आर्यभट : प्राचीन भारत की महान खगोलीय प्रतिभा


पुणे में आर्यभट की मूर्ति
पुणे में आर्यभट की मूर्ति

लेखक : प्रदीप
आर्यभट प्राचीन भारत के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न गणितज्ञ-ज्योतिषी थे। वर्तमान में पश्चिमी विद्वान भी यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट प्राचीन विश्व के एक महान वैज्ञानिक थे। यद्यपि हम आर्यभट का महत्व इसलिए देते हैं क्योंकि सम्भवतः वे ईसा की पांचवी-छठी सदी के नवीनतम खगोलिकी आन्दोलन के पुरोधा थे। और आर्यभट की ही बदौलत प्राचीन भारत में वैज्ञानिक चिन्तन की सैद्धांतिक परम्परा स्थापित हो पाई।
कभी-कभी हम आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ नाम से भी संबोधित करते हैं। परन्तु उनका सही नाम आर्यभट था। सर्वप्रथम भारतीय चिकित्सक एवं पुरातात्विक विद्वान डॉ. भाऊ दाजी ने यह स्पष्ट किया था कि उनका वास्तविक नाम आर्यभट है, नाकि आर्यभट्ट। आर्यभट को आर्यभट्ट लिखने के पीछे कुछ विद्वानों का तर्क है कि आर्यभट ब्राह्मण थे, अत: भट्ट शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए। परंतु कुछ विद्वान ‘भट’ शब्द का अभिप्राय भूलवश ‘भाट’ समझतें हैं, मगर भट शब्द का वास्तविक अभिप्राय ‘योद्धा’ से है। वास्तविकता में आर्यभट ने एक योद्धा की ही भांति धर्मशास्त्रों और प्राचीन लोकविचारों तथा परम्पराओं से धैर्यपूर्वक मुकाबला किया। गौरतलब है कि उनकें ग्रंथ आर्यभटीय के टीकाकारों तथा अन्य पूर्ववर्ती ज्योतिषियों ने उन्हें ‘आर्यभट’ नाम से ही संबोधित किया है।

जन्म, काल तथा संबंधित स्थान

प्राचीन भारत के असंख्य पोथियों में उनके रचयिता तथा रचनाकाल के बारे में स्पष्ट जानकारी नही प्राप्त होती है। मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्यभट ने अपने समय के संबंध में सुस्पष्ट जानकारी दी है। आर्यभट ने अपने क्रांतिकारी कृतित्व ‘आर्यभटीय’ में यह जानकारी दी है कि उन्होनें इस ग्रंथ की रचना 23 वर्ष की आयु में कुसुमपुर में की थी। आर्यभटीय के एक श्लोक में वे बताते हैं कि

‘‘ कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुकें हैं और अब मेरी आयु 23 वर्ष है।’’

भारतीय ज्योतिषीय काल गणना के अनुसार कलियुग का आरंभ 3101 ईसा पूर्व में हुआ था। कलन से विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि आर्यभटीय की रचनाकाल 499 ई. है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्यभट का जन्म 476 ई. में हुआ होगा। अपने जन्मकाल की सुस्पष्ट सूचना देने वाले आर्यभट प्राचीन भारत के संभवत: पहले वैज्ञानिक थे।
हमें आर्यभट के माता-पिता, भाई-बहन, गुरु इत्यादि के बारे में कोई जानकारी नही प्राप्त है। यहाँ तक कि उनके जन्म स्थान के बारे में भी विद्वानों में आपसी मतभेद है। पहले विद्वानों का यह मत था कि आर्यभट का जन्म या तो पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में हुआ था या कुसुमपुर (पुष्पपुर) में। कुछेक विद्वानों के मतानुसार पाटलिपुत्र ही कुसुमपुर था। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र के निकट आर्यभट की वेधशाला थी। आर्यभटीय के टीकाकार नीलकंठ सोमयाजी के अनुसार आर्यभट का जन्म आश्मक जनपद में हुआ था। नीलकंठ और भास्कर प्रथम के अनुसार आर्यभट आश्मक जनपद (वर्तमान में महाराष्ट्र) से पाटलिपुत्र आए थे। आश्मक जनपद से होने के कारण उन्हें ‘आश्मकाचार्य’ और उनकें ग्रंथों को ‘आश्मकतंत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

