष पुराने इसलाम धर्म में आदम एवं हव्वा को आदिपुरुष और आदिस्त्री माना जाता है। उनका नाम भी आदर के साथ लिया जाता है, क्योंकि सभी इनसान उनकी ही संतान माने जाते हैं।
कालक्रम की गणना में विभिन्न धर्मों में अंतर है। सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार, सृष्टि की रचना होती है, विकास होता है और फिर संहार (प्रलय) होता है। इसमें युगों की गणना का प्रावधान है और हर युग लाखों वर्ष का होता है, जैसे वर्तमान कलियुग की आयु चार लाख बत्तीस हजार वर्ष आँकी गई है।
पश्चिमी धर्मों(अब्राहमिक धर्मो) की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर ने सृष्टि की रचना एक बार में और एक बार के लिए की है। उनके अनुसार मानव की रचना अधिक पुरानी नहीं है। लगभग छह हजार वर्ष पूर्व मनुष्य की रचना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्य आज है। इसी तरह सृष्टि के अन्य चर-अचर प्राणी भी इसी रूप में रचे गए और वे पूर्ण हैं।
लेकिन मनुष्य की जिज्ञासाएँ कभी शांत होने का नाम नहीं लेती हैं। सत्य की खोज जारी रही। परिवर्तशील प्रकृति का अध्ययन उसने अपने साधनों के जरिए जारी रखा और उपर्युक्त मान्याताओं में खामियाँ शीघ्र ही नजर आने लगीं।
पूर्व में धर्म इतना सशक्त व रूढ़िवादी कभी नहीं रहा। समय-समय पर आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य जैसे विद्वानों ने जो नवीन अनुसंधान किए उन पर गहन चर्चा हुई। लोगों ने पक्ष और विपक्ष में अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए।
परंतु पश्चिम में धर्म अत्यंत शक्तिशाली था। वह रूढ़ियों से ग्रस्त भी था। जो व्यक्ति उसकी मान्यताओं पर चोट करता था उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती थी। कोपरनिकस ने धार्मिक मान्यता पर पहली चोट की। उनका सिद्धांत उनकी पुस्तक मैग्नम ओपस के रूप में जब आया तो वे मृत्यु-शय्या पर थे और जल्दी ही चल बसे। ब्रूनो एवं गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों को भारी कीमत चुकानी पड़ी। ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया। गैलीलियो को लंबा कारावास भुगतना पड़ा। पर उनके ये बलिदान व्यर्थ नहीं गए। उन्होंने लोगों के ज्ञानचक्षु खोल दिए। अब लोग हर चीज को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे।
उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में प्रख्यात चिकित्सक परिवार में जनमे चार्ल्स डार्विन ने चिकित्सा का व्यवसाय नहीं चुना। हारकर उनके पिता ने उन्हें धर्माचार्य की शिक्षा दिलानी चाही, पर वह भी पूरी नहीं हो पाई। बचपन से ही प्राकृतिक वस्तुओं में रुचि रखनेवाले चार्ल्स को जब प्रकृति विज्ञानी के रूप में बीगल अनुसंधान जहाज में यात्रा करने का अवसर मिला तो उन्होंने अपने जीवन को एक नया मोड़ दिया।
समुद्र से डरनेवाले तथा आलीशान मकान में रहनेवाले चार्ल्स ने पाँच वर्ष समुद्री यात्रा में बिताए और एक छोटे से केबिन के आधे भाग में गुजारा किया। जगह-जगह की पत्तियाँ, लकड़ियाँ पत्थर कीड़े व अन्य जीव तथा हडड्डियाँ एकत्रित कीं। उन दिनों फोटोग्राफी की व्यवस्था नहीं थी। अतः उन्हें सारे नमूनों पर लेबल लगाकर समय-समय पर इंग्लैंड भेजना होता था। अपने काम के सिलसिले में वे दस-दस घंटे घुड़सवारी करते थे और मीलों पैदल भी चलते थे। जगह-जगह खतरों का सामना करना, लुप्त प्राणियों के जीवाश्मों को ढूँढ़ना, अनजाने जीवों को निहारना ही उनके जीवन की नियति थी।
