अपोलो 5 यह चन्द्रयान (Lunar Module- जो भविष्य मे चन्द्रयात्रीयो को ले जाने वाला था) कि पहली मानव रहित उडान थी। इस उडान की खासीयत यह थी कि इसमे आरोह और अवरोह के लिये अलग अलग चरण लगे हुये थे और ये चरण यान से अलग हो सकते थे। अवरोह चरण का इंजन अवकाश मे दागा जाने वाला पहला इंजन बनने जा रहा था।
इस अभियान का एक उद्देश्य “फायर इन द होल” नामक जांच थी। इस जांच मे आरोह इंजन को अवरोह इंजन के लगे होने पर भी दागा जाना था।

अपोलो 4 की तरह इस उडान मे देरी हो रही थी। इसका मुख्य कारण चन्द्रयान के निर्माण मे हो रही देरी थी। दूसरा कारण अनुभव की कमी थी क्योंकि सब कुछ पहली बार हो रहा था। यान की अभिकल्पना पूरी हो गयी थी लेकिन इंजन ठिक तरह से कार्य नही कर रहे थे। अवरोह इंजन ठीक से जल नही रहा था वहीं आरोह इंजन मे निर्माण और वेल्डींग की समस्या थी।
यान के प्रक्षेपण की योजना अप्रैल 1967 थी। लेकिन चन्द्रयान का निर्माण ही जून 1967 मे पुर्ण हो पाया। चार महीनो की जांच और मरम्मत के बाद नवंबर के अंतिम सप्ताह मे चन्द्रयान को राकेट से जोडा गया।
17 दिसंबर चन्द्रयान एक जांच मे असफल रहा। चन्द्रयान की खिडकी दबाव के कारण टूट गयी, ये खिडकी अक्रेलीक कांच से बनी थी। बाद मे इस खिडकी को अल्युमिनीयम से बनाया गया।
अपोलो 5 की उडान मे सैटर्न IB राकेट का प्रयोग किया गया जो कि सैटर्न 5 से छोटा था लेकिन अपोलो यान को पृथ्वी की कक्षा मे स्थापित करने की क्षमता रखता था। इसमे वही राकेट उपयोग मे लाया गया जिसे अपोलो 1 की उडान मे उपयोग मे लाया जाना था। यह राकेट दुर्घट्ना मे बच गया था।
समय बचाने के लिये चन्द्रयान मे पैर नही लगाये गये। खिडकी मे अल्युमिनियम की चादर लगा दी गयी। यान मे यात्रीयो के नही जाने के कारण से उडान बचाव राकेट नही लगाया गया। इन सभी कारणो से राकेट सिर्फ 55 मिटर उंचा था।

22 जनवरी 1968 को अपनी योजना से 8 महिने की देरी से अपोलो 5 को सूर्यास्त से ठीक पहले प्रक्षेपित कर दिया गया। सैटर्न IB ने सही तरीके से कार्य किया और दूसरे चरण के इण्जन ने चन्द्रयान को 163x 222 किमी की कक्षा मे स्थापित कर दिया। 45 मिनिट बाद चन्द्रयान अलग हो गया। पृथ्वी की कक्षा मे दो परिक्रमा के बाद 39 सेकंड के लिये योजना मुताबिक अवरोह इंजन दागा गया। लेकिन इसे यान के मार्गदर्शक कम्युटर ने 4 सेकंड बाद ही रोक दिया गया क्योंकि उसने पाया कि इंजन आवश्यकता अनुसार प्रणोद(Thrust) उतपन्न नही कर पा रहा है। यह एक साफ्टवेयर मे रह गयी एक गलती के कारण हुआ था, जिसके कारण आवश्यक दबाव नही बन रहा था।
भूनियंत्रण कक्ष ने एक पर्यायी योजना पर काम करना शुरू किया। उन्होने यान के मार्गदर्शक कम्प्युटर को बंद कर और एक यान के एक आनबोर्ड कम्युटर पर स्वचालित क्रमिक प्रोग्राम को शुरू कर दिया। इस प्रोग्राम ने अवरोह इंजन को दो बार और दागा। इसके बाद उन्होने अन्य जरूरी “फायर इन द होल” जांच की जिसके लिये आरोह इंजन को एक बार और दागा।
यान की पृथ्वी की चार परिक्रमा होने के बाद अभियान समाप्त हो गया था। यान प्रशांत महासागर मे 12 फरवरी को गीर गया।
क्या किसी अपोलो मिशन में बिहार के गणिततज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का भी कुछ योगदान था , कृपया बताएं बहुत सी बातें तैर रही हैं ििइंतेरनेट पर ।
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अपोलो अभियान में डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह का कोई योगदान नही था। इंटरनेट और मीडिया पर जो भी
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निर्माण स्थल तो सच में बहुत साफ है … 🙂
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अच्छा लगा ये फोटो-विवरण!
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बढिया जानकारी!! शाबास!!
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