उत्कृष्ट कृति : आर्यभटीय

ज्ञातव्य ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार आर्यभट ने कुल तीन ग्रंथों की रचना की थी। जिनमे से तीन ग्रन्थ दशगीतिका, आर्यभटीय एवं तन्त्र के बारे में वर्तमान में जानकारी उपलब्ध हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार उन्होंने ‘आर्यभट सिद्धांत’ नाम से एक और ग्रन्थ की रचना की थी, परन्तु वर्तमान में इस ग्रन्थ के मात्र 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इन 34 श्लोकों में आर्यभट ने खगोलीय यंत्रों के बारे में जानकारी दी है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार आर्यभट ने एक-दो ग्रन्थों की रचना और की थी। बहरहाल, आर्यभट की सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं क्रांतिकारी कृतित्व ‘आर्यभटीय’ है। इस कृति के लेखन के बाद पद्य शैली और सूत्र शैली में होने के कारण इसका खूब प्रचार हुआ। परन्तु मध्यकाल तक आते-आते कई सदियों तक आर्यभटीय ग्रन्थ लुप्तप्राय रहा। वर्ष 1865 में डॉ. भाऊ दाजी ने आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पांडुलिपियों को ढूढ़ निकाला। डॉ. भाऊ दाजी ने आर्यभट एवं आर्यभटीय पर गहन अध्ययन एवं शोध करने के पश्चात ‘जर्नल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ में एक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। तब जाकर लोगों को आर्यभट और उनके कृति के बारे में प्रथम प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हुई। यूरोपीय विद्वान हैंड्रिक केर्ण ने आर्यभटीय की मलयालमी पांडुलिपियों का उपयोग करके पहली बार वर्ष 1874 में नीदरलैंड से, मुद्रित एवं परमेश्वर के टीका सहित प्रकाशित करवाया। वर्ष 1930 में शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस ने फ्रांसीसी भाषा में आर्यभटीय का प्रकाशन किया। पण्डित बलदेव मिश्र ने हिंदी व्याख्या सहित आर्यभटीय को वर्ष 1966 में पटना में प्रकाशित करवाया।

आर्यभटीय संस्कृत काव्य रूप में रचित गणित एवं खगोलशास्त्र का एक छोटा-सा विशुद्ध ग्रंथ है। आर्यभटीय को विद्वान और प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले प्रथम ‘पौरुषेय’ ग्रंथ मानते हैं। यहाँ पौरुषेय से अभिप्राय है मनुष्य द्वारा रचित, जबकि आर्यभटीय से पहले के ग्रंथ ‘अपौरुषेय’ थे, यानी आचार्यों द्वारा न लिखा होकर दैवीय प्रेरणा से मुग्ध होकर लिखे गए ग्रंथ। आर्यभट पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को तोड़ने वाले क्रांतिकारी गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। आर्यभटीय में वर्णित सिद्धांत नवीन होने के साथ-साथ दूरदर्शी यथार्थ परिकल्पना भी थी।

आर्यभटीय में कुल 121 संस्कृत श्लोक हैं, जो चार पादों या भागों में विभाजित हैं। ये चार भाग हैं – दशगीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।