गलापागोज की यात्रा चार्ल्स के लिए निर्णायक सिद्ध हुई। इस द्वीप में उन्हें अद्भुत कछुए और छिपकलियाँ मिलीं। उन्हें विश्वास हो गया कि आज जो दिख रहा है, कल वैसा नहीं था। प्रकृति में सद्भाव व स्थिरता दिखाई अवश्य देती है, पर इसके पीछे वास्तव में सतत संघर्ष और परिवर्तन चलता रहता है।
चार्ल्स डार्विन ने जब 150वर्ष पूर्व “द ओरिजिन आफ़ स्पेशीज” का प्रकाशन किया था, तब उन्होने जानबूझकर जीवन की उत्त्पति के विषय को नजर अंदाज किया था। इसके साथ साथ अंतिम पैराग्राफ़ मे ‘क्रीयेटर’ (निर्माता) का जिक्र हमे इस बात का भी अहसास दिलाता है कि वे इस विषय पर किसी भी प्रतिज्ञा या दावे से झिझक रहे थे। यह कथन अकसर चार्ल्स डार्विन के संदर्भ मे सुनने मे आ जाता है। लेकिन उपरोक्त कथन सही नही है और सच यह है कि अंग्रेज प्रकृतिवादी डार्विन ने दूसरे कई दस्तावेजों मे इस बात पर विस्तार से चर्चा कीहै कि किस तरह पहले पूर्वज असितत्व मे आये होंगे।
“इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव, जीवन के किसी मौलिक रूप से अवतीर्ण या विकसित हुये है!”
चार्ल्स डार्विन ने सन 1859 मे द ओरिजिन आफ़ स्पेशीज मे यह कथन प्रकाशित किया था। डार्विन अपने सिद्धांत हेतु इस विषय के महत्व को लेकर पूर्णत: आश्वस्त थे। उनके पास रसायनो का जैविक घटको मे परिवर्तित हो जाने की घटना को ले कर आधुनिक भौतिक्तावादी तथा विकासवादी समझ व दृष्टि थी। खास बात यह है कि उनकी यह धारणा पास्चर के सहज पीढ़ी की धारण के विरोध मे किये जा रहे प्रयोगों के बावजूद बरकरार थी।
1859 में चार्ल्स डार्विन ने ‘ओरिजिन आफ स्पेसीज‘ नामक पुस्तक प्रकाशित करके विकासवाद का सिद्धांत प्रकाशित किया, जिसके मूल तत्व निम्नलिखित हैं-
- इस विविधतापूर्ण दृश्य जगत का आरंभ एक सरल और सूक्ष्म एककोशीय भौतिक वस्तु (सेल या अमीबा) से हुआ है। यही एककोशीय वस्तु कालचक्र से जटिल होते-होते इस बहुमुखी विविधता में विकसित हुई है। जिसके शीर्ष पर मनुष्य नामक प्राणी स्थित है।
- इस विविधता विस्तार की प्रक्रिया में सतत् अस्तित्व के लिए संघर्ष चलता रहता है।
- इस संघर्ष में जो दुर्बल हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। जो सक्षम हैं वे बच जाते हैं। इसे प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया कह सकते हैं।
- प्राकृतिक चयन की इस प्रक्रिया में मानव का अवतरण बंदर या चिम्पाजी की प्रजाति से हुआ है अर्थात् बंदर ही मानवजाति का पूर्वज है। वह ईश्वर पुत्र नहीं है, क्योंकि ईश्वर जैसी किसी अभौतिक सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। 1871 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि डिसेंट आफ मैन‘ (मनुष्य का अवरोहण) शीर्षक देकर डार्विन ने स्पष्ट कर दिया मनुष्य ऊपर उठने की बजाय बंदर से नीचे आया है।
- प्राकृतिक चयन से विभिन्न प्रजातियों के रूपांतरण अथवा लुप्त होने में लाखों वर्षों का समय लगा होगा।
डार्विन की इस प्रस्थापना ने यूरोप के ईसाई मस्तिष्क की उस समय की आस्थाओं पर जबरदस्त कुठाराघात किया। तब तक ईसाई मान्यता यह थी कि सृष्टि का जन्म ईसा से 4000 वर्ष पूर्व एक ईश्वर द्वारा हुयी थी। किंतु अब चार्ल्स लायल जैसे भूगर्भ शास्त्री और चार्ल्स डार्विन जैसे प्राणी शास्त्री सृष्टि की आयु को लाखों वर्ष पीछे ले जा रहे थे। इस दृष्टि से लायल और डार्विन की खोजों ने यूरोपीय ईसाई मस्तिष्क को बाइबिल की कालगणना की दासता से मुक्त होने में सहायता की।
डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से चर्च भले ही आहत हुआ हो और उसने डार्विन का कड़ा विरोध किया हो किंतु सामान्य यूरोपीय मानस बहुत उत्साहित और उल्लसित हो उठा। तब तक यूरोप की विज्ञान यात्रा देश और काल से आबद्ध भौतिकवाद की परिधि में ही भटक रही थी। भौतिकवाद ही यूरोप का मंत्र बन गया था। पूरे विश्व पर यूरोप का वर्चस्व छाया हुआ था। एशिया और अफ्रिका में उसके उपनिवेश स्थापित हो चुके थे। भापशक्ति के आविष्कार ने जिस औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया, स्टीमर आदि यातायात के त्वरित साधनों का आविष्कार किया, उससे यूरोप का नस्ली अहंकार अपने चरम पर था। ऐसे मानसिक वातावरण में डार्विन का प्राकृतिक चयन का सिद्धांत उनके नस्ली अहंकार का पोषक बनकर आया। अस्तित्व के सतत् संघर्ष और योग्यतम की विजय के सिद्धांत को यूरोपीय विचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया। एक ओर हर्बर्ट स्पेंसर और टी.एच.हक्सले जैसे नृवंश शास्त्रियों ने इस सिद्धांत को प्राणी जगत से आगे ले जाकर समाजशास्त्र के क्षेत्र में मानव सभ्यता की यात्रा पर लागू किया। तो कार्ल मार्क्स और एंजिल्स ने उसे अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के लिए इस्तेमाल किया। जिस वर्ष डार्विन की ‘ओरिजन आफ स्पेसीज‘ पुस्तक प्रकाशित हुई उसी वर्ष मार्क्स की ‘क्रिटिक आफ पालिटिकल इकानामी‘ पुस्तक भी प्रकाश में आयी। डार्विन की पुस्तक को पूरा पढ़ने के बाद मार्क्स ने 19 दिसंबर, 1860 को एंजिल्स को पत्र लिखा कि यह पुस्तक हमारे अपने विचारों के लिए प्राकृतिक इतिहास का अधिष्ठान प्रदान करती है। 16 जनवरी, 1861 को मार्क्स ने अपने मित्र एफ.लास्सेल को लिखा कि
‘डार्विन की पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है और वह इतिहास से वर्ग संघर्ष के लिए प्राकृतिक-वैज्ञानिक आधार प्रदान करने की दृष्टि से मुझे उपयोगी लगी है।‘
1871 में ‘दि डिसेंट आफ मैन‘ पुस्तक प्रकाशित होते ही उसके आधार पर एंजिल्स ने लेख लिखा, ‘बंदर के मनुष्य बनने में श्रम का योगदान‘ (दि रोल आफ लेबर इन ट्रांसफार्मेशन आफ एज टु मैन)। मार्क्स पर डार्विन के विचारों का इतना अधिक प्रभाव था कि वह अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘दास कैपिटल‘ का एक खंड डार्विन को ही समर्पित करना चाहता था, किंतु डार्विन ने 13 अक्तूबर, 1880 को पत्र लिखकर इस सम्मान को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उसे मार्क्स की पुस्तक के विषय का कोई ज्ञान नहीं था।
इस महामानव को शत शत नमन।
श्रोत : इंटरनेट।विकीपीडीया
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
नोट : यह लेख मौलिक नही है। यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध श्रोतो पर आधारित है।
एक बार फ़िर पढ़ा
बेहतरीन
धन्यवाद मंत्री जी 😂
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अंद विषवाश मूर्ति पूजा गलत है मगर भगवान हैं थेऔर रहेंगे कबीर धना जाट सदना कसाई……और भी वहुत हैं गिनती शुरू किया गया तो ..सुबह जल्दी ऊठो सारी सिरषटी वनाने वले को आंखें वंद करके रोज याद करो धन्यवाद करो कुछ दिनों के वाद जवाव मिल जयेगा डारवन या कोई और हमने के लेना पीशे जा कर आगे वढ़ो