  1. दशगीतिकापाद : यह आर्यभटीय के चार भागों में से सबसे छोटा भाग है। इसमें कुल 13 श्लोक हैं। इनमें से 10 श्लोक गीतिका छंद में है, इसलिए इस भाग को ‘दशगीतिका सूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है। इस भाग के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है। आगे के एक ही श्लोक में आर्यभट अक्षरों द्वारा संख्याओं को लिखने की अपनी नवीन अक्षरांक पद्धति को प्रस्तुत करते हैं। शेष श्लोकों में आर्यभट ने सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, शनि, बृहस्पति, शुक्र और बुध के चक्कर (भगण) और कल्प, महायुग एवं त्रिकोणमिति इत्यादि की चर्चा की है।
  2. गणितपाद : इस भाग में अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित पर संक्षिप्त में चर्चा की गयी है। इसमें कुल 33 श्लोक हैं। इसके श्लोकों में वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का क्षेत्रफल, वृत्त का क्षेत्रफल, वृत्त की त्रिज्या, गोले का आयतन, समान्तर श्रेणी, चार दशमलव अंकों तक पाई (π) का शुद्ध मान आदि का गणितीय विवेचन किया गया है।
  3. कालक्रियापाद : कालक्रियापाद का अभिप्राय है – काल गणना। इस भाग में कुल 25 श्लोक है। इसमें काल एवं वृत्त के विभाजन और मासों, वर्षों, युगों, महायुगों के सम्बन्ध में बताया गया है। इसके 20 श्लोक ग्रहीय गतियों तथा खगोलशास्त्र सम्बन्धी अन्य विषयों पर केन्द्रित है।
  4. गोलपाद : यह सर्वाधिक प्रसिद्ध, सबसे बड़ा एवं ग्रंथ का अंतिम भाग है। इस भाग में कुल 50 श्लोक हैं। इसमें खगोल के विभिन्न वृत्तों को समझाया गया है और ग्रहों, चन्द्रमा और पृथ्वी के गतियों को स्पष्ट किया गया है। इसी भाग में आर्यभट ने ग्रहणों के सही कारण एवं अन्य नवीनतम खगोलीय अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है। जिसके बारे में आगे चर्चा करेंगें।

आर्यभट की क्रांतिकारी अवधारणाएं

आर्यभटीय के रचयिता के रूप में, आरंभ में आर्यभट का बहुत सम्मान रहा। उनके ग्रंथ में नवीन एवं युगांतरकारी अवधारणाएं थी, जिसके कारण आर्यभट बहुत जल्द ही मशहूर हो गये। आइए, आर्यभट की कुछ प्रमुख अवधारणाओं पर चर्चा करते हैं-

  • आर्यभट ने हजारों वर्ष पुराने इस विचार का खंडन कर दिया कि हमारी पृथ्वी ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थिर है। आर्यभट ने भूभ्रमण का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। इसका विवरण आर्यभट गोलपाद में निम्न प्रकार से देते हैं-

    अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌विलोमंग यद्वत्‌। अचलानि भानि तद्वत्‌ समपश्चिमगानि लंकायां॥
    ‘‘लंका में स्थित मनुष्य नक्षत्रों को उल्टी ओर (पूर्व से पश्चिम) जाते हुए देखता है उसी भांति से चलती नाव में बैठे मनुष्य को किनारें स्थित वस्तुओं की गति उल्टी दिशा में प्रतीत होती है।’’

    पृथूदकस्वामी आर्यभट की एक आर्या के बारे में लिखते हैं-

    भपंजर: स्थिरो भूरेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥‘
    ‘तारामंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूर्णन गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों को उदय एवं अस्त करती है।’’

  • आर्यभट ने सूर्य से विविध ग्रहों के दूरियों को बताया, जो वर्तमान वैज्ञानिक माप से काफी मिलता-जुलता है।
  • आर्यभट ने स्थिर तारों के सापेक्ष पृथ्वी का अपनें अक्ष पर घूर्णन-काल की गणना 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सेकेण्ड की थी। आधुनिक गणना के अनुसार पृथ्वी अपने अक्ष पर 23 घंटे 56 मिनट और 4.091 सेकेण्ड में घूर्णन करती है। इससे यह स्पष्ट है कि आर्यभट की गणना शुद्धता के बहुत निकट है। ध्यातव्य है कि आर्यभट के परवर्ती गणितज्ञों ने भी पृथ्वी के घूर्णन-काल की गणना की थी, परन्तु आर्यभट की गणना उनकी तुलना में अत्यधिक सटीक थी। और आर्यभट ने एक वर्ष को 365.25868 दिनों एक चंद्र मास को 27.32167 दिनों का माना। जबकि आधुनिक गणना के अनुसार क्रमशः मान 365.25636 दिन और 27.32166 दिन है, जोकि शुद्धता के काफी निकट है।
  • आर्यभट ने गोलपाद में बताया कि जब पृथ्वी की विशाल छाया चन्द्रमा पर पड़ती है, तो चन्द्र ग्रहण होता है। उसी प्रकार, जब चन्द्रमा सूर्य एवं पृथ्वी के बीच आ जाता हैं और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्य ग्रहण होता हैं। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया।
  • आर्यभट ने महायुग अर्थात्, सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को चार समान भागों में विभाजित किया। उन्होनें मनु की भांति 4 : 3 : 2 : 1 में नही विभक्त किया। उन्होनें 1 कल्प में 14 मन्वन्तर और 1 मन्वन्तर में 7 महायुग माना। एक महायुग में चारों युगों को एकसमान माना।
  • आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूहों में निरुपित करने की नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया। उन्होनें इसी शैली में आर्यभटीय की रचना की है। आर्यभटीय के एक श्लोक से यह भी स्पष्ट है कि वे नई स्थानमान अंक पद्धति से परिचित थे। अत: वे शून्य से भी परिचित थे।
  • आर्यभट ने वृत्त की परिधि और उसके व्यास के अनुपात π (पाई) का मान 3.1416 कलित किया जोकि दशमलव के चार अंकों तक ठीक है। आर्यभट यह जानते थे कि π एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए उन्होनें अपनें मान को सन्निकट माना।
  • आर्यभट गोलीय त्रिकोणमिति की अवधारणाओं से भलीभांति परिचित थे। उन्होनें अर्धज्याओं के मान 3°45 के अंतर पर दिए, जो आधुनिक त्रिकोणमिति के सिद्धांतों के काफी अनुरूप हैं। वर्तमान में प्रचलित ‘साइन’ और ‘कोसाइन’ आर्यभटीय के ‘ज्या’ और ‘कोज्या’ ही हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में जो त्रिकोणमिति पढ़ाया जाता है, वास्तविकता में उसकी खोज आर्यभट ने की थी।
  • आर्यभट ने ब्रहमांड को अनादि-अनंत माना। भारतीय दर्शन के अनुसार अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों के मेल से इस सृष्टी का सृजन हुआ है। परन्तु आर्यभट ने आकाश को तत्व नही माना। इत्यादि !

आर्यभटीय पर टीकाएं और अलोचनाएं

आर्यभटीय ग्रंथ दुरूह एवं संक्षिप्त है और सूत्रबद्ध शैली में लिखा होने के कारण टीका (भाष्य) बिना समझना बहुत कठिन है। इस ग्रंथ की रचना के बाद समकालीन तथा परवर्ती ज्योतिषियों ने 12 टीकाएँ लिखीं। आर्यभटीय की सबसे प्राचीनतम टीका जो हमारे पास उपलब्ध है वह है – भास्कर प्रथम का ‘आर्यभट तंत्र भाष्य’, जिसे उन्होनें 629 ई. में, वलभी (वर्तमान महाराष्ट्र) में लिखा। आर्यभट के शिष्यों के बारे जानकारी देते हुए भास्कर ने लिखा है कि पांडुरंगस्वामी, लाटदेव (महान गणितज्ञ) और नि:शंकु ने आर्यभट के चरणों में बैठकर ज्योतिष विद्या अर्जित की थी। भास्कर के बाद भारत में कई गणितज्ञ-ज्योतिषी हुए मगर उनके मुकाबले का कोई भी नही हुआ।