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Andhvishwash ko mitane ke liye aisi jankari jari rakhe thank you
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This article is really very good…dharmik adhkar se life ki sacchai ki trf le Jane wale mahamanav darvin ka bht bht aabhar…
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धर्म मानव समाज के लिए केवल शोषणऔर अन्धविश्वास का मार्ग प्रसस्त करता है।
जब की विज्ञान मानव समाज के लिए विकास विश्वास निस्चय का मार्ग दर्शन कराता है
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डार्विन का सिद्धान्त आधार हीन है मनुष्य बन्दर की सन्तान नहीं है अगर मनुष्य बन्दर से इंसान बना तो आज कोई भी बन्दर इंसान क्यों नहीं बन रहा है आज तक मुसलमान 1438 वर्षों से अपने लिंग का खतना करवा रहा है पर आज तक एक भी इंसान खतना हुवे नहीं जन्म सका जापान में कई आदिवासी महिलाये अपनी गर्दन को लम्बी और पैर को छोटी करने के लिये गले में कड़े और पैर में छोटे जूते पहन रही है पर आज तक एक भी आदिवासी जापानी महिला प्राकृतिक रूप से लम्बी गर्दन और छोटे पैरो के साथ पैदा नहीं हो सकी एक वेज्ञानिक ने विकासवाद को सिद्ध करने के लिये चूहों पर शोध किया उसने चूहों की कई पीढ़ियों की पूंछ काटता रहा पर एक भी पुंछ कटा चूहा प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं कर सका इस लिये हम बन्दरो की सन्तान नहीं है बल्कि मनुष्य सर्वथा भिन्न प्रजाति है और हम महान ऋषि मुनियों की सन्तान है और धर्म कोई कर्मकाण्ड नहीं है बल्कि प्राणी मात्र को सुखी करने के लिये परमात्मा प्रद्दत व्यवस्था का नाम धर्म है
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आपकी टिप्पणी बता रही है कि आपने डार्विन के सिद्धांत को समझा ही नही है। आपके इस प्रश्न का उत्तर पहले भी दिया जा चुका है लेकिन आप अड़े हुये है।
विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार प्रजातियों मे विकास जीन्स(DNA) मे परिवर्तनो से होते है, ना कि किसी अंग के बलपूर्वक काट देने से। आपने किसी अंग को बलपूर्वक काट दिया या परिवर्तित कर दिया तो वह परिवर्तन DNA मे नही हुआ है।
DNA मे परिवर्तन एक दो या कुछ पिढीयों ने नही होते है, इस परिवर्तन के लिये हजारो वर्ष लगते है।
डार्विन को दोष देने से पहले माध्यमिक स्कूल के जैव विज्ञान का अच्छी तरह से अध्ययन किजिये, अधकचरी जानकारी खतरनाक होती है।
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सहभागी है ,पुर्न सत्य है.
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भाई अगर इंसान के पूर्वज बन्दर है और मान लिया की कार्मिक विकास में इंसान परिष्कृत हो गया तो सवाल ये है कि बन्दर आज भी बन्दर ही क्यों है उस प्रजाति को तो लुप्त हो जाना चाहिए डार्विन के हिसाब से. अब यहाँ इंसान भी मौजूद है और बन्दर भी . हद होती है तर्क की भी
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जी आप सही कहा रहे है, हद होती है कुतर्क की भी ! “बन्दर आज भी बन्दर ही क्यों है उस प्रजाति को तो लुप्त हो जाना चाहिए डार्विन के हिसाब से” यह एक ऐसा कुतर्क डार्विन को ना पढने वाला ही कर सकता है.