आर्यभट के सौ वर्षों बाद एक महान गणितज्ञ-ज्योतिषी हुए – ब्रह्मगुप्त। ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट की आपत्तिजनक शब्दों में कड़वी आलोचना की। ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट के भूभ्रमण सिद्धांत, ग्रहण के सही कारण और आर्यभट के युग विभाजन पद्धति आदि की आलोचना एवं उपेक्षा की। विद्वान अल्बरूनी ने लगभग 13 वर्षों तक भारत में रहकर भारतीय संस्कृति, गणित एवं खगोलशास्त्र का व्यापक अध्ययन किया। उन्होनें ब्रह्मगुप्त के आलोचनाओं को गलत एवं आपतिजनक माना साथ ही आर्यभट की बुद्धि का भी लोहा माना।
आर्यभट तथा उनके शिष्यों द्वारा की गयी तिथि गणना पर आधारित पंचाग भारत में खूब प्रचलित रहे हैं। आर्यभट के ही कार्यों के आधार प्रसिद्ध गणितज्ञ व वैज्ञानिक उमर ख्याम ने जलाली पंचाग प्रस्तुत किया था।

आर्यभट को आदरांजलि

भारत का प्रथम उपग्रह आर्यभट
भारत का प्रथम उपग्रह आर्यभट

आर्यभट की उपलब्धियों को विशेष रूप से उनके कृति आर्यभटीय को महानतम ज्योतिषीय कार्यों के रूप में जाना जाता है। आर्यभट का चिंतन एक गणितज्ञ-ज्योतिषी के रूप में इतना महत्वपूर्ण था कि प्रथम भारतीय उपग्रह ‘आर्यभट’ को उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया। जिसे सोवियत संघ के एक रॉकेट के द्वारा 19 अप्रैल, 1975 में प्रक्षेपित किया गया था। भारत दुनिया पहला ऐसा देश है जिसने अपने पहले कृत्रिम उपग्रह को किसी काल्पनिक देवी-देवता का नाम नही दिया, बल्कि अपने एक महान गणितज्ञ का नाम दिया।

चन्द्रमा पर उपस्थित एक बड़ी दरार (गड्डे) का नाम आर्यभट रखा गया है। यही नहीं भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा बैलून से किए गये एक अनोखे प्रयोग में समतापमंडल की वायु में जीवाणुओं की ऐसी प्रजातियाँ पाई गई है जिसे पृथ्वी पर पहले कभी देखा नही गया था। उनमें से एक जीवाणु का नाम आर्यभट के सम्मान में ‘बैसिलस आर्यभट’ रखा गया। खगोलभौतिकी से सबंधित नैनीताल के निकट स्थित एक संस्थान को आर्यभट के सम्मान में ‘आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान’ रखा गया है।

लेखक के बारे मे

Pradeep Kumarश्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी  विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।

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सम्पर्क सूत्र
प्रदीप
378 ए, गली न. 17, जय विहार फेज-3, हरफूल विहार बापरौला, नई दिल्ली-110043
ई-मेल:- pk110043@gmail.com

17 विचार “आर्यभट : प्राचीन भारत की महान खगोलीय प्रतिभा&rdquo पर;

    1. आर्यभट ने π के लिये किसी शब्द या चिह्न का प्रयोग नही किया था। उन्होने π को व्यास और परिधी का अनुपात कहा था।
      आर्यभट्ट गलत है, सही नाम है आर्यभट!

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    1. सबसे पहले अकेले शून्य का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा नहीं है कि पहले हम 1 से 9 तक जानते थे और 9 के बाद 11 लिख देते थे, फिर आर्यभट शून्य लाये और हम 10 लिखना जान गए। और अगर बात केवल अकेले शून्य की ही है तो अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी शून्य जैसे चिन्ह का प्रयोग होते आया है मगर वो उन अर्थों में नहीं था। शून्य के सही अर्थ में सबसे प्राचीन प्रयोग माया सभ्यता में (36 BC) मिलता है। मगर उनसे पहले भी Olmec (Roughly 1500 BC to 400 BC) नाम की सभ्यता के कैलेंडरों में भी शून्य के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं। इसलिए शून्य की खोज का श्रेय अकेले भारत को ही नहीं है।
      भारत की मुख्य खोज है ‘शून्य युक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली’। वही प्रणाली जिसका प्रयोग आज भारत में और पूरी दुनिया में गणना के लिए किया जाता है। बिना शून्य के यह प्रणाली संभव नहीं है। इसलिए यह कहना ही गलत है कि भारत नें शून्य की खोज की। कहना ये चाहिए कि आधुनिक संख्या पद्धति की खोज भारत ने की। क्योंकि अगर केवल शून्य की बात आती है, तो भारत से पहले भी यह खोज की जा चुकी थी। भारत की इस प्रणाली की खोज से पहले हर सभ्यता और देश में गणना की अलग अलग प्रणाली थी, सभी के आधार जैसे की अपना 10 है, अधिकतर के दस ही थे, और कईयों के अलग भी थे। जैसे माया सभ्यता में आधार 20 था। मगर आज जिस प्रणाली का प्रयोग हम करते हैं, इतनी विकसित कोई भी प्रणाली नहीं थी। बाकियों में अधिकतर संख्याओं के लिए अलग चिन्ह होता था, जिससे बहुत से चिन्ह हो जाया करते थे। जिससे उस प्रणाली से कोई भी मनचाही संख्या लिखना संभव नहीं होता था। अपनी संख्या पद्धति स्थानमान संख्या पद्धति है। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। हर अंक दो अर्थ दिखाता है, एक तो स्वयं उसका मूल्य और दूसरा वो अंक संख्या में जिस स्थान पर रखा है। अंक के स्थान से ही उसका मान बढ़ जाता है। इसीलिए इस पद्धति से कोई भी संख्या लिखी जा सकती है। मगर स्थानमान पद्धति का भी सबसे पहला प्रयोग बेबिलोनिया सभ्यता में मिलता है। जहाँ संख्या का आधार 60 था। हम आज भी इसका प्रयोग करते हैं।
      हाँ, तो क्या इस पद्धति की खोज आर्यभट नें की? सीधे शब्दों में इसका उत्तर है नहीं। यह तो निश्चित है कि इसकी खोज भारत में ही और ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों के आसपास हुई। मगर यह खोज किसने और निश्चित रूप से कब की, इसके बारे में कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। नई संख्या पद्धति के प्राचीन लेखों से प्राप्त सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रमाण मिलते हैं ‘लोकविभाग’ (458 ई) नामक जैन हस्तलिपि में। दूसरा प्रमाण मिलता है गुजरात में एक गुर्जर राजा के दानपात्र में। इसमें संवत 346 अंकित है जिसका अर्थ हुआ 594 ईसवी। आर्यभट (जन्म 476 ई) नें इस नयी संख्या पद्धति की खोज नहीं की। यह खोज उनसे पहले ही हो चुकी थी। उनके ग्रंथ से ज्ञात होता है कि आर्यभट इस पद्धति से भली भाँति परिचित थे। आर्यभट ने एक नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया था। उन्होंने अपने ग्रन्थ आर्यभटीय में भी उसी पद्धति में कार्य किया है, नयी पद्धति में नहीं। हाँ, आर्यभट को लोग शून्य का जनक क्यूँ मानते हैं, इस सवाल का शायद जवाब हो सकता है कि अपने ग्रन्थ आर्यभटीय (498 ई) के गणितपाद, 2 में उन्होंने एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है ‘स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात’ मतलब प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से दस गुना है।
      कुछ लोगों को यह भी भ्रम है कि वैदिक काल में शून्य की या इस पद्धति की खोज हो चुकी थी। वेदों में इस बात के प्रमाण हैं। यह सरासर गलत है।

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  1. बहुत अच्छी जानकारी दि गई है इस लेख में, ये पढने के बाद हमे गर्व महसूस होता है, की हम ऐसे देश में पैदा हुये है जीस देश में आर्यभट जैसे ज्ञानी महाज्ञानी वैज्ञानिक हुये है।।।

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