मिथक : मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे।
आपने यह कई जगह पढ़ा होगा कि मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे! डार्विन के विकासवाद के विरोधी तथा धार्मिक कथाओं मे विश्वास करने वाले भी यह कहते रहते है कि यदि मानवो का विकास बंदरो से हुआ है तो अभी तक बंदर क्यो बचे हुये है, उन्हे मानव या कम से कम आदिमानव अवस्था मे होना चाहिये।
सत्य क्या है ?
वैज्ञानिक तथ्य यह है कि बंदर मानव के पूर्वज नही है। इस गलतफहमी को सहारा चित्र के बांये भाग मे दिखाये गये प्रसिद्ध भाग से उपजी है। इस चित्र का प्रयोग डार्विन के क्रमिक विकासवाद को दर्शाने के लिये किया जाता है। यह चित्र जीवन के विकासवाद का गलत चित्रण है।
पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ अमीबा जैसे एक कोशीय जीव से हुआ है। इन एक कोशीय जीवो से बहु कोशीय जीव बने। इन बहुकोशीय जीवो मे क्रमिक विकास से अन्य जीव बनते गये। यह विकास एक वृक्ष की तरह हुआ है। जीवन की हर प्रजाती इस वृक्ष की एक शाखा है। चित्र का दांया भाग देखे।
जिस तरह से सारे जीवों का पूर्वज एक कोशीय जीव था। इस एक कोशीय जीव से सारी प्रजातियाँ उत्पन्न हुयी है। उसी तरह से बंदर (वानर प्रजाति) और मानव जाति का पूर्वज एक ही जीव प्रजाति थी। इस आदीवानर-मानव प्रजाति की दो शाखाये बनी, एक शाखा मानव के रूप मे विकसित हुयी, दूसरी शाखा से वानर प्रजाति बनी। मानव की शाखा से भी अन्य आधुनिक प्रजातियाँ बनी, जैसे अफ़्रीकी मानव, मंगोलीय मानव, युरेशीयन मानव इत्यादि! दूसरी शाखा से वानर की अन्य प्रजाति जैसे बंदर, लंगूर, चिम्पाजी, ओरेंग उटांग, बनमानुष जैसी प्रजातियाँ बनी।
इस तरह से देखे तो यह स्पष्ट है कि बंदर मानव के पूर्वज नही है, बल्कि बंदरो तथा मानवो का पूर्वज एक ही है। वानरो को मानवो का चचेरा भाई माना जा सकता है।
दूसरा प्रश्न कि यदि मानवो का विकास बंदरो से हुआ है तो अभी तक बंदर क्यो बचे हुये है, उन्हे मानव या कम से कम आदिमानव अवस्था मे होना चाहिये। यह प्रश्न उपर दिये गये तथ्य की रोशनी मे बेमानी हो जाता है। हर प्रजाति मे विकास की दर अलग होती है, मानव मे यह दर तेज है, अन्य प्रजाति मे यह दर धीमी है। वानरो मे विकास हो रहा है, लेकिन उन्हे मानव के समकक्ष आने मे लाखो वर्ष लग सकते है।
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Mera que ye h k jb b aise articles share kro to log dharmik manytao or
bhgvn k astitva k anusar ye hi sbse phle bolte h k bhgvn nhi h to is
duniya me pani kaise aya..ye duniya kaise chal rahi h?
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आपका उदाहरण सत्य के काफी करीब है। मेरी भी शंका का आज निवारण हो गया
आपको बहुत बहुत धन्यवाद
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सही कहा , विज्ञान का मतलब ही विकास है। ख़ुद विज्ञान भी किसी नतीजे पर रुकता नहीं उसका भी विकास होते ही रहता है ।
धन्यवाद
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Bilkul sahi h sir…jinhone science ko samjha nhi h aur jo dharm ke rangin chashme se enhe dekhenge to enko samajh me nhi aayega…
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Right sir
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बेहतरीन पोस्ट बेहहतरपन काम. हर युवा पसंद करेगा
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Mujhe ye article bahut hi achha laga …i wish k in cheezo ko or b log jane or andhvishvas s door ho is duniya m sirf or sirf insaniyat ho na ki koi dharm…plzz is tarah k articles or bhi or jldi post kjyga…thnku for this aswm knowldge..
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its very imp and truthful information and need to all generation
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Your website is good
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Bahut sahi hai.
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इनको जानने और पढने से लोगों की विचार धारा बदलेगी
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Bhaiyo, agar patharo ke ishvar me koi proof hai to batao
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West of luck…. ☺
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धर्म है, परन्तु ‘मानवता’ धर्म है ‘समता’ धर्म है, विपरीत इसके ”अमानवीयता और विषमता” अधर्म है,, लेकिन यह कहना कि कल्पित ‘भगवान और ईश्वर” को मानने वाले ”धार्मिक” होते है, यह ”सैधांतिक” नहीं है,, जय भारत,, जय भारतीय,,,
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Zuthe bhagwan ko mankar jinda insan ko nafrat /jatibhed karna, Zuthe /nakli prem dikhana Desh ke aur manavta ke sath bahut bada dhoka hai.
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charls darvin ke siddhanto se mai poorntya sahmat hoon, kyonki ‘kathit dharmik manytayen’ poorntya”avaigyanik” hain,,, jay bhart, jay bhartiy,,,
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Question ye hai ki pura jeevan chakra aur bramand ko chala kaun raha hai.
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भौतिकी के नियम। दूसरे शब्दों में ब्रह्माण्ड भौतिकी के नियमो से बंधा हुआ स्वचालित है।
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धर्म की अँधेरी गुफा से बाहर निकलकर एक नई शाश्वत सोच प्रदान करने वाले महामानव को शत्-शत् नमन http://samanvichar.blogspot.com
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Bhai jaha science ki simayai khatam hoti h waha se god ki sima chaloo hoti h
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आप ईश्वर पर विश्वास करने स्वतन्त्र है । डार्विन ईश्वर जैसी किसी शक्ति पर विश्वास नही करते थे।
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तुमने भी मान लिया के ‘ ईश्वर की सीमाएं ‘ होती है ?
मतलब केवल अपने फायदे के लिए तुम ईश्वर को असीमित तथा सीमित दोनों बोल देते हो ? कोई प्रूफ है ? ईश्वर के सीमित और असीमित होने का ?
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good
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महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के बारे में बहुत अच्छी जानकारी आपने हमें मुहैया कराई है, जिसके लिए आपका बहुत – बहुत धन्यवाद।
कृपया इस जानकारी को भी पढ़े :- इंटरनेट सर्फ़िंग के कुछ टिप्स।
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आज भारत में इस तरह का ज्ञान पढाया होता तो हमारे युवक और युवती कर्मकांड और अंधश्रद्धा में भटके ना होते , हजार साल पहले बुद्ध ने कहा था , दुनिया नश्वर हैं, हर एक चीज नश्वर है , मोह ,माया ये जीवन के पेहलू नही हैं यह केवलं एक स्वार्थ है । जो पतन कीं ओर ले जाती है । इसलिये एक बात यहां कहना चाहता हुँ, कीं ” नौजवान वो नही होता ,जो हवा के साथ बह जाता है। नौ जवान वो होता है ,जो हवा ओका रुख मोड देता है।
एक बुद्ध का अनुयायी
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महान प्रकृति प्रेमी और पर्यवेक्षक चार्ल्स पर आपका यह लेख परिपूर्ण है -आभार!
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प्रभावशाली ,
जारी रहें।
शुभकामना !!!
आर्यावर्त
आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।
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धर्म की बँद कंदराओँ से विज्ञान के खुले विश्व मेँ मानव मस्तिष्क को ले जानेवाले इस महामानव को कोटिशः नमन।
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